Seeker of Truth
॥ श्रीहरिः ॥

जो कुछ होता है, परमात्माकी नजरमें होता है

प्रवचन सं. ४
ज्येष्ठ कृष्ण ६ संवत् १९८९ सन् 1932स्वर्गाश्रम

भक्तिके मार्गमें यही दो बातें हैं- एक तो अपनेको ईश्वरके अर्पण करना और दूसरा मैं-मेरेका त्याग । मैं और मेरेमें ही दुःख होता है। इन दोनोंको ईश्वरके अर्पण कर दो, फिर दुःख नहीं होगा। जैसे यह कम्बल मेरी है, यह कम्बल यदि मैं किसीके अर्पण कर दूँ यानी किसीको दे दूँ तो वह आदमी फिर इस कम्बलको बिछाता है या ओढ़ता है, इससे मुझको कोई दुःख नहीं होता है। जब तक मैं अपना अधिकार मानता हूँ, तभी तक दुःख होता है। इसलिये सब चीजोंका अधिकार ईश्वरके अर्पण कर देना चाहिये। चीज तो वहीं-की-वहीं पड़ी हैं, फॉर्मका (दूकानका) नाम बदल दें कि सब परमात्माकी ही हैं, फिर निश्चिन्त हो जायँ। मेरी जितनी चीजें हैं, सब भगवान्की ही हैं, सच्चे दिलसे भगवान्‌को सँभला दो। भगवान्को सब सँभलाकर, फिर भगवान्का गुमास्ता (नौकर) बनकर सब काम करो। गुमास्तेको जो काम जिस तरहसे करना चहिये, उसी तरहसे करते रहो, परन्तु बाजार घट गया या बढ़ गया, उसके घाटा-नफाका मालिक भगवान् हैं। भगवान्के दास होकर उसका काम करो।

जैसे कोई चीज किसीको सँभलाते हैं (जिम्मे कर देते हैं), उसी तरह अपने-आपको भी भगवान्के अर्पण कर दो। वह चीज फिर भगवान्की ही है, भगवान् अपनी इच्छाके अनुसार अपने काममें लें। उसका सुख-दुःख, हर्ष-शोक हमको नहीं होना चाहिये। भगवान्को शरीर सहित सब चीज सँभला दी, फिर शरीरके बीमारी होवे, पुत्र जन्मे अथवा मरे, रुपया आये या जाये, भगवान्को सँभलानेके बाद तुमको खुशी-नाराजगी नहीं होनी चाहिये। तुम्हारा मानते हो तो फिर सँभलाया कहाँ ? पुत्र मरा तो भगवान्का मरा, तो भगवान् रोवो ! तुमने तो अच्छी जगह यानी तुम्हारेसे जबर (सर्व-समर्थ) को सँभलाया है। तुमको क्यों रोना चाहिये ?

ऐसे ही भगवान्को धन सँभला दिया, अब उनकी जो इच्छा हो, वही करो। सब देश भगवान्का है, उनकी इच्छा हो, सो करो, चाहे जिस देशमें भेज दो। तुम्हारे पास लाख रुपया था, चला गया, अब भगवान्की जहाँ इच्छा होगी, उसी दूकानमें ले जायेंगे, तुम तो सब कुछ भगवान्को सँभला चुके। सब कुछ उनकी इच्छा पर है, चाहे ले जावें, चाहे और बढ़ावें। अगर रोते हो तो अभी सँभलाया नहीं। जो कुछ भी होओ- बढ़ो, घटो, नाश होओ। तुम्हारे अधिकारमें जितनी चीज है, उससे सब संसार, जो कि उसकी प्रजा है, उनको सुख पहुँचाते हुए काम करो। फिर घटो, बढ़ो, तुम्हारा क्या ?

मैं (अहं) की बात- जैसे कोई लड़का किसीके यहाँ गोद आता है और वह बाप उस लड़केसे पूछता है कि- 'तू मेरा बेटा है ?' लड़का कहता है- 'हाँ !'

