भजनकी कमी मनमें चुभती रहे, भजन भजनके लिये हो
भगवत्कृपाके सम्बन्धमें श्रीस्वामीजी महाराजने जो कहा, बहुत ठीक कहा। कहते हैं, सुनते हैं और पढ़ते हैं, पर भगवत्कृपा ठीक समझमें नहीं आती। भगवत्कृपा ठीक समझमें आ जाय तो फिर कोई काम बाकी नहीं रहे, पर इसे बार-बार समझना है। मुझे एक सज्जनसे बात करनेका मौका प्राप्त हुआ। उन्होंने बताया- दो बातें बड़े महत्त्व की हैं-
१. बार-बार भगवत्कृपाका अनुभव करना, और
२. अपनी अयोग्यताका अनुभव करना।
मेरी अयोग्यताकी सीमा नहीं और भगवत्-कृपाकी सीमा नहीं- यह बात केवल कहनेकी नहीं, यह बात वास्तवमें उसके द्वारा होती हो। वह समझता हो कि- मेरी त्रुटियाँ-ही-त्रुटियाँ हैं, भगवान्की कृपा-ही-कृपा है।
मनुष्य देखे तो पता चलता है कि भगवान् किस तरह मुझे बचाते हैं। भूल यह होती है कि मनुष्य बुराई तो भगवान्पर डालना चाहता है, सफलता मिलती है तो कहता है- मैंने किया है। इससे मनुष्य भगवत्कृपाका अनुभव नहीं कर पाता है।
एक महात्माने मुझसे कहा था कि- 'मुझे दीखता है कि मेरे चारों ओर भगवान्की कृपा-ही-कृपा है।' सच्ची बात है- प्रभु मूरति कृपा मयी है (विनय पत्रिका)। भगवान् कृपामय हैं। जो कृपामय है, वह और करे क्या ? जहाँ अमृत-ही-अमृत भरा है, वहाँ मामूली जल कैसे मिले ? जहर मिलनेकी तो वहाँ बात ही नहीं है !
एक जगह आया है कि- 'जो प्यासा है, तुमसे जल चाहता है, उसे तुम अमृत देते हो, कारण कि तुम्हारे पास जल है ही नहीं।' उनके पास सिवा कृपा करनेके कोई चीज है ही नहीं। उनका कोप भी कृपा होता है। वे कोप के द्वारा कृपा ही करते हैं। हिरण्यकशिपुको और कंसको भगवान्ने मारा, पर मारा क्या, उन्हें अपना धाम दे दिया, इससे बड़ी कृपा और क्या होगी ! हम अनुभव करना चाहें तो भगवान् कृपामय हैं- इसका हमें पल-पलमें अनुभव हो सकता है। साधक यही करे- हर क्रियामें भगवान्की कृपा देखे। जहाँ-जहाँ उलटा हो, वहाँ विशेष कृपा देखे।
एक कहानी आती है- किसीने एक राजाको एक तलवार भेंट की, राजा उसे देखने लगे, अँगुली कट गई। मंत्री बैठे हुए थे, उन्होंने कहा- 'भगवान्ने बड़ी कृपा की।' राजाके समझमें नहीं आया, उन्होंने कहा- 'यह कैसी कृपा ?' मंत्रीको कैद कर दिया। तब भी मंत्रीने यही कहा कि 'भगवान्ने बड़ी कृपा की।'
राजा एक रोज शिकार खेलने गये, दूर निकल गये, साथी पीछे रह गये, दूसरे राजाने देवीकी भेंटमें एक मनुष्यकी बलि बोली थी, उनके सिपाही लोग जंगलमें एक मनुष्यकी खोजमें घूम रहे थे, राजा दिखाई दिया तो पकड़ लिया। बलिके लिये ले गये, देवीके सामने खड़ा किया, जाँच हुई, राजाकी अँगुली कटी हुई मिली। जल्लादोंने कहा- 'अंग कटा हुआ है, इसकी बलि नहीं होगी' तो छोड़ दिया। राजाके अब बात समझमें आई कि भगवान्ने सचमुच मंगल किया। राजाके प्राण बचे। राजा आये, मंत्रीको जेलसे निकलवाया, कहा- 'सचमुच भगवान्की बड़ी कृपा हुई। यदि उस दिन अँगुली न कटी होती तो आज मेरी गर्दन कट जाती। पर तुम्हारे ऊपर क्या कृपा हुई ?'
