मान, बड़ाई, प्रतिष्ठा पतन करानेवाली हैं
वास्तवमें अपनी आत्मामें मान-बड़ाईपर घृणा हो तो आत्माका कल्याण हो। हृदयमें जब तक मान-बड़ाईकी थोड़ी भी इच्छा है तो किसी-न-किसी प्रकारसे स्वीकार हो ही जाती है। पर-स्त्रीका दर्शन, भाषण सब पापमय है, पर जब अपने मन की आसक्ति मर-स्त्रीमें है तो बुरी समझते हुए भी यदि वह आकर प्राप्त होगी तो दृष्टि बलात् चली ही जायगी। घातक है, मृत्युके माफिक है, मौत है- उस जगह भय हो जाय तो काम चले। या दूसरी तरफ परमात्मामें अनन्य प्रेम है, वह होनेसे काम चले, वह अटका ले।
साधारण आदमी, जो लोभमें फँसे हुए हैं, उन्हें बड़ा लोभ दिखावे तो छोटा लोभ छूट जाय। परमात्माके ध्यानमें जो आनन्द है, वह त्रिलोकीके सुखमें नहीं है- यह विश्वास हो जाय तो यह छोटा लोभ छूट जाय। थाइसिसका रोग कटना जैसे कठिन होता है, इसी प्रकार मान-बड़ाईका रोग कठिन है। उस रोगमें जैसे १००में से ९९ मरते हैं, इसी प्रकार यह मान-बड़ाईकी बीमारी है। चेष्टा करे तो अधिकांश तो पार पाते नहीं। कोई की ही बीमारी मिट जाय तो मिटती है। यह बीमारी जबर्दस्तीसे चिपनेवाली है। एक तो स्वतः ही यह बुरी है, फिर दूसरा आदमी सहायक हो जाय तो डूबे ही पड़े हैं।
अपने विचारके द्वारा मान-बड़ाईको बचावें, क्योंकि दूसरे आदमी मान-बड़ाई करने लग जायँ तो कैसे बचें ? इसके लिये हर एक भाईको सावधान रहना चाहिये। लोग बहुत भोले हैं। दुजारीजी बहुत भोले हैं। मेरे पीछे पड़ा- मेरी जीवनी लिखनेके लिये। मैंने बहुत विरोध किया। ऐसे समझो कि- मेरे पीछे कोई इस तरहसे पड़ जाय तो यह तो कह नहीं सकते कि मेरे कच्चाई नहीं है। लोग गिरा देवें।
जिन्हें परमात्माकी प्राप्ति हो गई है, वे तो इस (मान-बड़ाई)-को ठुकराते हैं। उनकी तो दृष्टि ही दूसरी हो जाती है। विष्ठाके पास कोई कैसे जाय ? परन्तु जिनके हृदयमें अन्धकार है, उनका पतन हो जाता है।
इस तरहसे किसी भी प्रकारकी मान-बड़ाई है, प्रतिष्ठा है, सत्कार है- उस प्रकारका आयोजन कोई करे तो वह चाहे मेरा भाई है, मित्र है तो वह मेरा अपमान करता है। यदि मैं परमात्माकी प्राप्तिवाला होऊँ, तब तो वे मेरा सिद्धान्त समझे नहीं हैं और यदि मैं साधक हूँ तो वे मित्रके रूपमें मेरे शत्रु हैं। मान-बड़ाई बड़े खतरेकी चीज है। यह जो विषय है- परमात्माकी प्राप्तिमें भी रुकावट डालनेवाला है। साधकके लिये पतनकी चीज है, महापुरुषोंके लिये कलंक है।
संसारमें जो अपना अध्यात्म-विषयक प्रचार करे, उसमें यह रुकावट डालनेवाली चीज है। इसका हृदयसे खूब विरोध करना चाहिये। यह परमात्माकी प्राप्तिमें विलम्ब करनेवाली चीज है। जैसे थोड़ा-सा भी संखिया (एक प्रकारका जहर) मार डालनेवाला है, इसी प्रकार यह मार डालनेवाली है। संखियाकी लीक भी खराब, गन्ध भी नहीं रहे। जो आगे जाकर अटकानेवाली चीज है वह यह मान, बड़ाई, प्रतिष्ठा है।