किसी समय वह बाप उस लड़के के चार थप्पड़ मारता है। यदि इस व्यवहारसे वह लड़का विचलित हो जाय तो वह उसको अपना बेटा नहीं समझेगा। उसी तरहसे भगवान् उस सब कुछ अर्पण किये हुए भक्तको जाँच-परखकर देखते हैं कि यह वास्तवमें मेरे अर्पण हुआ है कि नहीं। तुम रोओगे तो भगवान् कहेंगे कि- 'यह अर्पण कहाँ हुआ ? यह तो रोता हैं ?'

वे तुमको दर्द देते हैं तो खुश होओ कि उन्होंने मुझको स्वीकार कर लिया। अब मुझे परख रहे हैं।

बहुत-से आदमी अपने फोड़ेको अपने हाथसे चीर डालते हैं। मूर्ख तो वैद्य-डाक्टरोंके चीरने पर भी रोते हैं। ऐसे ही परमात्मा जो कुछ भी करते हैं, वह तुम्हारे भलेके लिए करते हैं, एवं पवित्र बनाते हैं, वे तो परम दयालु हैं। जो रोता है उसका फोड़ा डाक्टर नहीं काटता, वह फिर सड़ जाता है। जो राजी मनसे कटाता है, उसीका काटता है, ऐसे ही भगवान् उसीको मुक्त करते हैं जो उनके अर्पण हो जाता है। मयूरध्वजके लड़केको इस तत्त्वका ज्ञान हो गया था, वह कहता है- 'हे नाथ! जल्दी करोत (आरी) चलाओ।' उसपर करोत चलती है और वह हँस रहा है। इतनेमें भगवान् प्रकट हो गये, वह परीक्षामें पास हो गया। तब भगवान् स्वीकार कर लेते हैं कि इसने सब कुछ मेरे अर्पण कर दिया।

शरीरके कटानेमें हँसनेकी गुंजाइश है- रोने की नहीं। रोता है वह उसके तत्त्वको नहीं जानता। जो उसके तत्त्वको जान जायेगा, वह हँसते-हँसते कटावेगा और रोवेगा नहीं। आपका शरीर है और यह मान लो कि आपके शरीरमें कोई बीमारी होती है, तकलीफ होती है तो जो परमात्माके अर्पण हो गया है, वह जानता है कि जो कुछ होता है, वह परमात्माकी नजरमें होता है। परमात्मा ही सब कुछ करता है। फिर केवल हँसना-ही-हँसना रहता है। भगवान् उसपर आसन लगाकर बैठ जायँ तो उसको आनन्द ही होगा, कष्ट नहीं होगा, हर्ष होगा। जब किसी स्त्रीके बच्चा होता है तो उसे कितना कष्ट होता है, परन्तु जब वह सुनती है कि लड़का हुआ है तो उसके बहुत खुशी होती है। उस खुशीके आगे वह तकलीफ कुछ भी चीज नहीं है। इतनी तकलीफ पाई, फिर भी आगे दूसरे लड़के की इच्छा करती है।

दिनमें १०० रुपये दलालीके बन गये, इस कामके करनेमें चलने-फिरनेसे अब पैर दुःखते हैं, पर मनमें हर्ष हो रहा है। कोई और १०० रुपयेकी दलालीका काम बता दे तो पैर दुःख रहे हैं, फिर भी मनमें हर्ष हो रहा है। वह यह चाहता है कि इससे दुगुना काम और मिले तो और अच्छा है। शरीरको परिश्रम और पीड़ा बढ़ रही है, गधेकी तरह खटाली-खट रहा है (अधिक थकान होनेसे निढ़ाल हो रहा है।) यह रुपयोंके महत्त्वको जाननेकी बात है, तभी इतनी मेहनत कर रहा है। इसी प्रकारसे भगवान्का तत्त्व जाननेके बाद भगवान्का भक्त भगवान्के प्रत्येक विधानमें जो कुछ भी हो रहा है, उसमें प्रभुकी मंगलमय मूर्तिका दर्शन करके सदा खूब प्रसन्न रहता है और हँसता रहता है।

गोपियाँ चाहती हैं कि हमारे शरीरको पीसकर भगवान् गुलाल बना लेवें अथवा हमारी चमड़ीसे जूतियाँ बना लेवें, किसी भी तरहसे हमारा यह शरीर भगवान्के काममें आ जावे।

