भगवान् सदा हमारे साथ हैं, यह दृढ़ विश्वास हो जाय तो भगवत्स्मृति स्वतः कायम रहे
ज्वालाप्रसादजी का प्रश्न- क्या किया जाय कि दोनों काम होते रहें- सांसारिक काम भी होता रहे और भगवत्-स्मरण भी ?
उत्तर- बात ठीक है। यह बात हो सकती है। होनेसे बड़ा लाभ है। तुलसीदासजी आदि कहते हैं। असम्भव होती तो वे लोग कहते ही क्यों ? यह बात अभ्याससे हो सकती है। मैं बालक था, तब गाँवमें दो नट आये, बाँस गाडे, उसपर मोटा रस्सा बाँधा। नटनीने सिरपर दो घड़े रखे, गलेमें ढोल लटकाया और उसे बजाती है, मुँहसे गाती है, पैरमें सींग बँधा हुआ है, रस्सेपर चलती है, सींगको रस्सेपर रखती है, सिरपर मटकी है। प्रधान लक्ष्य उसका अपने पैरोंकी तरफ है। बात क्या है ? – अभ्यास; वह भी पैसोंके लिये। वही अभ्यास ईश्वरके लिये हो और तत्परतासे अभ्यास करे तो हो ही सकता है। उसकी मुख्य वृत्ति चरणोंमें है, उसी प्रकार हमें मुख्य वृत्ति भगवान्में रखनी चाहिये। गौणी-वृत्तिसे संसारका काम करना चाहिये।
हम अपने हृदयमें ऐसा समझें कि भगवान् गुप्त रूपसे हमारे साथ हैं। मनसे हम भगवान्का स्वरूप देखते रहें। बुद्धिका निश्चय रहे कि भगवान् हमारे साथ हैं। मनसे मनन करें कि भगवान् हमारे साथ हैं। कुछ भी खाते हैं तो वे साथमें खाते हैं; चलते हैं तो साथमें चलते हैं- यह हमारा भाव दृढ़ हो जाय तो भगवान्की स्मृति हर वक्त कायम रहे और शरीरसे काम होता रहे। हमारा मन कुछ-न-कुछ चिन्तन करता ही रहता है, उसके जिम्मे कर दिया कि तुम भगवान्का मनन करो।
हम संसारका काम करते हैं- शरीरसे तो काम करते हैं, मनसे दूसरा ही मनन करते हैं। हमें दूसरा परिवर्तन कुछ नहीं करना है। बस ! इतना ही करना है कि मनसे जो दूसरा मनन होता है, उसकी जगह भगवान्का मनन करने लगे। शरीरसे तो क्रिया होती ही है। भगवान्को साथमें समझें। संसारके काममें भूल भले ही हो जाय, पर भगवान्की स्मृतिमें भूल न हो। जो भगवान्की शरण हो जाता है, भगवान् उसे सब प्रकारसे सँभाल लेते हैं। इसलिये यदि संसारके काममें भूल भी हुई तो भगवान् उसे सँभाल लेंगे।
इस प्रकारके कई उदाहरण मिलते हैं- एक सिपाही खजानेपर पहरा देनेका काम करता था। एक रोज उसे बुखार आ गया, वह पहरा देने नहीं जा सका। विचार करता रहा कि क्या करूँ, नौकरी खारिज हो जायगी ? दूसरे दिन वह दरखास्त (अर्जी) लेकर गया और कहा कि 'कल बुखार आ गया इसलिये नहीं आ सका।' हाकिमने कहा- 'तुम तो कल रातको पहरे पर थे, तुम्हारेसे हमारी बात हुई थी। ठीक तुम ही ड्यूटी पर थे।' सिपाहीने कहा- 'हुजूर ! यह तो कोई दूसरा ही ड्यूटी दे गया। सम्भव है- भगवान् ही पहरा दे गये। आपके अहोभाग्य हैं ! मैं तो अब इस्तीफा देता हूँ। जो पहरा दे गया है, वही योगक्षेमकी परवाह करेगा।' अन्तमें वे बड़े महात्मा हो गये। भगवान्ने कहा भी है-
अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जनाः पर्युपासते ।
तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम् ॥
(गीता ९/२२)
अर्थात् - जो अनन्यभावसे मेरेमें स्थित हुए भक्तजन मुझ परमेश्वरको निरन्तर चिन्तन करते हुए निष्कामभावसे भजते हैं, उन नित्य एकीभावसे मेरेमें स्थितिवाले पुरुषोंका योगक्षेम मैं स्वयं प्राप्त कर देता हूँ।
भगवान् कहते हैं जैसे पशु भार वहन करता है, वैसे ही मैं अपने अनन्य भक्तका सब भार वहन करता हूँ। अप्राप्तकी प्राप्तिका नाम योग और प्राप्तकी रक्षाका नाम क्षेम है। लौकिक-पारलौकिक सब वे ही वहन करते हैं। क्या यह भगवान्का वचन मिथ्या है ? यदि नहीं, सच्चा है तो हमें चिन्ता क्यों करनी चाहिये ? प्रथम तो अभ्याससे काम होता ही रहेगा। कभी कमी आ गई तो उससे कोई हानि नहीं है। तीसरी बात है- हमें भगवान्पर विश्वास करना चाहिये कि भगवान् निभायेंगे। हमें तो मुख्य रूपसे भगवान्का चिन्तन करना चाहिये।
दूसरी बात बताई जाती है- जो वस्तु हमारे सामने पड़े, सबमें भगवान्का दर्शन करे। यह सिद्धान्त समझ लें कि भगवान् सर्वत्र व्यापक हैं। हमारा व्यवहार भी होता रहे और जिससे व्यवहार कर रहे हैं, उसे भगवान् भी मानते रहें।
प्रश्न- 'दोनों बातें कैसे होंगी ? हमारा लड़का है, वह हमें प्रणाम करे तो हम उसे जब भगवान्के रूपमें देखेंगे तो हम उससे प्रणाम किस प्रकार करवावेंगे ? कुत्ते, गधेमें जब भगवान् देखेंगे तो प्रणाम करेंगे तो लोग हमें पागल कहेंगे ?'
उत्तर- 'हाँ, ठीक है। लोग पागल कहें तो कहने दो।'
आप कहें कि 'हमें तो दोनों बातें रखनी हैं। व्यवहार भी ठीक रहना चाहिये ?'
इसके लिये नाटकका उदाहरण बहुत ठीक है।
जैसे नाटकमें पुत्र राजा बनता है, पिता सिपाही बनता है तो नाटकमें दिखाने के लिये वह (राजा बना हुआ) पुत्र, (सिपाही बने हुए) अपने पिताको आदेश देता है, डाँटता है, फटकारता है, परन्तु मनमें अपने पिताके प्रति जो आदरभाव है, उसमें कोई व्यवधान नहीं आता है। नाटकमें तो व्यवहार हम स्वाँगके अनुसार ही करते हैं, लेकिन भीतरमें हम समझते हैं कि यह हमारा लड़का है या हमारा पिता है। इसी प्रकार व्यवहार तो नाटककी ज्यों करें, परन्तु भीतरकी वृत्ति यह रहे कि 'सबमें परमात्मा हैं'- यह हर समय कायम रखें। कुत्तेके साथ वैसे व्यवहार करना चाहिये जैसा कि उसके साथ करना उचित है, गौके साथ गौ जैसा और आदमीके साथ आदमी जैसा व्यवहार करें। भीतरमें वही भाव रखें कि- वासुदेवः सर्वमिति स महात्मा सुदुर्लभः। (गीता ७/१९) (अर्थात्- सब कुछ वासुदेव ही है, इस प्रकार मेरेको भजता है, वह महात्मा अति दुर्लभ है।)
भगवान् कहते हैं- मत्तः परतरं नान्यत्किञ्चिदस्ति धनञ्जय । (गीता ७/७) (अर्थात्- हे धनञ्जय ! मेरेसे सिवाय किंचित्-मात्र भी दूसरी वस्तु नहीं है।)
