हे नाथ ! मेरेको तो दर्शन देने ही पड़ेंगे
दिनमें भगवान्के निराकार स्वरूपका तत्त्व बताया। उसको समझते हुए भगवान्के साकार रूपका ध्यान करना दामी (मूल्यवान्) है।
हरेक आदमीको परमात्माके रहस्यकी, तत्त्वकी बातें समझनेकी जरूरत है। स्त्रियोंको कम बुद्धि होते हुए भी इन बातोंको समझनेकी जरूरत है। वर्तमान वेदान्तमें तो केवल ज्ञानका नाम ही नाम है, ये बातें वे नहीं समझते। जो आदमी भगवान्के निराकार स्वरूपके तत्त्वको समझ लेता है, उसको उसी समय परमात्माकी प्राप्ति हो जाती है। समझते ही प्राप्ति है। जैसे साकारमें श्रद्धा और प्रेमकी आवश्यकता है, वैसे ही निराकारमें समझकी प्रधानता है। समझते ही उसकी उस (परमात्मा)-में स्थिति हो जायगी। समझमें आनेके लिये बुद्धि और मनके गड़ानेकी जरूरत है।
साकार ईश्वरमें यह विश्वास हो कि वे निश्चय ही मिलेंगे, उनकी अथाह दया मानकर गले पड़ने की तरह रोवे तो उसको आज ही परमात्माका दर्शन हो जावे।
जितनी ज्यादा श्रद्धा और प्रेम होवे उतनी जल्दी भगवान् मिलें क्योंकि भगवान् बड़े दयालु हैं। फिर वे रह नहीं सकेंगे जैसे- द्रौपदीका आर्तनाद सुनते ही भगवान् प्रकट हो गये। बुद्धि भले ही बिल्कुल बालकके समान होवे, श्रद्धा और प्रेमकी जितनी अधिकता होगी, उतनी ही जल्दी भगवान् मिलेंगे।
भगवान्की सम्पूर्ण दयाको लोग समझ नहीं सकते। रोनेमें हेतु स्नेह और मोह है। 'हे नाथ ! चाहे मेरा बालकपन समझो, चाहे मेरी मूर्खता मानो, मेरेको तो दर्शन देने ही पड़ेंगे।' ऐसा विश्वास हो जाय कि मुझे तो भगवान् अभी मिलेंगे।
एक उपाय तो यह है कि-एकदम विश्वास रखकर शरण हो जाय, पीछे उसकी मर्जी।
दूसरा उपाय यह है कि बालकके समान हठ पकड़ ले कि- 'बस ! मैं तो अबार ही मिलस्यूँ (अर्थात् मैं तो अभी ही मिलूँगा।) मैं तो आपके शरण हो गया, अब आप जानें। आपकी सब बातें मेरेको मंजूर हैं, परन्तु मेरेमें आपका वियोग सहनेकी शक्ति नहीं है- मेरा इतना सा बालकपन है। और बातें तो आप कहें, वैसे ही ठीक हैं, पर आपके वियोगमें रहनेकी मेरी सामर्थ्य नहीं है।' जैसे लक्ष्मण और सीताजीका भगवान्के वनगमनके समयका बर्ताव।
उपरोक्त दोनों ही उपाय कामके हैं।
सीताजीको रावण हरण करके ले गया। अशोकवाटिकामें हनुमान्जी सीताजीको कहते हैं- 'मैं आपको ले चलूँ ?'
तब सीताजी कहती हैं- 'ना ! महाराज आकर ले जाय।' मछलीकी तरह तड़फ रही हैं, फिर भी किसी दूसरेके साथ जानेको तैयार नहीं हैं।
निराकारका तत्त्व तो समझमें आते ही सब पापोंका नाश हो जाता है। साकार भगवान्का दर्शन होते ही सारे अवगुणोंका नाश हो जाता है।
साकारका प्रत्यक्षमें दर्शन होते ही सद्गुण, सदाचार अपने-आप ही आ जाते हैं। जपसे, ध्यानसे पापोंका समूह एकदम नाश होता चला जाता है। रहे-सहे पाप भगवान्का दर्शन होते ही एकदम नाश हो जाते हैं।
निराकारका विषय प्रत्यक्ष वही है, जो आत्मामें समझमें आ जाय, ज्ञानद्वारा प्रत्यक्ष हो जाय। साकारका नेत्रोंद्वारा प्रत्यक्ष दर्शन ही प्रत्यक्ष है।
ध्यान करनेसे आत्माका तत्त्व ज्यादा जाना जावे, इसीका नाम उपासना है। संसारमें सबसे बढ़कर चीज ध्यान है।
निदिध्यासनमें जप सहायक होनेके कारण ही जपको प्रधानता दी जाती है। स्तुति और प्रार्थनामें भी प्रधानता भगवान्के विशेषणोंकी है। भगवान्से संसारकी वस्तु माँगे तो नीचा दर्जा ही है। स्तुतिसे प्रार्थना नीचे दर्जेकी है। ऊँचे उद्देश्यकी प्रार्थना भी निष्कामके तुल्य ही है। स्तुति तो निष्काम है ही।
समझनेका महत्त्व यही है कि उसके अनुसार आचरण करें तो उसके द्वारा अपने-आप काम होगा। यदि यह बात समझमें आ जाय कि इस वस्तुमें जहर मिला है तो फिर उस वस्तुको कोई भी नहीं खा सकता। विचारके द्वारा समझी हुई बातें धारण हों तो ही असली समझ है।
नारायण नारायण नारायण श्रीमन्नारायण नारायण नारायण...