मंत्रीने कहा- 'यदि आप मुझे जेलमें नहीं डालते तो मैं आपके साथ ही रहता। आप तो छूट जाते, पर मेरी तो अँगुली नहीं कटी थी, इसलिये मेरी गर्दन कट जाती। भगवान्ने मुझे जेलमें भेजकर बचाया, आपको अँगुलीके कारण बचाया।'
हमें पता नहीं चलता, हम जिसे हानि समझते हैं, उसमें हमारा मंगल होता है।
एक आदमीके झोंपड़ेमें आग लग गई, सब जल गया, वह रोने लगा। लोग जा रहे थे, उन्होंने कहा- 'तुम एक पक्की झोंपड़ी बनवा लो।' लोगोंने रुपया दे दिया, वह आदमी नींव खोदने लगा। नींव खोदते खोदते एक धनका खजाना निकल आया, वह लखपति हो गया। अगर उसके झोंपड़ेमें आग नहीं लगी होती तो न वह नींव खोदता, न वह धनी होता।
न मालूम, भगवान् कब क्या-क्या दया करते हैं, हमें पता नहीं है।
पूर्वमें मेरा राजनीतिक जीवन था। मैं अंग्रेजों द्वारा पकड़ा गया था। सन् १९१६ की बात है। मेरेमें भगवान्के नामका भाव सबसे पहले जेलकी कोठरीमें हुआ। वहाँ मेरे बड़ी व्याकुलता हुई, घरकी बातें याद आई, कि क्या करें ? मनमें आया- भगवान्को याद करें। मनमें नाम जपनेकी आई। सिपाहीसे कहा- 'एक माला ला दो।' सिपाहीने कहा- 'एक कील तुम्हें दे देते हैं। अँगुलियों अँगुलियों पर माला पूरी हो जाय तो दीवाल पर लीक कर दिया करो।' मैं ऐसा ही करने लगा, मेरी सारी चिन्तायें मिट गई।
नरसीका पुत्र मर गया, उन्होंने कहा- 'भलुं थयुं भांगी जंजाल । सुखे भजीशु श्रीगोपाल ।' उन्होंने इसमें भगवान्की दया समझी। 'अब सुखसे भगवान्का भजन करूंगा।' वे पुत्रका मरना चाहते नहीं थे, किन्तु मर गया तो भगवान्की दया समझी।
भगवान् जो करते हैं, सब ठीक करते हैं। जेलमें मुझे दो-ढाई घंटाके जपसे शान्ति मिल गई। मैं १८ दिन तक वहाँ रहा, नाम-जप चलता रहा। उसके बाद मैं शिमलापाल भेजा गया, वहाँ ध्यानका अभ्यास हुआ, भजन हुआ, पुराणोंका अध्ययन हुआ। पौने दो साल तक रहा।
अगर मैं पकड़ा नहीं जाता तो इस ओर कैसे लगता ?
