काम, क्रोध, लोभ आदिके नाशके लिये उपाय- भजन, सत्संग
प्रश्न- काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मत्सर- ये बहुत दुःख देते हैं ?
उत्तर- ये छः दोष हैं। इन सबके विनाशके लिये दो चीज प्रधान हैं- भजन और सत्संग। भगवान्से पुकार लगावे। ईश्वरकी भक्ति कह दो, चाहे ईश्वरका भजन - एक ही बात है। भगवान्से प्रार्थना करे- 'हे नाथ ! हे नाथ !!'
हमारे तो जब-जब आपत्ति आती, तब-तब पुकार लगाते तो ये सब भाग जाते। प्रत्यक्ष देखी हुई बात है। जैसे पुलिसका नाम सुननेसे डाकू लोग भागते हैं, इसी प्रकार भगवान्का नाम लेते ही ये दोष भागते हैं। इसलिये सबसे अच्छा उपाय है- भगवान्की पुकार लगाना। जिस प्रकार द्रौपदी, गजेन्द्रने पुकार लगाई थी, उस प्रकारसे आतुर होकर पुकार लगानेसे भगवान् स्वयं आ जाते हैं, सारे संकटोंका विनाश हो जाता है - ऐसा जबरदस्त यह उपाय है। इस अस्त्रको पासमें रखो। जब काम पड़े, पुकार लगाओ- 'हे नाथ ! हे नाथ !!' यह हमारे गायत्री-मंत्रकी ज्यों है। सगुण-साकारकी उपासनाका हमारे यह मंत्र है। शास्त्रोंमें इस प्रकारका मंत्र नहीं मिलेगा। नारायण अस्त्रकी ज्यों यह अस्त्र है।
नारायण अस्त्र तो दुबारा नहीं चलाया जा सकता, पर अपना यह नारायण अस्त्र बार-बार चलाओ। नारायणका नाम ही नारायण अस्त्र है। भगवान्से आर्त होकर पुकारो। इतना काम तो तुरन्त ही हो जाता है कि पुकार लगानेसे काम, क्रोध आदि भाग जाते हैं। इस अस्त्रसे ये षट्-रिपु ही क्या, हजारों रिपु मारे जा सकते हैं।
प्रश्न- क्या विश्वास होनेसे काम होगा ?
उत्तर- विश्वास हो, चाहे न हो, यह तो उनके नामकी महिमा है। जितना हमारे विश्वास है, उतने ही से इतना काम तो हो सकता है- नामकी ऐसी महिमा है। जिसके बिल्कुल विश्वास नहीं होगा, वह तो नाम लेगा ही नहीं। विश्वास नहीं हो, तब भी नाम लेते रहो। एक आदमी के पित्तकी बीमारी है, वैद्य बताता है- मिश्री चूसते रहो, पित्त आप ही शान्त हो जायगा। इसी प्रकार यह बिमारियाँ हैं। नाम जपते रहो, बीमारी जरूर दूर होगी। थोड़ी श्रद्धा हो, तब भी काम हो जायगा। ज्यादा श्रद्धा हो, तब तो हुआ ही पड़ा है। नाम की महिमा बताई।
भायँ कुभायँ अनख आलसहूँ ।
नाम जपत मंगल दिसि दसहूँ ॥
(रा.च.मा. १/२८/१)
अर्थ - अच्छे भाव (प्रेम)-से, बुरे भाव (वैर)-से, क्रोधसे या आलस्यसे, किसी तरहसे भी नाम जपनेसे दसों दिशाओंमें कल्याण होता है।
प्रश्न- भजनके प्रभावसे पहलेके अशुभ कर्म हैं, वे कटते हैं या नहीं ? या बिना भोगे नहीं कटते ?