जो हमारी बात समझकर हमारी मान-बड़ाईमें शामिल नहीं होते, वे हमारे मित्र हैं। मैं यदि चाहूँ भी तो आप मेरेको बचानेकी ही चेष्टा करो। रोगी कुपथ्य करना चाहता है तो घरवाले बचाते हैं। इससे आप भी बचो, मेरेको भी बचाओ। आप नहीं बच सको तो हमको तो बचा लो। आप मेरेको बचानेकी कोशिश करोगे तो मैं आपलोगोंको बचानेकी कोशिश करूँगा- परस्परं भावयन्तः। आप मेरी उन्नति चाहो, मैं आपलोगोंकी उन्नति चाहूँ तो दोनोंका कल्याण है । आप मुझे गिरानेकी कोशिश नहीं करो तो आपकी बड़ी भारी दया समझी जावे। मान, बड़ाई- ये प्रेममें कलंक हैं। ऐसी सभ्यताको नमस्कार ही करे। शरीरकी पूजा है, यह तो रूपकी पूजा है। कीर्ति चाहना- यह नामकी पूजा है।
नाम और रूपकी पूजा है, वहाँ अन्धकार ही अन्धकार है। मैं यदि मेरी उच्छिष्ट आपलोगोंको नहीं खिलाऊँ, यदि प्रसाद ही देऊँ तो भी मेरी बड़ी भूल है। आपको यदि प्रसादकी शौक है तो आप भगवान्के भोग लगाओ और पाओ। मेरे हाथसे ही क्यों ? मेरे हाथसे देनेसे यदि मुझे आपलोगोंका कल्याण होता दीखता तो मैं आपलोगोंके बिना कहे ही देनेको तैयार हूँ। मैं विज्ञापन करता कि मेरे हाथसे प्रसाद लेओ और मुक्त होओ, किन्तु हमको तो रुपयामें पाई भर भी विश्वास नहीं है कि मुक्त हो जायँगे। फिर यदि लोगोंको प्रसाद बाँदूँ तो ईश्वरके और मेरे- दोनोंके कलंक लगा रहा हूँ। क्योंकि जो लोग भगवान्के भोग लगाकर प्रसाद बाँटते हैं, वे तो समझते हैं कि यह हमारी कल्पना है और एक व्यक्ति किसी पुरुषमें अच्छी कल्पना करके उसके हाथका प्रसाद ले और कल्याण न हो तो वह यही समझेगा कि गीतामें जो यह आया है कि- 'प्रसादसे दुःखोंका नाश हो जाता है'- यह केवल बात-ही-बात है। बस, केवल इसका नाम प्रसाद है तो वह प्रसाद तो मन्दिरोंमेंसे ले आओ। असली प्रसादका तो फल जो होना चाहिये, वही हो, तभी उसे प्रसाद कहना चाहिये, नहीं तो मिथ्या है।
मैं तो हर एक भाईसे प्रार्थना करता हूँ कि आपलोग मेरेको बचा ही लेना, कोई धक्का देकर गिरा मत देना। रोगी आदमी कहींपर कुपथ्य कर बैठता है तो उसकी सेवा करनेवाले, सँभाल करनेवाले उसकी रक्षा करते हैं। मैं कुपथ्य करना नहीं चाहता, किन्तु कोई निमित्तसे कर बैदूँ तो आप मुझे बचाना ही।
आप यदि कहो कि- 'तू तो रोगी नहीं है, न कुपथ्य ही करता है ?' तो फिर आपको मेरी बात माननी चाहिये और यदि मैं भीतरसे चाहता हूँ कि खूब मान, बड़ाई, प्रतिष्ठा हो तो आपलोग जो अपनी मान्यतामें यह समझते हैं कि मैं एक अच्छा आदमी हूँ- यह भावना हटानी चाहिये। यह बात बड़े मार्केकी है। यह बात किसी जगह नहीं मिलेगी। यह मेरा हृदयसे बॉयकाट है। यदि किसी जगह मैं स्वीकार करता हूँ तो वह दोष मेरी आदतका है। मेरा कहना विवेक-विचारपूर्वक, सूक्ष्मतासे देखकर है, जैसे कोई आदमी ऐकान्तिक मित्रोंको एकान्तकी बात कहे, उसी तरह आपलोगोंको मेरा यह कहना है। जो आदमी मान, बड़ाईको गुंजाइश देते हैं, वे अँधेरेमें हैं। यह बात ब्रह्माजी भी आकर मुझे कहें तो मुझे नहीं जँच सकती।