भगवान्की कृपा नहीं दीखे तो भावना करता रहे, समझता रहे। तुलसीदासजी, सूरदासजीने जो कुछ कहा है-
मो सम कौन कुटिल खल कामी ।
जेहिं तनु दियो ताहि बिसरायो ऐसो नमक हरामी ॥
पापके संकल्पका आभास भी आ जाय तो उनको बर्दास्त नहीं। गांधीजीने लिखा है- सूरदासजीकी पापको नापने की गज दूसरी थी (यानी वे क्षणमात्रके लिये भी भगवान्को भूल जानेको बहुत बड़ा पाप मानते थे)।
हमें अपनी भूलोंका अनुमान ही नहीं है। हम यदि अपनी भूलोंको देखने लगें तो पता चलता है- न मालूम, कितनी भूलें हमसे होती हैं। हमारा जीवन भूलोंसे भरा है- यह बात मनमें आवेगी तो दीनता आयेगी। भगवान्को दैन्य प्रिय है, अभिमानसे उन्हें द्वेष है। नारद भक्ति सूत्र (संख्या २७) में आया है-
ईश्वरस्याप्यभिमानद्वेषित्वाद् दैन्यप्रियत्वाच्च ॥ २७ ॥
अर्थात्- ईश्वरका भी अभिमानसे द्वेषभाव है और दैन्यसे प्रियभाव है।
अपनी बुराइयोंको सोचनेसे मनुष्यमें दैन्यता प्रकट होती है- हौं पतित, तुम पतित पावन, दोउ बानक बने ।
पतितको पावन कौन करे ? दीनका बन्धु कौन ? किसी दीनसे आप प्रेम करें तो वह कृतज्ञ हो जायगा।
जब तक भजनमय जीवन नहीं बन जाता, तब तक यही मानना चाहिये कि मुझे भगवान्की कृपापर विश्वास नहीं है। भगवान्ने कहा है-
भोक्तारं यज्ञतपसां सर्वलोकमहेश्वरम् ।
सुहृदं सर्वभूतानां ज्ञात्वा मां शान्तिमृच्छति ॥
(गीता ५/२९)
अर्थात्- हे अर्जुन ! मेरा भक्त मेरेको यज्ञ और तपोंका भोगनेवाला और सम्पूर्ण लोकोंके ईश्वरोंका भी ईश्वर तथा सम्पूर्ण भूतप्राणियोंका सुहृद् अर्थात् स्वार्थरहित प्रेमी, ऐसा तत्त्वसे जानकर शान्तिको प्राप्त होता है और सच्चिदानन्दघन परिपूर्ण शान्त ब्रह्मके सिवाय उसकी दृष्टिमें और कुछ भी नहीं रहता, केवल वासुदेव ही वासुदेव रह जाता है।
यदि मनमें चिन्ता आती है तो यही बात है कि अभी तक उन्हें सुहृद् समझा नहीं। यदि उनकी कृपा मानी होती तो जीवन भजनमय बन जाता। जीवनका चरम फल तो यही है कि हम किसी भी प्रकारसे भगवान्के हो जायँ। हमें भगवान्की कृपा समझमें आयेगी तो यही होगा कि हम अपने-आपको उनके घरणोंपर न्यौछावर करेंगे।
मैं नितान्त दोषी, मुझमें कुछ भी है- वह भगवान्की कृपा है। अच्छापन मुझमें है नहीं। यह बड़ा विघ्न होता है कि मनुष्य अपनेको साधनमय समझ लेता है तो उसका साधन रुक जाता है। आवश्यकतासे अधिक गौरव करनेसे साधकके रुकावट हो जाती है। अनुभव करे कि साधन मुझसे बनता ही नहीं। मन साधन करनेसे ऊबे ही नहीं। मन निरन्तर यह चाहे कि भजन बने। भगवान्से यही माँगे कि- 'मेरे भजनकी कंगाली मिटे।'
भजन, भजनके लिये हो। दर्शन हो जायँ तो बहुत अच्छी बात है। भगवान् यह कर दें कि निरन्तर आठों पहर उनके नामकी, रूपकी स्मृति बनी रहे, इसमें जरा भी व्यवधान न हो- यह सम्पत्ति भगवान् दे दें। यह नहीं हो रहा है- यही कंगाली है। जो पल-पलमें भगवान्के भजन न होनेका अनुभव करता है, वह करता क्या है, भजन ही करता है। फिर ऐसी स्थिति होती है कि उसे कोई चीज सुहाती नहीं-