परमात्माके चिन्तन और दर्शनमें कितना अधिकं आनन्द आता है ! उस आनन्दके मुकाबले उस समय उसको क्या क्लेश हो ? मेरी चीज परमात्माके काम आ रही है- इस विचारसे उसको जितना हर्ष हो रहा है, उसमें दुःखको तो वह कुछ चीज ही नहीं समझता है।

रमात्मा दयालु हैं। जिसको चीज देनेमें दुःख होता दीखता है, उसकी चीजको काममें नहीं लाते।

प्रह्लादने भगवान्की भक्तिका आश्रय पकड़ा था। भगवान्ने उसकी परीक्षा लेना शुरु कर दिया। भगवान् उसे कभी साँपसे कटाते हैं, कभी जहर पिलाते हैं, कभी अग्निमें जलाते हैं- इस प्रकारसे पीड़ा-पर-पीड़ा देते हैं, परन्तु प्रह्लादने उस पीड़ाको पीड़ा माना ही नहीं।

आप भी भगवान्की शरण लेंगे तो आपको भी भगवान् तपा-तपाकर देखेंगे। तब जो भी बात होगी, उसीमें आपको हर्ष होगा। परीक्षाको परीक्षा समझनेके बाद फिर कष्ट होता ही नहीं।

भगवान् शरीरको जो भी कष्ट और तकलीफ पहुँचा रहे हैं, उसको परीक्षा समझ लो, फिर आपको कष्ट ही नहीं होगा। आजसे जितनी तकलीफ होवें, उनको परीक्षा समझ लेवें- इस तरहसे तत्त्वको समझनेवाला प्रह्लाद होता है, द्रौपदी नहीं। वह तो तकलीफ आनेपर रो पड़ी थी।

भगवान्के अर्पण होनेके बाद जिसको जितनी आपत्ति आयेंगी, उसको उतनी ही भगवान्की सम्पदाका दर्शन होगा। जितनी-जितनी सम्पदाका दर्शन होगा, उतना उतना ही वह भगवान्के नजदीक पहुँचेगा, उतना ही उसका आनन्द बढ़ता जायगा, उसको चाहे जितना ही काटो, छाँटो।

दृष्टान्त- एक गुमास्ता (नौकर) के नीचे रहकर काम सीखनेकी बात। वह कितना ही कष्ट दे, वह पासमें रहकर उससे काम सीखता है।

एक वास्तविक घटना है- एक आदमीके एक मुनीम रहता था। सब काम वह मुनीम ही करता था, मालिक को कामका कुछ भी मालूम नहीं था। जो मुनीम कहता, वही काम होता था, मालिकके कहनेकी कोई कीमत नहीं थी। कितने ही समयके बाद मालिकका भानजा आया, वह बहुत ही होशियार था। मामाकी उस (भानजा) को दूकानपर रखनेकी इच्छा हुई, तब मामाने भानजेको कहा- 'तेरी दूकानपर रहनेकी और काम करनेकी इच्छा हो तो मुनीमजीकी राजीके अनुसार काम कर। तू हमलोगोंका कहना नहीं सुनेगा तो कोई हर्ज नहीं है, पर मुनीमजीका कहना नहीं सुनेगा तो तुम्हारा दूकान पर रहना मुश्किल है। तुमको काम सीखना है तो उनकी खूब सेवा करके काम सीख ले।'

यह बात सुनकर वह भानजा तन-मनसे मुनीमजीकी सेवा करने लग गया। जिस चीजकी मुनीमजीको जरूरत पड़ती, वह चीज पहलेसे ही तैयार कर देता। कभी-कभी मुनीमके पैर भी दबा देता। मुनीमका जो भी काम होता, वह सब कर देता। साथमें दूकानका भी सब काम करता। काम करते-करते वह इतना होशियार हो गया कि सब काम जान गया, मुनीमजी नमूना मात्र रह गये। मुनीमजी एक महीनेकी छुट्टी लेकर अपने घर गये, पीछेसे उस भानजाने सब काम कर लिया। मुनीमजीकी किसी भी काममें जरूरत रही नहीं।

मुनीमजी वापस आये, तब भानजा छुट्टी लेकर घर गया। उसके पीछेसे कामका नुकसान हुआ तो भानजाको बुलाना पड़ा। तब मुनीमजीका वेतन घटा दिया गया और भानजेका दूकानमें हिस्सा डाल दिया, वही मालिक जैसा हो गया।