अनुभव और शास्त्र विचार- सबके द्वारा मैं इस अनुभव पर पहुँचा हूँ कि अच्छे-अच्छे आदमी इस घाटीपर आकर अटके हैं। दुनिया विष खाकर मरती है तो मरने दो, अपने तो मत मरो। जो श्रेष्ठ पुरुष होते हैं, वे इस सिद्धान्तसे विचलित होते ही नहीं।
सत्संगकी एक और बात सुनाई जाती है। शिक्षाकी बात कही जाय, उसका विशेष असर नहीं हो तो शास्त्रकी मर्यादाके अनुसार तो नहीं कहना चाहिये, चुप ही रहना चाहिये; किन्तु यह बात उन पुरुषोंपर लागू पड़ती है, जो महात्मा हैं, क्योंकि उनकी बात काममें आनी ही चाहिये, नहीं तो उनकी आज्ञाकी अवहेलना होती है। सच्चे श्रद्धालु हैं, उनके लिये अपने श्रद्धेयकी आज्ञाका उल्लंघन मृत्युके समान है, किन्तु हम जो कि साधारण लोग हैं, वे भगवान्की चर्चा इस उद्देश्यसे करें कि संसारकी चर्चा छोड़कर भगवान्के गुण, प्रभावकी आलोचना करें तो वह (ऊपर कही हुई) हानि नहीं होती है। दूसरे, अपने आदमी यह भी समझते हैं कि यह बातें जो कही जाती हैं, वह काममें लानेसे ही लाभ होगा। काममें नहीं लावें तो कहनेवालेका क्या दोष है? सुनने मात्रसे ही कल्याण हो जाय, यह बात नहीं है। काममें लावें तो कल्याण हो सकता है। नहीं काममें लाते हैं तो वक्ताका क्या दोष है ?
मैं यदि कुछ चीज प्रसादका रूप करके बादूँ और उससे मुक्ति नहीं होवे तो आपके यही भाव होगा कि- जैसे मन्दिरका प्रसाद, वैसे ही यह प्रसाद। इस तरहसे इसका मनपर बुरा असर पड़ता है। मैं अच्छा पुरुष नहीं भी होऊँ तो भी मुझे अच्छे पुरुषकी जगह बैठकर यह गुंजाइश क्यों देनी चाहिये ? मैं तो विनय करता हूँ- मेरी बातोंको आप काममें लावें तो आपके फायदेकी चीज है, मैं काममें लाऊँ तो मेरे फायदा है। ऐसी बात हो तो वक्तापर दोष नहीं आता।
मान, बड़ाई, प्रतिष्ठाके स्थान हैं, उनसे बचना चाहिये। वक्ताका स्थान मान, बड़ाईका है, इससे बचना चाहिये। भीतरसे भी नहीं समझे कि मैं वक्ता हूँ। भगवान्का वचन बता दे कि- आप पालन करेंगे तो आपका कल्याण है, मैं पालन करूँगा तो मेरा कल्याण है। और नीचे उतरे तो राय (सलाह)-के रूपमें कहे, शिक्षा और उपदेशके रूपमें नहीं कहे, आचार्यका रूप नहीं दे। इससे सुननेवालेका भी बचाव हो गया और वक्ताका भी बचाव हो गया। सुननेवालेका यह बचाव है कि वे काममें नहीं लावें तो उनका पतन नहीं है।
