भाव बदलनेसे संसार परमात्माके रूपमें दीखने लग जाता है
प्रश्न- यहाँ कहा जाता है कि महापुरुषोंके सिद्धान्तके अनुसार करे। महापुरुषोंका सिद्धान्त क्या है, यह कैसे मालूम पड़े ?
उत्तर- जैसे भगवान्का सिद्धान्त गीतामें लिखा हुआ है, वैसे ही तुलसीदासजीका सिद्धान्त उनके ग्रन्थोंमें है। जितने जो महापुरुष हुए हैं, उनका सिद्धान्त उनकी रची हुई पुस्तकोंमें है। पुस्तकोंमें जो बात है, वही उनका सिद्धान्त है। जितने आचार्य हुए हैं, उनकी रची हुई, लिखी हुई पुस्तकोंसे ही उनका सिद्धान्त निर्णय होता है। उनकी जो मान्यता है, वह बहुत-सी उनके लेखोंमें आ जाती है। उनकी जो मान्यता है, उसीके अनुसार करना चाहिये। वही उनका सिद्धान्त है।
कोई भी वस्तुमें समझो - महात्मा है, ईश्वर है, हीरा है, पारस है- सभी चीजोंमें उसका रहस्य ज्ञान होनेसे, जाननेसे क्षणमें बुद्धि बदल जाय।
यह संसार अपने लोगोंको दूसरी तरहका दीखता है, महात्मा पुरुष हैं, उन्हें यह साक्षात् परमात्माका स्वरूप दीखता है। यह जो संसार है, इसका तत्त्व जान लें तो वासुदेवका स्वरूप दीखने लग जाय। भगवान् श्रीराम हैं, धनुषयज्ञमें खड़े हैं, अपने-अपने भावके अनुसार दीखते हैं। एक कथावाचक है, उसको भी श्रोता अपने-अपने भावके अनुसार देखते हैं। इसी तरह इस संसारमें अलग-अलग बुद्धि है। जो इसे परमात्माका स्वरूप समझता है, वह महात्मा है।
पारस और पत्थर एक-सी चीज हैं, किन्तु जो उनके तत्त्वको जाननेवाले होते हैं, वे पारसको पारस समझते हैं। हीरा, काँच, माणिक, झूठा मोती, सच्चा मोती- अपने लिये तो सब एक-से हैं। जौहरी हैं, वे ही परीक्षा कर सकते हैं।
एक साधुने एक गृहस्थके यहाँ 'नारायण, हरि' की आवाज लगाई। गृहस्थ बड़ा गरीब था, बाहर आया, रोने लगा। रोता देखकर साधुने कहा- 'तुम रोते क्यों हो ?'
उसने कहा- 'महाराज ! घरमें सब लोग भूखे बैठे हैं। आप आये, आपको क्या भिक्षा दें, इस वास्ते रोते हैं। भगवान्ने मुझे ऐसा बना दिया कि आपको अन्न भी नहीं दे सकते !'
साधुने घरमें घुसकर दृष्टि डाली, कहा- 'तुम्हारेसे बढ़कर भाग्यवान् और कोई नहीं है। तुम चाहो तो सारी दुनियाको धनी बना सकते हो। तुम चाहो तो दुनियाकी गरीबीको दूर कर सकते हो।' साधुने पूछा- 'यह क्या पड़ा है ?'
उसने कहा- 'पत्थर है।'
साधुने कहा- 'नहीं, यह पारस है।'
कहा- 'इससे तो रोज चटनी पीसते हैं।'
साधुने कहा- 'हमें प्रत्यक्ष पारस दीखता है, हम तुम्हारी बात कैसे मानें ? तुमने पारसका नाम सुना है ? घरमें लोहा हो तो लाओ।’
लोहेकी सँडासी आदि लाये, छुआते ही सोना बन गये।
साधुने कहा- 'अब बता, तेरे समान कोई धनी है क्या ?'
कहा- 'नहीं।'
पूछा- 'अब इससे चटनी पीसोगे क्या ?'
कहा- 'इसको तिजोरीमें रखेंगे।'
जैसे उसके घरमें पारस पड़ा था, ऐसे ही हमारे हृदयमें भंगवान् बैठे हैं, हम भटकते फिरते हैं !
यह संसार परमात्माका स्वरूप है, हमें संसार दीखता है। जब उस गृहस्थकी तरह हमारा भाव भी बदल जाय तो हमें भी संसारमें परमात्माका स्वरूप दीखने लगे। हरे रंगका चश्मा चढ़ानेसे सारे पदार्थ हरे-ही-हरे दीखने लगते हैं, ऐसे ही हरि (जो परमात्मा हैं), उसका चश्मा चढ़ा लेनेसे सारा संसार हरि का स्वरूप दीखने लग जाय।
यो मां पश्यति सर्वत्र सर्वं च मयि पश्यति ।
तस्याहं न प्रणश्यामि स च मे न प्रणश्यति ।।
(गीता ६/३०)
अर्थात् - जो पुरुष सम्पूर्ण भूतोंमें (जीवोंमें) सबके आत्मरूप मुझ वासुदेवको ही व्यापक देखता है और सम्पूर्ण भूतोंको मुझ वासुदेवके अन्तर्गत देखता है, उसके लिये मैं अदृश्य नहीं होता हूँ और वह मेरे लिये अदृश्य नहीं होता है, क्योंकि वह मेरेमें एकीभावसे स्थित है।
भगवान् कहते हैं- जो मुझे सर्वत्र देखता है, उसके लिये मैं कभी अलग नहीं होता।
उस गृहस्थने साधुकी बात मान ली तो वह मालामाल हो गया, ऐसे ही हम गीताकी बात मान लें तो आनन्द-ही-आनन्द है। वही चीज भाव बदलनेसे दूसरी ही दीखने लग जाती है।
मुकुन्दलालजी पाण्डेयकी बात- उन्हें ज्ञान हो गया कि जिनके पास आये हैं, वे ये ही हैं तो उनकी दशा ही बदल गयी।
इसी प्रकार हम जिन भगवान्को खोजते हैं, वे हमारे पास ही हैं, सब संसारमें व्याप्त हैं। शास्त्र कहते हैं- यह संसार ब्रह्मका स्वरूप है।
शास्त्र और महात्मा इस बातको समझानेके लिये बहुत कोशिश करते हैं। जो समझ जाता है, वह तो फिर दूसरोंको बता सकता है।
भावका चश्मा है, उसे चढ़ा लें तो फिर दीखने लग जाय। जितनी बात समझमें आ गई, वह भूली नहीं जा सकती। जितना तत्त्व परमात्माका समझा गया, वह तो हृदयमें जम गया। वही उसकी असली जानकारी है और असली श्रद्धा है।
हमें यही कोशिश करनी चाहिये, उसके लिये प्राण-पर्यन्त चेष्टा करनी चाहिये। फिर परमात्माका ज्ञान - परमात्माका जानना एक साधारण सी बात है।
नारायण नारायण नारायण श्रीमन्नारायण नारायण नारायण...