ऊँचा भाव रखनेवालोंको ऊँची स्थिति प्राप्त होती है
कोई भी नियम नहीं है कि किस समय कैसी बात हो। सबसे बढ़िया बात यही है। मोहनलालजी ! थारे घाटो क्यों पडो ? थे मोल-तोल करो। वही आदमी अच्छी बातोंसे वंचित रहता है, उसके ही मोल-तोलवाली बातें पल्ले पड़ती हैं। ऊँचा भाव रखनेवालोंके ऊँची बातें पल्ले पड़ती हैं।
यदि मनुष्य सभी बातोंको उत्तम समझे तो उसकी यह दृष्टि तो ऊँची ही है। उसकी तो परीक्षा हो गयी। गोपियोंके कभी नीचे दर्जेकी बातें पल्ले नहीं पड़ती थी। जिसकी जैसी स्थिति होती है, उसको उसी स्तरकी बातें पल्ले पड़ती है।
आपलोग कहते हैं कि- 'हमलोगोंकी आपमें श्रद्धा किस तरह होवे ?' तो इसके दो उपाय हैं- (१) आप लायक बनो। (२) श्रद्धाका उपाय बताओ। तो आप लोग तो यही पूछा करो कि श्रद्धाका उपाय बताओ ? क्या करनेसे श्रद्धा उत्पन्न हो ?' दूसरी बात- आप श्रद्धाके लायक बनो।
आपमें कमी समझकर भी यह बात कही जा सकती है। आगेवाले में भी कमी समझकर यह बात कही जा सकती है। आगेवालेका मान रखकर कहना है।
स्वामीजी- 'इसका भाव अच्छी तरहसे नहीं खुला ?’
सेठजी- आपलोगोंसे डरता हूँ-
बिप्रबंस के असि प्रभुताई । अभय होइ जो तुम्हहि डेराई ॥
(रा.च.मा. बालकाण्ड २८४/५)
अर्थ- ब्राह्मणवंशकी ऐसी ही प्रभुता (महिमा) है कि जो आपसे डरता है, वह सबसे निर्भय हो जाता है (अथवा जो भयरहित होता है वह भी आपसे डरता है।)
यह बात है कि परमात्माके साथ उदाहरण या दृष्टान्त देना हो तो महात्माका ही देना चाहिये। दूसरा मिलता नहीं। महात्माका उदाहरण देना हो तो परमात्माका ही देना चाहिये; जैसे- गौ, ब्राह्मण एक हैं न, उसी तरह। तो यह बात है कि गौको तो ज्ञान नहीं, नहीं तो गौ की दृष्टिमें ब्राह्मण श्रेष्ठ होते, और ब्राह्मण की दृष्टिमें गौ श्रेष्ठ होती, पर अब यही कही जाती है कि दोनों बराबर हैं।
च्यवन ऋषिकी बात। सारा राज्य रख दिया, पर उसका मूल्य नहीं आया। अपनी बड़ाई आप ही करते हैं- 'मेरा मूल्य नहीं आया।' राज्यको उन्होंने क्या समझा (क्या महत्त्व दिया?) तब वहाँ जो दूसरे ऋषि थे, उनसे पूछा। उन्होंने कहा- 'एक गौ रख दो।' तब च्यवन ऋषिने कहा कि- 'अब हमारा मूल्य आ गया।' उस राज्यसे लाख गायें खरीदी जा सकती थी, पर उससे उनका मूल्य नहीं आया। गौ रख दी, तब मूल्य आ गया। गौ और ब्राह्मण अमोलक वस्तु हैं। जो उनका मूल्य करे तो वह मूर्ख है, इसलिये गौको बेचना पाप है।
च्यवन ऋषिको खरीद लिया न, उसी तरह अपने भी महात्माको, परमात्माको खरीद लेवें। अपनेको भी ऐसे ऋषि मिल जायँ तो २-४ खरीद लेवें- 'आप अपना मूल्य बताओ, मूल्य ?' आपका और उनका बराबर मूल्य है। महात्मा मानता है कि- 'आपका और मेरा एक ही मूल्य है।' ऐसा मानता है, तभी तो महात्मा है। यही बात भगवान्के है। एक ही कानून है। महात्माकी कानूनका मालूम पड़ जाय तो उसे ही परमात्मा पर घटा लिया करो।
साधुओंका, ईश्वरका एक मत है। अभी तक साधुओंका संसारमें मान है। असलीका तो है ही, नकलीका भी है। वेषका भी मान है। गेरुआ कपड़ा पहनकर कोई आ जावो, अभी तक तो मान है, जबकि अच्छे साधु १०० में से १० ही मिलेंगे। चोखा मतलब साधारण चोखा- साधक साधु- अपना साधन करने वाला। महात्मा नहीं, साधककी बात है, पर दिन-दिन यह काम छूट रहा है। जैसे-जैसे साधुओंमें साधुपना घटता जा रहा है, वैसे-वैसे भक्तोंमें भी श्रद्धा घटती जा रही है।
संसारमें जो झूठे साधु बने हैं- चाहे वेषसे हों, या गृहस्थ होकर भी झूठे ही साधु कहलाते हैं, वे नास्तिकताका प्रचार करते हैं। संसारमें जो धर्मध्वजी हैं, वे पक्के नास्तिक हैं, उनसे ही नास्तिकताका प्रचार होता है। उनका नाश करनेके लिये भगवान् अवतार लेते हैं।
क्या बतायें ? संसारमें सुधार हो या उद्धार हो ? नीति तो यह है कि सुधार होनेसे ही उद्धार होता है। पहले उद्धार लायें कहाँसे ? पहले उद्धार होता तो अपनी दाल गलती (अपना भी काम बन जाता।)
भगवान्का नाम दीनबन्धु आया है, समदर्शी, प्रेमी, पतितपावन आया है, पर कहीं भी अकर्मण्य-पावन, अकर्मण्य-सखा नहीं आया है।
निकम्मापन छोड़ो। निकम्मापन छोड़ना मामूली बात है। परिश्रम किया, कि निकम्मापन गया।
नारायण नारायण नारायण श्रीमन्नारायण नारायण नारायण...