इसी प्रकार परमात्माके माफिक बनकर उनका काम करे तो वह पुरुष मालिकका भी मालिक हो जावे। अपनेको उस मालिक (परमात्मा) का गुमास्ता बनना चाहिये। काम, क्रोध, लोभ, मोह - इनको रात-दिन ठोक-पीटकर निकालना चाहिये। जितनी भी तकलीफ आयें, उन्हें सहन करते जाओ, हँस-हँसकर सहन करो। दो दुःख (तकलीफ) आवें तो कहो कि- 'हे भगवान् ! चार आने दो।' इस तरहसे चाहे कितनी ही आफत आओ, उनको सहन करते जाओ। चलते जाओ, बेड़ा पार है। पैर पीछे रखे कि मामला खतम।

इस प्रकार काम-क्रोधकी लड़ाईमें जो मार पड़ती है, उसको सह लेनेमें ज्यादा लाभ है, जीतनेमें थोड़ा लाभ है। भगवान्की मारमें खूब हर्ष होना चाहिये। महाभारतके युद्धमें जब भगवान् सुदर्शन चक्र लेकर आये तब भीष्मने कहा- 'आओ ! आओ नाथ !! इसी उद्देश्यसे तो यह काम किया था।'

कोई बालक किसी दूसरे बालकको मारकर फिर माँ की गोदमें बैठ जाता है, तब माँ उस बालकको ऊपरसे (दिखानेके लिये) मारती है। उस समय वह बालक भीतर में तो हँसता है और बाहरसे (उस बालकको दिखानेके लिये) झूठे ही रोता है तो ईश्वरकी मार माँ की मार की तरह है। ईश्वर भीतरकी मार नहीं मार सकते। माँ मारती है, वह तो बच्चेके हितके लिये मारती है। उस माँ में तो अज्ञान है, परन्तु ईश्वरमें अज्ञान नहीं है। ईश्वर चाहे जितनी मार मारें, उसमें राजी ही होना चाहिये। भीष्म कह रहे हैं- 'हे नाथ ! मैंने जितने पाप किये हैं, वे सब रोग-रूप होकर आ जावें ताकि मैं उऋण हो जाऊँ।'

कोई आपको कहे कि आपके १०० जन्मोंके जितने पाप किये हुए हैं, वे सब पाप मैं १० दिनमें भुगता दूँ, जैसे कोई कितना ही पापी हो वह काशीमें मरनेपर अधिक-से-अधिक ३६००० वर्ष तक उसके पापोंका भोग भुगताकर मुक्त कर दिया जाता है। वही मुक्ति इसी जन्ममें मिल जावे तो कितना अधिक आनन्द हो !

ईश्वरकी मार में बड़ा आनन्द है ! उसके स्पर्शमें बड़ा आनन्द है ! भगवान् जितनी मार मारें, उसमें कितना आनन्द आवे ! ईश्वरकी बहुत ज्यादा दया हो गई ! भगवान् कहते हैं कि- 'मैं तो तेरा इस जन्ममें ही कल्याण करके छोडूंगा !'

भक्त कहता है- 'आपकी मर्जी ! कर दो ! चाहे जितना कष्ट दे दो, मैं तैयार हूँ।'

ईश्वरके साक्षात् दर्शनकी उम्मीद है, वही आनन्द है। कोई आदमी भारी-से-भारी कष्ट सहनेको तैयार है तो ईश्वर उसको जल्दी मिलनेको तैयार है। ईश्वरने अपनेसे मिलनेका दिन करार कर दिया तो हम भारी-से-भारी कष्ट सहनेको भी तैयार हैं। जल्दी-से-जल्दी जिस तरह से भी वह मिले।