मान और बड़ाईको स्वीकार करना शरीरको महत्त्व देना है। यह बड़े खतरेकी चीज है, इसलिये अच्छे पुरुषोंको इससे बचना चाहिये, जो उनके अनुयायी हैं, उन्हें बचाना चाहिये।
मैं अभी यह नहीं कह सकता कि मुझे बचानेकी जरूरत नहीं है, मुझे परमात्माकी प्राप्ति हो गई है। मैं तो यही कहता हूँ कि आप भी बचो, मेरेको भी बचाओ।
इस विषयमें पूर्वमें जो महात्मा हो गये हैं, उनके अनुयाइयोंने जो किया है, उसकी तरफ अपनेको नहीं देखना है। वे वैसा क्यों कर गये, वे जानें।
जिन्हें कल्याण करनेकी इच्छा हो, उन्हें मान-बड़ाईसे बचना चाहिये। जो उनके प्रेमी हों, उन्हें बचाना चाहिये। मेरे कहनेमें कोई गलती हो तो आपको हाँ में हाँ नहीं करनी चाहिये, मुझे समझाना चाहिये, मैं सुधार करूँ। जो आदमी यह समझता है कि मुझमें श्रद्धा करनेसे मुझे तो कोई नुकसान नहीं है और दूसरेको फायदा है- यह बड़े अंधकारकी बात है। यदि मैं यह समझता हूँ तो मैं तो महा-तमा ठहरा। इस तरहकी मैं मेरे मनमें कल्पना करूँ तो समझना चाहिये कि मेरेमें बड़ा अन्धकार है। यह बात बहुत विचारके द्वारा आजमाइश की हुई है, बड़े खतरेकी चीज है।
आप पूछें कि- क्या आपने यह कल्पना करके देखी है कि लोग मुझमें श्रद्धा करें ?
- हाँ, मैंने दूसरेपर भी करके देखी है, अपनेपर भी देखी है। बड़ा भयंकर परिणाम हुआ।
आप कहें- जब यह ऐसी तात्त्विक बात है तो इसका खूब प्रचार करना चाहिये ?
- ठीक है, किन्तु करे कौन ? जो वास्तवमें परमात्माको प्राप्त हो चुके हैं, वे भले ही करें, दूसरा कौन कर सकता है ? उच्चकोटिका साधक भी नहीं कर सकता। करे तो उससे उलटा प्रचार भले ही हो। मैं जो यह कह रहा हूँ, इससे उलटा प्रचार भले ही हो।
फिर आप कहें कि- आपने कहा कि अपने ऊपर भी प्रयोग करके देखा क्या ?
- प्रयोग किया था। जो यह कहा कि ऐसा करके देख लो, मेरी गारन्टी है, इस तरहके प्रयोगसे नुकसान हुआ।
भगवान् बड़ी रक्षा करते हैं। इस तरहका करार किया तो पार नहीं पड़ा। किसी जगह भगवान्ने चेता दिया।
जो यह बात कही जाती है कि- शास्त्रकी बात है, उसे काममें लाओ तो कल्याण होनेमें कोई सन्देह नहीं है- वह शास्त्रकी बात है। मैं काममें लाऊँ तो मेरा कल्याण है, आप काममें लाओ तो आपका कल्याण है। इस प्रकार कहनेमें मैं भी शामिल रहता हूँ और यदि मैं यह कहूँ कि यह मेरी बात है तो उसका मतलब है कि मेरा कल्याण हो चुका है।
भगवान्का वचन यदि झूठ हो जाय तो मेरा झूठ हो जाय- इस प्रकारसे जो गुंजाइश दी जाती है, वह भगवान्के वचनोंके आधारपर दी जाती है। वह काममें लानेकी आपको और हमें क्रोशिश करनी चाहिये।
फिर आप कहते हैं कि- श्रद्धाके लायक तो एक परमात्मा ही हैं, किन्तु प्रेम आपसमें खूब करना चाहिये। आप कहें कि- प्रेमके लिये तो गुंजाइश देते ही हैं ?
