नित्य नियमसे अपने घरमें स्वाध्याय, भगवत्- चर्चा करें, अपने जीवनमें समता उतार लें
महात्माओंकी बात क्या बतावें ? हमलोगोंको महात्मा बनना चाहिये। मेरे हाथकी बात होती तो अभी तक बना ही देते, बाकी थोड़े ही रखते। मेरे हाथकी बात नहीं है।
भगवान् सब कुछ कर सकते हैं। उनके शरण होकर उनसे प्रार्थना करनी चाहिये- यही अच्छा उपाय है। प्रभुसे पुकार लगानी चाहिये। लोग कहते हैं- 'भगवान्का दर्शन करा दो', किन्तु खाली बात-ही-बात करते हैं, कोई चाहता नहीं। चाहना कैसी होनी चाहिये ? चाहनाके अनुसार लगन होगी-
लगन लगन सब ही कहैं लगन कहावै सोय ।
नारायण जा लगन मैं तन मन दीजे खोय ॥
यह तो बहुत ऊँची लगन है। रुपयोंके लिये जैसी लगन है, ऐसी लगन हो जाय तो भी काम बन जाय।
कामिहि नारि पिआरि जिमि लोभिहि प्रिय जिमि दाम ।
तिमि रघुनाथ निरन्तर प्रिय लागहु मोहि राम ॥
(रा.च.मा. उत्तरकाण्ड दोहा १२० ख)
अर्थ- जैसे कामीको स्त्री प्रिय लगती है और लोभीको जैसे धन प्यारा लगता है, वैसे ही हे रघुनाथजी ! हे रामजी ! आप निरन्तर मुझे प्रिय लगिये।
किसीको महात्मा बनना हो तो जो महात्मा होते हैं, उनको लक्ष्य रखकर साधन करना चाहिये। महात्मा पुरुष कैसे होते हैं, इसका बार-बार विचार करना चाहिये। गीताकी १२वीं अध्याय, १४वीं अध्यायमें जो लक्षण लिखे हैं, इन्हें अपनेमें घटाने चाहिए (अर्थात् गीताजीमें जो लक्षण बताये हैं, वे अपनेमें कितने धारण हुए हैं)। इतनी बात समझमें नहीं आवे तो एक समताको अपनेमें उत्तार लें तो सब काम हो जाय। सबमें सम- स्तुति-निन्दामें सम, मान-अपमानमें सम; एक समता आपमें घट जाय तो भगवान् कहते हैं कि- 'मैं सब माफ कर दूँ।' विषमतामें रात-दिन जूते पड़ते हैं। घरमें आसक्त पुरुष हैं, उनके रात-दिन जूते पड़ते हैं, किन्तु छोड़ते नहीं।
कोई आदमी अनुचित पैसा पैदा करता है तो हम तो उसका विरोध ही करते हैं। जितना पैसा होना होगा, आप ही आ जायगा, छप्पर फाड़कर भगवान् दे देगा, किन्तु कोई सुनते ही नहीं। डटकर रहे (हम अनुचित पैसा पैदा नहीं करेंगे) तो जो आना होगा, वह आप ही आ जायगा। क्या बताया जाय, कुछ समझमें नहीं आता है। ईश्वरकी अलौकिक माया है। गिर
भगवत्प्राप्तिके विषयमें अपने सहारे की बात नहीं है। भगवान्की प्राप्तिका करार नहीं करते। कितना-कितना जमाना बीत गया, यह जमाना भी चला जायगा, हमलोग भी चले जायँगे। अब तो यह होता है कि जो बात कायम कर दे, उसी तरह करे कि या तो मर मिटेंगे, या इसको करेंगे, तब काम चले, नहीं तो बड़ी मुश्किल है। कलियुगसे लड़ाई लड़नी है।
जैसे उस दिन कहा था- घरमें आधा घण्टा सत्संगकी पुस्तकें पढ़ो। और समय भले ही रुपया कमाईमें लगाओ, परन्तु कम-से-कम आधा घण्टा इकट्ठा होकर भगवत्-चर्चा करो। इस प्रकार अपना समय नियम पूर्वक बितावें। नियम कर लें कि यह नहीं होगा तो भोजन नहीं करेंगे। भोजनवाली कण्डीशन (शर्त) बड़ी कड़ी है। यदि किसी आदमीको अपना सुधार करना हो तो यह शर्त लगा दे कि भोजन नहीं करेंगे। वह काम आप ही होगा, जरूर होगा। जिस दिन नहीं हो, भोजन मत करो।
आपलोग उचित समझें तो यह काम आजसे ही अपने घरमें आरम्भ कर दें। इससे घर बैठे ही भक्ति, ज्ञान, वैराग्य, सदाचारका ज्ञान हो जाता है। इससे जरूर फायदा होता है। आजमाइस करके देख लो, घाटेकी चीज नहीं है। घाटा दीखे तो छोड़ दो। अकेला हो तो अकेला ही स्वाध्याय कर ले। गीता तत्त्वविवेचनी, भागवत, महाभारत, पद्मपुराण, रामायण, सत्संगकी पुस्तकें आदि का अध्ययन करो। एक का अध्ययन समाप्त हो जाये तो दूसरी आरम्भ कर दो। समयका कोई बंधन नहीं, जिसको जब सुविधा हो, करो। यह भी नहीं कि पूरी उम्र तक करो। थोड़ा करके देखो, फायदा हो तो और बढ़ाओ।
परमात्माकी प्राप्ति तो कठिन है ही नहीं, सीधी-सी बात है, किन्तु वह सीधी-सी भी करनेसे ही होगा। भोजन सब जुटा दो तो भी खानेवाला काम तो खानेसे ही होगा। यह तो हो नहीं सकता कि खाये दूसरा, पेट तुम्हारा भर जाय। बगीचा लगाया, आम लगाया, लाकर रख दिया, चाकू रख दिया, बना कर रख दिया, उसे खाना तो तुमको ही होगा। उठाओ, मुँहमें डालो। पुस्तकें बनाकर रख दी, उन्हें आप पढ़ो। आमकी फाड़ की ज्यों पुस्तकें गीताप्रेसमें पड़ी हैं। लिस्ट बनाकर दे दो तो घर पहुँचा दें। पढ़नी तो आपको ही होंगी। पुस्तक सामने रख दी, पढ़नी तो आपको ही पड़ेगी। मेरे अपने पढ़नेसे काम चल जाय (कि भगवान् कह दें कि तू स्वाध्याय कर लिया कर, मुक्ति सबकी हम कर देंगे) तो वह काम भी करनेको हम तैयार हैं। सत्संगमें तो स्वाधीनता नहीं है। यहाँ सत्संग होता है। यहाँ तो स्वतन्त्रता ही है, कोई भी आओ। गोपियोंवाली बात थोड़े ही है कि कोई नहीं आ सकता।
स्वाध्याय तो कम-से-कम आरम्भ कर ही देना चाहिये।
दो बात आज बताई- एक तो अपनेमें समता उतारनी चाहिये। दूसरी बात यह बताई कि अपने घरमें स्वाध्याय करना चाहिये। सब आदमी इकट्ठे होकर सुनें और एक सुनावे।
नारायण नारायण नारायण श्रीमन्नारायण नारायण नारायण…