रमा बिलासु राम अनुरागी । तजत बमन जिमि जन बड़भागी ॥
(रा.च.मा. २/३२४/८)
अर्थ- श्रीरामचन्द्रजीके प्रेमी बड़भागी पुरुष लक्ष्मीके विलास (भोगैश्वर्य) को वमनकी भाँति त्याग देते हैं (फिर उसकी ओर ताकते ही नहीं।)
इससे बड़ा भाग्य क्या होगा ! सबसे बड़ी भाग्यता इसीमें है कि निरन्तर भगवान्का भजन हो। तुलसीदासजीने कहा है-
सुनहु उमा ते लोग अभागी । हरि तजि होहिं बिषय अनुरागी ॥
(रा.च.मा. ३/३३/३)
अर्थ- शिवजी कहते हैं- हे पार्वती ! सुनो, वे लोग अभागे हैं जो भगवान्को छोड़कर विषयोंसे अनुराग करते हैं।
ते नर नरकरूप जीवत जंग, भव-भंजन-पद-बिमुख अभागी ।
निसि-बासर रुचि-पाप असुचि-मन, खल-मति-मलिन, निगम-पथ-त्यागी ॥
(विनय पत्रिका पद सं. १४०)
भावार्थ - वे अभागे मनुष्य संसारमें नरकरूप होकर जी रहे हैं, जो जन्म-मरणरूप भवका भंजन करनेवाले श्रीभगवान्के चरणोंसे विमुख हैं। उनकी रुचि रात-दिन पापोंमें ही लगी रहती है। उनका मन अशुद्ध रहता है। उन दुष्टोंकी बुद्धि मलिन रहती है और वे वेदोक्त मार्गको छोड़े हुए हैं।
उनका जीवन तो नरक रूप है, चाहे वे जगत्में समृद्ध हों।
बड़भागी वे हैं, जिनका भगवत्-चरणोंमें अनुराग है। तो क्या वह विषयोंसे प्रेम करता है ? प्रेम क्या, वह तो इनका वमन करता है- तजत वमन इव जन बड़भागी ।
उलटी होनेसे उधरसे आँख फिरा लेते हैं, इसी प्रकार वह विषयोंसे आँख हटा लेता है। भजनकी कमी मनमें चुभती रहे, यह साधकके लिये बड़ी सहायताकी चीज है।
हमसे किसीने यह कहा कि- 'हम तो भजनके लिये रोते हैं, कि हमसे भजन नहीं बनता।'
मैंने कहा- 'तुम्हारे चाह नहीं है।'
उन्होंने कहा- 'भगवान् तो अन्तर्यामी हैं।'
पर चाह होती तो बनता ही और चाह होती ही। अपनी नालायकी की सीमा नहीं है और भगवान्की कृपाकी सीमा नहीं है। हमें अपने नालायकीका अनुभव हो। भगवान् कृपा करेंगे ही- भगवान्की कृपापर विश्वास। अपनेमें कमी ही कमी देखता रहे। यह मनमें नहीं आवे कि मुझसे भजन बनता है।
श्रीराधाजीने कहा कि- भगवान्के नामका रस क्या लें ? क़रोड़ों जीभ होती तो मजा आता !'
इस प्रकार अपने भजनका अभाव देखना, पल-पलमें अभाव देखकर दुःखी बनना- यह भजनको बढ़ाता है। भजनके अभावमें बड़ी पीड़ा होनी चाहिये- नारदस्तु तदर्पिताखिलाचारता तद्विस्मरणे परमव्याकुलतेति । (नारद भक्ति सूत्र १९)
अर्थात् - देवर्षि नारद कहते हैं कि- हमारे मतमें अपने सब कर्मोंको भगवान्के अर्पण करना और भगवान्का थोड़ा-सा भी विस्मरण होनेमें परम व्याकुल होना ही भक्ति है।
अव्यावृत (बिना रुकावट, निरन्तर) भजन होता है, किन्तु थोड़ी-सी भूल हो गई तो दम घुटने लगता है। भजनमें अलम् (पूर्णता) बुद्धि होनेसे भजन रुक जाता है।
१. भजनकी ही मनमें चाह रहे; और सारी चाहोंको मिटा दे।