ठीक है, इसमें आपत्ति नहीं है। परमात्माको लेकर आप मेरेसे, मैं आपसे प्रेम करूँ तो दोनोंके फायदा है।
परमात्माके लिये प्रेम किया जाय तो कोई भी करे, फायदेकी चीज है। गोपियाँ आपसमें प्रेम करती थी। हम भी इसी तरह आपसमें प्रेम रखें तो दोनोंके फायदेकी चीज है। आप यदि आपसमें लड़ते हैं तो दोनोंके नुकसान है, आपसमें प्रेम करते हैं तो लाभ है- वह चाहे साधक हो, चाहे सिद्ध। जो साधक हैं और • एक-दूसरेसे प्रेम रखते हैं तो लाभ उठाते हैं।
श्रद्धा तो जो बड़ा हो या जो पूजनीय हो, उसमें ही हुआ करती है। एक-दूसरेमें नहीं होती। प्रेम है, वह बराबरका कायदा है। वहाँ कोई छोटा-बड़ा नहीं है। परस्परमें एक-दूसरेसे प्रेम करना- इसकी बड़ी आवश्यकता है। खूब उत्तरोत्तर प्रेम करना चाहिये। असली प्रेम ज्यादा लाभकी चीज है।
अब जमाना दूसरा है। इस समय दिखाऊ प्रेम तो बढ़ रहा है, असली प्रेम नहीं। दिखाऊ प्रेम भी नुकसानसे तो बचानेवाला है। वह उतना ही फायदा करता है कि परस्परमें लड़ाई करके रसातलको पहुँच जाय, उससे तो वह रोकता है, किन्तु परमात्मा तक तो असली प्रेम ही पहुँचा सकता है। इसलिये अपनेको अन्तरंग प्रेम करना चाहिये। उससे स्वतः सुधार होगा।
आपसमें खूब प्रेम बढ़ाना चाहिये। वर्तमानमें जो प्रेम है, पहले इससे अधिक प्रेम था। कम कैसे हुआ ? एक-दूसरेका छिद्र (दोष) देखनेसे। किसीका अवगुण नहीं देखना चाहिये, वह तो नुकसानकी चीज है। उससे वैर होगा। उसका परमाणु अपनेमें आवेगा, इसलिये किसीके अवगुणोंकी तरफ खयाल करना ही नहीं चाहिये। एकदम सिद्धान्तकी बात है। दूसरेके दुर्गुणोंका चिन्तन करेंगे तो वे दुर्गुण अपनेमें आवेंगे। दूसरेके गुणोंका चिन्तन करेंगे तो गुण आवेंगे।
एक दूसरेके साथ द्वेष होगा तो कटकर मरेंगे। कौरव, पाण्डव कटकर मर गये, कारण कि उनका एक-दूसरेके साथ वैर था। यदि एक-दूसरेके साथ प्रेम करें तो दोनोंके लाभ होता है। एक-दूसरेका हित करना चाहें तो थोड़ेसे ही काम हो जाता है। लड़ाई करना चाहें तो फौज लेकर जाना पड़े। प्रेम करनेमें सरलता है, लड़ाई करनेमें कठिनता है। लड़ाई करनेमें हानि-ही-हानि है, फिर भी लड़ते हैं तो मूर्खता है। परस्पर प्रेम बहुत उच्चकोटिकी चीज है। वह प्रेम यदि परमात्माकी प्राप्तिके लिये हो तो बात ही क्या है ! एक-दूसरेको देखकर कम्पीटीशन (प्रतिस्पर्धा) करें। जितनी बात कहते हैं, आजमाइश की हुई हैं। ६० वर्षकी उम्र हो गई।
लोभके त्यागके मुकाबले कामका त्याग कठिन है। कामके त्यागसे भी मानका त्याग कठिन है। मानसे भी बड़ाईका त्याग कठिन है। बड़ाईका भी त्याग ईर्ष्याके लिये कर दिया जाता है। अपनी भी मान-प्रतिष्ठा है, दूसरेकी भी मान-प्रतिष्ठा है तो जलता है कि इसकी क्यों है ? उसको मिटानेकी चेष्टा करता है। दोष देखनेकी आदत है, इस कारण आपसमें प्रेम नहीं है। इन छिद्रोंको सिमेण्टसे बंद कर दो। सिमेण्ट है- उसका गुण-गान करे और सेवा करे। ये दो चीजें परस्पर प्रेम बढ़ानेवाली हैं।
नारायण नारायण नारायण श्रीमन्नारायण नारायण नारायण…