Seeker of Truth
॥ श्रीहरिः ॥

मान, बड़ाई, प्रतिष्ठाका त्याग ही असली चीज है

प्रवचन सं. १३
दिनांक 6-6-1942गोरखपुर

वास्तवमें जो उच्चकोटिके पुरुष होते हैं, वे इन मान, बड़ाई आदिसे खूब सावधान रहेंगे। वे इस बातको नहीं मानेंगे कि मेरा शरीर पूजने लायक है। बात हो रही है- महात्माओंकी, उन्हें इस बातका ज्ञान है।

भक्तिकी दृष्टिसे देखा जाय तो भी वही बात है और ज्ञानकी दृष्टिसे भी वही बात है।

भक्त है, उसकी कोई पूजा करेगा तो वह रोवेगा। वह सबको नारायण समझता है, फिर नारायणसे पूजा कैसे करवा सकता है ? वह तो समझता है- नमस्कार, पूजा करने योग्य तो केवल भगवान् हैं। जो झूठे भक्त होते हैं, वे ही भगवान्को अलग हटाकर अपनी पूजा करवा लेते हैं, जैसे नीच गुमास्ता मालिक का धन खुद हड़प जाता है।

बड़ी महत्त्वकी बात है, खूब ध्यान देनेकी बात है कि जो बहुत उच्चकोटिके महापुरुष होते हैं, वे अपने चरणोंका जल दूसरोंको नहीं देते, न अपना फोटो ही देते हैं। इसमें क्या गुप्त रहस्य है, वह आपको बताया जाता है।

प्रसादका क्या फल बताया गया है ? - चित्तकी प्रसन्नताका नाम प्रसाद है (गीता २/६५), ईश्वर और महात्माओंकी दयाका नाम प्रसाद है, ईश्वर और महात्माके लगाया हुआ भोग है, उसका नाम प्रसाद है। प्रसादका फल होना चाहिये- सारे दुःखोंका अभाव होकर परमात्माकी प्राप्ति हो जाय। तब तो वह प्रसाद है, नहीं तो प्रमाद है।

यदि कोई महापुरुष हैं, उसके चरणोंका जल लिया, परन्तु हमें उसी समय भगवान्की प्राप्ति नहीं हुई तो हम महात्माओंके, शास्त्रके कलंक लगाते हैं। लोग कहेंगे- 'शास्त्र मिथ्या हैं।' लोग कहेंगे- ये 'महात्मा कहाँ हैं ? इनके चरणोंका जल पी लिया, कुछ भी तो फर्क नहीं पड़ा। कल थे, वैसे ही आज हैं।'

महात्मा होगा, वह इस प्रकार क्यों करावेगा ? शिष्य यदि पात्र हो, तब तो वह महात्मा बन ही जाता। महात्मा यदि सच्चा ईश्वरका भक्त है तो वह इस बातको कैसे बर्दास्त कर सकता है कि उसके चरणोंका जल दूसरा ले। महात्मा अपने चरणोंकी रज, चरणोंका जल इसलिये नहीं लेने देते कि हमारे कलंक लगे तो भले ही लगे, पर शास्त्रोंके कलंक नहीं लगना चाहिये, इसलिये वे अपनी फोटोको पुजाते नहीं। वे समझते हैं कि हमारे हाथसे छुआ हुआ जल है, उसमें क्या खास बात है ? भगवान्के सच्चे भक्त तो भगवान्को ही पुजाते हैं। कहते हैं- 'भगवान्की पूजा करो, उनके चरणोंका जल लो तो कल्याण होगा।' अच्छे महापुरुष होते हैं, वे अपनेको पुजाते नहीं। जो पुजाते हैं, हमारे हृदयकी बात पूछो तो वे महात्मा नहीं हैं। हम पुत्रको उसके माता-पिताकी सेवा करनेके लिये मना नहीं करते, पतिको अपनी स्त्रीसे सेवा करानेकी मनाही नहीं करते, गुरुको शिष्यसे पूजा करानेकी मनाही नहीं करते, परन्तु वे अपनेको महात्मा नहीं समझें- हम यह कहते हैं।