मान लो कि किसी जगह एक हीरों और रत्नोंकी खान है। किसी राजा, महाराजाके सम्पर्कसे किसी आदमीको यह हुक्म मिल गया कि ४ पहर (१२ घण्टों) में जितना ले जा सकते हो, उतना ले जाओ। तब उस आदमीसे यदि १० सेर वजन चलता होगा तो वह २० सेर ले जानेकी कोशिश करेगा। उसको उठाकर दौड़ रहा है, तकलीफ पा रहा है तो भी वह जल्दी-जल्दी भाग रहा है। दूसरे आदमी उसको कह रहे हैं कि- 'आपके पैर लँगड़ाते हैं। आप इतना क्यों दौड़ रहे हैं ?' उसका उत्तर वह यह देता है कि- 'कोई बात नहीं, पैर तो दो दिनमें ठीक हो जायेंगे।' वह जल्दी-जल्दी भागा जाता है। क्लेश, पैरोंकी तकलीफ, लोग ताना मार रहे हैं तथा निन्दा भी हो रही है तो भी वह देखता है कि संध्या समय तक जितना ढो सकते हैं, उतना ढो लो, किसीकी भी सुनो ही मत। जिस आदमीने अपनी सारी उम्रमें पाव भर रत्न भी नहीं कमाये, उस आदमीको जितने उठाये जा सकें, उतने रत्नोंको उठानेका हुक्म मिल जाय तो फिर वह रत्नोंको किस तरहसे छोड़े ?

इस उदाहरणको तुलनामें उस (परमात्मा)-में लाखों गुणा आनन्द है।

जब-जब आपत्ति आवे, उस समय मानना चाहिये कि भगवान् परीक्षा ले रहे हैं। जो परीक्षामें पास हो जावे, उसको तो भगवान्के दर्शन होंगे।

प्रह्लादको इस विषयका ज्ञान था। वह आगमें बैठा है फिर भी हँस रहा है।

इसी तरहसे उस भक्तको ईश्वरसे मिलनेकी आशासे इतना हर्ष होता है कि उसे शारीरिक कष्ट कष्ट मालूम नहीं देता है। जैसे किसी समय यहाँपर आँधी-वर्षा आती है, उस समय यदि वैराग्य धारण कर लें तो उस समय अपनेको आँधी-वर्षाका कष्ट नहीं होगा। कष्टकी जगह हर्ष ही होगा। यह तो वैराग्यसे होनेवाले हर्षकी बात है, जहाँ भगवान्के आनेकी आशा ही नहीं है, फिर जहाँपर भगवान्के आनेकी आशा हो वहाँ हर्ष होगा या तकलीफ होगी ? उसको तकलीफका तो भान ही नहीं होता है। वही आँधी भगवान्से मिलानेकी भावना करनेसे आरामदायक है और तकलीफदायीकी भावनासे ही तकलीफदायक है। भावनासे ही वह आँधी आनन्द देनेवाली बन जाती है।

गुहारमलजीके उस दिन तकलीफ ज्यादा थी, परन्तु वे स्नान कर रहे थे और खिसककर चल रहे थे। उनके कितना हर्ष उत्पन्न हो रहा था ! मामूली भावनाका यह फल है।

साक्षात् ईश्वरकी दी हुई तकलीफ ! क्या ईश्वरके दर्शनके लिये तकलीफ मालूम देती है ! उलटा कितना हर्ष होता है !

घनश्यामके भाई मोहनका शरीर शान्त हुआ, उस समयकी बात है कि वह हँसते-हँसते प्राण दे रहा है। तकलीफ कहाँ गई, कुछ मालूम ही नहीं। हर्षके कारणसे उसके चित्तकी वृत्तियाँ उस तकलीफकी तरफ जाती ही नहीं। उस हर्षका अनुमान कौन करे ? जितनी ज्यादा तकलीफ होती है, उतना ही आनन्द ज्यादा बढ़ता है। ऐसे ही प्रहलाद कहते है- 'हाँ, और कष्ट आने दो !'

रुपयोंके सेवकको रुपयोंके लोभके लिये शरीरकी तकलीफका खयाल नहीं रहता है, फिर ईश्वरकी सेवामें किस प्रकारसे तकलीफ मालूम देवे ?

परमात्माकी प्राप्ति तो सुखसे बैठे-बैठे हो जावे। भजन-ध्यान करते-करते भगवान् मिल जावें और इससे ज्यादा सस्ते क्या मिलेंगे ? आपलोगोंसे पत्थर थोड़े ही फुड़वाये जाते हैं ? इसके बावजूद मन उकता रहा है कि यहाँसे चलो !

नारायण नारायण नारायण श्रीमन्नारायण नारायण नारायण...