एक भगवान्का भक्त था। वह रोज भगवान्की पूजा किया करता था। बगीचेसे पुष्प लाता, बड़े प्रेमसे पूजा करता। एक दिन भगवान्की पूर्ण दया हो गई, उसे सर्वत्र भगवान् दीखने लगे। प्रात:काल उठा, पूजाके लिये पुष्प लाने गया, तुलसीका पत्ता तोड़ने लगा तो उसे उसमें भगवान् दीखे, पत्ते-पत्तेमें भगवान् दीखे। वृक्ष भी भगवान् है, तुलसीदल भी भगवान् हैं, भगवान्को कैसे तोड़ें ? पुष्प लेने आगे बढ़ा तो गुलाबके वृक्षमें भगवान्, पुष्पमें भगवान्, जहाँ जावे, वहाँ भगवान्। उसने सोचा कि- 'यह तो भगवान् पर चढ़ा हुआ ही है। इसको यहाँसे तोड़कर भगवान्पर क्यों चढ़ाऊँ ? चढ़ी हुई सामग्रीको यहाँसे ले जाकर क्या चढ़ाऊँ ?' जल देखा तो जलमें भी भगवान्, बाल्टी भगवान्। आखिर गुरुजीसे कहा- 'क्या करूँ ? मेरी पूजा तो बंद हो गयी ?'
गुरुजीने कहा- 'तुम्हारी पूजा सफल हो गई।'
जिस प्रकार गोपियाँ सर्वत्र भगवान्को देखती थी, इसी प्रकार हमें सर्वत्र भगवान्का दर्शन करना चाहिये। गोपियोंके लिये सारा दृश्य आईना था। आईनामें जैसे हमें हमारा मुख दिखता, इसी प्रकार उन्हें सर्वत्र भगवान्का मुख दिखता था। जैसे काँचका महल हो तो उसमें हमें सर्वत्र हमारा मुख ही दिखेगा, इसी प्रकार सबमें भगवान्का रूप देखना चाहिये। गोपियाँ इसी तरह सबमें भगवान्को देखती थी। यह तो भेद उपासनाकी बात हैं।
अभेद उपासनावाले महात्मा सर्वत्र आकाशकी ज्यों भगवान्को देखते हैं। वास्तवमें एक सच्चिदानन्द परमात्माके सिवाय कुछ है ही नहीं। वह बुद्धिसे यह निश्चय रखते हैं कि केवल एक परमात्मा हैं। दिखनेवाले पदार्थ मृगतृष्णाके जलकी ज्यों हैं।
साधारणतया सब आदमी भक्तिमार्गके अधिकारी ही होते हैं।
जो पुरुष अपने शरीरको पुजवाता है या यह चाहता है कि मरनेके बाद मेरे फोटो आदिकी पूजा की जाय, वह महामूर्ख है। वह बड़े अन्धकारमें है।
मूल प्रश्न था- भगवान्की स्मृति बराबर कैसे रहे ? पुजारी है, मन्दिरमें भगवान्की पूजा करता है, एक हाथसे आरती करता है, एक हाथसे घन्टी बजाता है, दोनों काम साथ करता है, आप नहीं कर सकेंगे। क्या बात है ? अभ्यासकी बात है। इसी प्रकार अभ्यास कर लेनेपर दोनों काम (सांसारिक कार्य एवं निरन्तर भगवत्स्मृति) होना भी मामूली बात है।
हम आपलोगोंको व्याख्यान दे रहे हैं- परमात्मा, जो सब जगह परिपूर्ण हैं, उसकी तरफ भी लक्ष्य रखनेकी कोशिश कर रहे हैं फिर भी हमारे व्याख्यान देनेमें कोई रुकावट नहीं आती। हम यह तो नहीं कहते कि हमारे निरन्तर भगवान्की स्मृति रहती है, पर हो तो सकती ही है। यदि आप कहें- 'हमारे तो नहीं होती' तो यही कहा जायगा कि आप कोशिश नहीं करते। कोशिश करेंगे तो क्यों नहीं होगी ? जरूर होगी।'
नारायण नारायण नारायण श्रीमन्नारायण नारायण नारायण...