महात्मा पुरुष होते हैं, वे मान, बड़ाई, प्रतिष्ठाको विष्ठाके समान समझकर उस मार्गसे नहीं जाते। हर एक भाईको समझना चाहिये कि मान के लायक तो एक भगवान् ही हैं। अपने शरीरको सबके चरणोंकी धूलि समझना चाहिये। अपनेको तुच्छ समझे और यह समझे कि यह शरीर तो नाश होनेवाला है, इसकी हड्डियाँ एक दिन ठुकराती फिरेंगी। इस प्रकार सबके चरणोंकी धूलि बनकर विचरे। इसपर भी कोई उसका मान कर देता है तो उसे बड़ा संकोच होता है।

एक विरक्त पुरुष थे, शहरकी तरफ जा रहे थे, लोगोंने उनको दण्डवत् प्रणाम किया, उन्होंने भी उसी प्रकार दण्डवत् प्रणाम किया। लोगोंने कहा- 'महाराज ! आप हमारे पर भार क्यों चढ़ाते हैं ?'

महाराजने कहा- 'आप भी मेरे भार चढ़ाते हैं।'

लोगोंने कहा- 'महाराज ! आप त्यागी हैं।'

महाराजने कहा- 'आप मेरेसे बढ़कर त्यागी हैं।'

लोगोंने पूछा- 'यह कैसे ?'

महाराजने कहा- 'सबसे बढ़कर क्या चीज है ?'

कहा- 'परमात्मा हैं।'

महाराजने कहा- 'तो मैं त्यागी कैसे हुआ ?'

लोग- 'आपने कंचन, कामिनी, भोग-पदार्थोंका त्याग कर दिया।'

महाराज- 'ठीक है। क्या मैंने ईश्वरका भी त्याग कर दिया है ?

लोग- 'नहीं, ईश्वरका त्याग कहाँ किया है ? उसे तो पकड़ रखा है।'

महाराज- 'तो बड़ी चीजका तो आपने ही त्याग किया है। आप बड़े त्यागी हैं इसलिये आप नमस्कार करने लायक हैं।'

लोगोंने कहा- 'हम आपको महात्मा समझकर प्रणाम करते हैं।'

महाराजने कहा- 'महात्माका लक्षण सुना है क्या ?'

लोगोंने कहा- 'सुना है-

बहूनां जन्मनामन्ते ज्ञानवान्मां प्रपद्यते ।

वासुदेवः सर्वमिति स महात्मा सुदुर्लभः ॥

(गीता ७/१९)

अर्थात् - जो बहुत जन्मोंके अन्तके जन्ममें तत्त्वज्ञानको प्राप्त हुआ ज्ञानी सब कुछ वासुदेव ही है अर्थात् वासुदेवके सिवाय अन्य कुछ है ही नहीं, इस प्रकार मेरेको भजता है, वह महात्मा अति दुर्लभ है।'

महाराजने कहा- 'ठीक है। मैं तो महात्मा नहीं हूँ, पर तुम कहते हो तो ठीक है। महात्माकी बुद्धि होती है- सबमें परमात्माके दर्शनकी; तो मैं तुम्हें परमात्मा समझकर प्रणाम करता हूँ।'

जो अपनेको श्रेष्ठ मानता है, पूज्य समझता है, वह महात्मा नहीं, महा-तमा है, यानी महान् तमोगुणी है, बहुत नीचे दर्जेका है। यह हम किसके लिये कह रहे हैं कि जो अपनी आत्माका कल्याण चाहे, उसके लिये, और जो कल्याणको प्राप्त हो चुके हैं।

मान, बड़ाई तुम्हारे लिये बड़ी ही घातक हैं। उच्चकोटिके साधक इसे घातक समझते हैं परन्तु जो इसके प्राप्त होनेपर खुश होते हैं, वे इसमें फँस जाते हैं तो डूब जाते हैं। मान, बड़ाई स्वीकार करना है, यह गलेमें पत्थर बाँधकर डूबना है। मान, बड़ाईको मृत्युसे भी बढ़कर समझना चाहिये। मान, बड़ाईसे डरकर भागना चाहिये। मृत्युसे डरनेकी आवश्यकता नहीं है। कोई अपनेको ज्ञानी मानता है और इस मान्यतासे अपनेको पुजाता है, वह महा-अज्ञानी है, ज्ञानी नहीं है। देहकी पूजासे प्रसन्न होता है तो सम-बुद्धि कहाँ हुई ? ज्ञानीका लक्षण देखें-

मानापमानयोस्तुल्यस्तुल्यो मित्रारिपक्षयोः ।

सर्वारम्भपरित्यागी गुणातीतः स उच्यते ।।

(गीता १४/२५)