उत्तर- हमलोगोंने जितने पाप किये हैं, उनके भण्डार-के-भण्डार भरे हुए हैं, जैसे किसानके अन्नका कोठा भरा रहता है, इसी प्रकार कोठे-के-कोठे भरे हैं। किसानने थोड़ा बीज खेतमें बो दिया, तब उसका दो विभाग हो गया, इसी प्रकार हमारे कर्मोंके दो विभाग हैं- एक संचित और एक प्रारब्ध। प्रारब्ध किसका नाम है- जो फल देनेके लिये सन्मुख हो गया है। वह अधिकांशमें तो भोग होनेसे ही नष्ट होता है, परन्तु शास्त्रोंमें प्रायश्चित्त जो बताये गये हैं, उससे भी पापोंका नाश हो जाता है। भगवान्से हम प्रार्थना करें- 'प्रभो ! हम तकलीफ पा रहे हैं। इसे निवारण करो।' भगवान् समझते हैं कि इसे निवारण करनेमें इसका हित है तो निवारण कर देते हैं। यदि निवारण करनेमें वे हित नहीं देखते तो नहीं भी करते। पापोंका फल भुगताना ठीक समझते हैं तो भुगताते हैं। वे जो कुछ करते हैं, उसमें हमारा परम हित रहता है। बच्चेके फोड़ा है, माँ-बाप देखते हैं कि चीरा दिलानेसे ठीक होगा तो वे लडके के रोनेकी परवाह न करके चिरवा देते हैं, इसी प्रकार भगवान् भी हमारे रोनेकी परवाह न करके पापोंका फल भुगता देते हैं।
प्रश्न - दशरथजीको कितनी मुसीबतें उठानी पड़ी ! अर्जुनको भी कितना दुःख हुआ ! इससे हमारा विश्वास है कि कर्मोंका फल नष्ट नहीं होता, भोगना ही पड़ता है ?
उत्तर- दोनों ही बात ठीक हैं। नष्ट नहीं भी होता है, हो भी जाता है। राजा दशरथके लिये तो वह श्रवणके पिताका शाप वरदान हो गया। शाप सुनकर उन्होंने सोचा कि मेरे तो पुत्र है ही नहीं, इसी शापसे पुत्र तो होगा ! पुत्र होना भी लाभ और भगवान्के वियोगमें मरना भी लाभ- दोनों लाभ हुये। भगवान् उसीमें उनका हित समझते थे, नहीं तो उलट-पुलट कर देते।
अर्जुनके लिये भी यही बात थी। भगवान् संधि करा देते. पर दुष्टोंका नाश कैसे होता ? इससे युद्ध कराना ही उचित समझा। 'तुम केवल निमित्तमात्र बन जाओ। तू निमित्त नहीं भी बनेगा तो भी ये तो मरेंगे ही। भीष्म, द्रोण आदि सब मरनेवाले हैं'- यह उन्होंने विश्व-रूपमें दिखा दिया। भगवान्ने इसीमें सबका हित देखा, इसलिये अपने प्यारे प्रेमी अर्जुनको शरणागत वत्सल भगवान्ने संकटमें डाला और उसका बाल भी बाँका नहीं होने दिया। आखिर फल उत्तम हुआ।
भावीमें होनेवाले दुःखोंका तो नाश भजन करनेसे हो जाता है, परन्तु जो प्रारब्ध कर्म हैं, उनका नाश हो भी जाता है, नहीं भी होता- दोनों ही बातें देखनेमें आती हैं। एक भाईके पुत्र नहीं है, उसके प्रारब्धमें नहीं है। पुत्रेष्टि यज्ञ करता है तो हो भी जाता है, नहीं भी होता। प्रायश्चित्त करना भी तो भोग ही है।
भगवान्की भक्ति करनेसे दुःखकी निवृत्ति होती है, नहीं तो आर्त भक्त हो ही कैसे ? श्रवणकी कथा वाल्मीकि रामायणमें बड़ी सुन्दर है। जो मनुष्य उसे पढ़ता है, उसके अश्रुपात होने लग जाते हैं। आज भी कोई लड़का माता-पिताकी सेवा करता है तो उसे श्रवण कहते हैं। अपने भी श्रवण बनें, कंस नहीं बनें।
माताके साथ किस प्रकारका व्यवहार करें ? जिस प्रकार भगवान् श्रीरामने कैकेयीके साथ किया। अच्छे पुरुषोंकी कथा इसीलिये है कि हम उनका अनुकरण करें। भगवान् राम साक्षात् परमेश्वर थे। वे हमें सिखा गये कि तुम इस प्रकारका व्यवहार करो। भगवान् जो कुछ लीला करते हैं, उसमें हमारा हित भरा रहता है। जिसमें जितना त्याग है, वह उतना ही परमात्माके नजदीक है। हमलोगोंको त्याग सीखना चाहिये। त्याग ही सबसे बढ़कर चीज है। त्यागमें आप स्वतन्त्र हैं, पर फलमें आप परतन्त्र हैं। भगवान् कहते हैं- 'कर्ममें तुम्हारा अधिकार है, फलमें नहीं।' त्याग ही प्रधान है।
नारायण नारायण नारायण श्रीमन्नारायण नारायण नारायण…