२. अपनी जानमें भजनकी पूरी चेष्टा करे।
३. भजनमें सन्तोष न करे। अन्य सब जगह तो अति वर्जित है, पर यहाँ पर अति नहीं होती।
४. चौथी बात यह माने कि भजन जो कुछ बनता है- भगवान्की कृपासे बनता है।
५. साधन मुझे तार देगा- यह बात नहीं, मुझे भगवान् तारेंगे। भगवान्की कृपाका अनुभव करे। भगवान्की कृपापर विश्वास करे।
ये भाव मुझे एक सज्जनसे प्राप्त हुए थे, मैंने आपके सामने रख दिये। इनसे लाभ उठाना चाहिये।
दूसरोंको देखनेसे लाभ नहीं होगा, हमें वैसा बनना चाहिये। जीवन अमूल्य है, वह जा रहा है। बूढ़े आदमी तो कहते हैं कि- हमारा दिन आ गया (यानी मौत नजदीक आ गई), किन्तु जो जवान हैं, उनका दिन नहीं आया- यह कौन जानता है ? हम मौतसे डरें नहीं, भगवान्का स्मरण हो, फिर वह मौत मौतको भी मारनेवाली है। हमें यह जीवन प्राप्त है। हमारी मौत चाहे अभी हो, एक घड़ी बाद हो, यदि हमारे निरन्तर भगवान्का स्मरण हो तो फिर मौत हमें मार नहीं सकेगी, मौत आकर खुद मर जायगी। कृत्या अम्बरीषको मारने आई थी, किन्तु खुद मर गई। भक्तोंके सामने मौत मरनेको आती है। इस तरहकी मौत आवे तो आवे, यह सौभाग्य हमें प्राप्त है।
मानव जीवन प्राप्त करके रात-दिन हमारे लिये सत्संगका सौभाग्य प्राप्त है- इससे लाभ उठाना चाहिये। लाभ यही कि जितने श्वास बाकी हैं, निश्चय कर लें कि इन श्वासोंमें भगवान्के भजनके सिवाय कोई काम न हो। काम हो तो भगवान्के भजनके लिये-
हिय फाटहुँ फूटहुँ नयन जरउ सो तन केहि काम ।
द्रवहिं स्त्रवहिं पुलकइ नहीं तुलसी सुमिरत राम ।।
(दोहावली दोहा सं. ४१)
भावार्थ - तुलसीदासजी कहते हैं कि श्रीरामका स्मरण करके जो हृदय पिघल नहीं जाते वे हृदय फट जायँ, जिन आँखोंसे प्रेमके आँसू नहीं बहते वे आँखें फूट जायँ और जिस शरीरमें रोमांच नहीं होता वह जल जाय, (अर्थात् ऐसे निकम्मे अंग किस कामके ?)
उस जीवनमें आग लग जाय, जो जीवन भगवान्में न लग गया हो। जीवन यदि भगवान्के लिये है तो वह जीवन है, नहीं तो वह मुर्दा जीवन है। हमें ऐसा सौभाग्य प्राप्त है, हमें उससे लाभ उठाना चाहिये। मैं उपदेश नहीं करता, मैं अपने लिये कहता हूँ। आपलोग आशीर्वाद दीजिये कि भजन होने लगे। सचमुच, भजन होता ही नहीं। यह मैंने तो उन संतके वचनोंका अनुवाद कर दिया है।
बड़ी सुन्दर बात है- भगवान्की कृपाका पार नहीं है और मेरी अयोग्यताका पार नहीं है। भजन तो मुझसे बनता ही नहीं। भजनसे जी ऊबे कैसे ?
भगवान्की कृपा पद-पद पर होते हुए भी मुझ कृतघ्नसे भजन नहीं होता। भजन मुझसे बनता रहे, मैं भजनका कंगाल हूँ, वह कंगाली दूर हो।
पर भगवान्ने कृपा की है; यह कृपा भी भगवान् ही करेंगे।
ऐसा सत्संगका मौका ! सब लोग अच्छा समझते हैं, यह उनकी सद्भावना वास्तवमें तो उनकी भूल है। मैं अच्छा हूँ नहीं, किन्तु उनकी सद्भावना तो लाभदायक है ही।
नारायण नारायण नारायण श्रीमन्नारायण नारायण नारायण...