अर्थात् - जो मान और अपमानमें सम है एवं मित्र और वैरीके पक्षमें भी सम है, वह सम्पूर्ण आरम्भोंमें कर्तापनके अभिमानसे रहित हुआ पुरुष गुणातीत कहा जाता है।

यह दीवाल है, इसका चाहे कोई मान करो, चाहे अपमान। इसी प्रकार देहमें चेतनके रहते हुए जो मान-अपमानमें सम रहता है, वही जीवन्मुक्त है। मुर्देके लिये मान-अपमान समान है, इसी प्रकार जीते हुए ही जो मर चुका है, वही जीवन्मुक्त है।

सर्वभूतस्थमात्मानं सर्वभूतानि चात्मनि ।

ईक्षते योगयुक्तात्मा सर्वत्र समदर्शनः ।।

(गीता ६/२९)

अर्थात् - हे अर्जुन ! सर्वव्यापी अनन्त चेतनमें एकीभावसे स्थितिरूप योगसे युक्त हुए आत्मावाला तथा सबमें समभावसे देखनेवाला योगी आत्माको सम्पूर्ण भूतोंमें (अर्थात् जीवोंमें) बर्फमें जलके सदृश व्यापक देखता है और सम्पूर्ण भूतोंको आत्मामें देखता है, अर्थात् जैसे स्वप्नसे जगा हुआ पुरुष स्वप्नके संसारको अपने अन्तर्गत संकल्पके आधार देखता है, वैसे ही वह पुरुष सम्पूर्ण भूतोंको अपने सर्वव्यापी अनन्त चेतन आत्माके अन्तर्गत संकल्पके आधार देखता है।

सर्वत्र समान भावसे देखनेवाला आत्माको सब भूतोंमें समान देखता है और सुख-दुःखमें भी समान देखता है। उसके अपने और दूसरेके शरीरमें भेद नहीं है। जिसकी इस प्रकारकी बुद्धि हो, वह कैसे किसीसे पूजा करवा सकता है ? वह समझता है कि शिव, राम और कृष्ण मेरेसे अभिन्न हैं। वह अपनेको उनसे अलग नहीं समझता है, फिर वह शिव, राम और कृष्णकी ही पूजा करावेगा, अपनी पूजा वह किस आधारपर करावेगा ?

अच्छे पुरुष सब लोगोंकी आँखे खोलनेके लिये ही होते हैं। अच्छे पुरुष ही मान, बड़ाई, प्रतिष्ठा स्वीकार करेंगे तो उनमें तथा औरोंमें क्या अन्तर रहेगा ? मान, बड़ाई, प्रतिष्ठा त्याज्य हैं-यह पाठ फिर और कौन पढ़ावेगा ? जो स्वयं मान, बड़ाईका त्याग करेंगे, वे ही पुरुष तो आदर्श होंगे। अच्छे पुरुषोंको यह बात करके दिखला देनी चाहिये।

जो उच्चकोटिके पुरुष समझे जाते हैं और मान, बड़ाईको स्वीकार कर रहे हैं, उनकी यमराजके यहाँ खबर ली जायगी।

महापुरुषोंका यह कर्तव्य है, उन्हें यह दिखला देना चाहिये कि मान, बड़ाई, प्रतिष्ठाका त्याग ही असली चीज है। जिन्हें मान, बड़ाई प्राप्त नहीं है, वे क्या त्याग करेंगे ? जिसके मान, बड़ाईकी बौछार होती है, परन्तु वह उसके नजदीक नहीं जाता, वह ही हमें पाठ पढ़ा रहा है कि मान, बड़ाई त्यागने योग्य हैं।

किसीकी सेवा करनेवाली स्त्री है, पर उसे प्रेमसे समझाकर उससे सेवा नहीं लेता, वही आदर्श पुरुष है।

घरमें स्त्री रहते हुए भोग नहीं करना- यह तो खाण्डेको धार है। एकान्तमें रहकर ब्रह्मचर्यका पालन करना भी उत्तम है, पर वह तो बहुत ही प्रशंसनीय है, जो स्त्रीके साथ रहते हुए भी ब्रह्मचर्यका पालन करे।

जहाँ गुलाबजलकी बोतलें छिड़की जा रही हैं, वह महात्मा पुरुष वहाँसे भागता है, वह देखता है कि पेशाबकी बौछारें आ रही हैं, वह वहाँ जाना ही नहीं चाहता। विरक्त होकर वह अपने वैराग्यको प्रकट करना भी नहीं चाहता और वहाँसे हटना भी चाहता है। हजारों आदमी किसीको प्रणाम करते हैं और वह अपनेको बड़ा मानता है तो समझ लो कि वह ईश्वरके यहाँ बड़ा नहीं है, किन्तु जो मान, बड़ाईको न भीतरसे चाहता है और न बाहरसे- वही बड़ा है।

ये गुलाबजामुन हैं, हमने सोचा कि लोगोंको दे दें। फिर मालूम पड़ा कि ये लोग तो हमें महात्मा समझकर प्रसाद लेंगे तो हमारा कर्तव्य है कि हम वह प्रसाद रूपमें नहीं दें। यदि हम देते हैं तो सबका कल्याण होना चाहिये। नहीं होगा तो हम शास्त्रके कलंक लगा रहे हैं।

आपसमें हम आपको जिमाते हैं (भोजन करवाते हैं), आप हमें जिमाते हैं तो उस जिमानेमें कोई दोष नहीं है, क्योंकि उसमें हमारे ऊपर कोई आक्षेप नहीं कर सकता है। महात्मा बनकर प्रसाद देते हैं तो शास्त्रोंके और महात्माओंके कलंक लगाते हैं।

और एक बड़ी गुप्त बात बताता हूँ। जैसे बिजली के करन्टको छूनेसे सारे शरीरमें सनसनी हो जाती है, स्त्रीको छूनेसे कामी आदमीके काम व्याप्त हो जाता है, इसी प्रकार ईश्वरको छूनेसे प्रेमकी लहरें उठनी चाहिए। महात्माको छूनेसे भी वही बात होनी चाहिये। न हो तो कोई कारण होना चाहिये। वह महात्मा ही यदि वास्तवमें महात्मा नहीं है तो हमारे क्या करन्ट दौड़ेगा ? या हम अश्रद्धा रूपी काठपर खड़े हैं तो करन्ट नहीं दौड़ेगा।

जैसा जो पदार्थ है, उसका असर पड़ेगा। आगको छुएँगे तो उसके गर्म परमाणु हमारे शरीरमें प्रवेश करेंगे, इसी प्रकार ईश्वरको छूनेसे ईश्वरके परमाणु, महात्माको छूनेसे महात्माके परमाणु प्रवेश करेंगे।

यहाँ यह लालटेन है। यहाँसे कोई ले गया तो प्रकाश चला गया, इसी प्रकारसे महात्मा पुरुष हैं, वे चले गये तो अन्धकारकी ज्यों प्रतीत होगा।

महात्मा है, उसके दर्शनसे परमात्माकी स्मृति होनी चाहिये। महात्माओंके पास दैवी-सम्पदा रूपी धन रहता है- क्षमा, शान्ति, दया आदि उत्तम गुण, उत्तम आचरणोंका उनमें समूह रहता है। जैसी चीज होती है, वैसा उसका असर पड़ता है। हमारे हृदयमें अच्छी स्फुरणा होती है तो समझना चाहिये कि किसी महात्माका अक्स (प्रतिबिम्ब) पड़ रहा है और दूषित भाव होते हैं तो समझना चाहिये कि हमारे आसपास कोई खराब पुरुष है। जिसके पास जो चीज होती है, उसका असर पड़ता है।

और एक सूक्ष्म बात है- हमलोगोंके हृदयमें सूक्ष्म दोष ऐसे प्रवेश करके रहते हैं जैसे प्लेगके परमाणु। मैंने पूछा- 'कैसी बात सुनाई ?' और आपने कहा कि- 'बहुत अच्छी।' इसे सुनकर मुझे प्रसन्नता होती है तो समझना चाहिये कि मुझमें मान, बड़ाई, प्रतिष्ठाकी चाह है।

मैं कहूँ कि- 'इस प्रकारकी बात आपको कहीं नहीं मिलेगी। जो मान, बड़ाईको नहीं चाहता है, वहींपर ऐसी बात आपको मिलेगी।' इसका क्या मतलब है ? - कि मैं मान, बड़ाई, प्रतिष्ठा चाहता हूँ।

व्याख्यान देकर भी निर्लेप रहे, उसके अभिमान नहीं आवे, वही श्रेष्ठ पुरुष है।

नारायण नारायण नारायण श्रीमन्नारायण नारायण नारायण…