भगवान् कैसे मिलें- यह लालसा बढ़ावें
प्रश्न- भगवान्को कैसे प्राप्त किया जाय ? साधनकी सफलता कैसे हो ?
उत्तर- पुस्तकोंमें लिखी हुई बातें कही जाया करती हैं।
प्रश्न- अनुभवकी बात कहिये ?
उत्तर- प्राप्तिका सबसे बढ़कर साधन तो यही है कि भगवत्प्राप्ति कैसे हो- यह जिज्ञासा, यह इच्छा जाग्रत् रहनी चाहिये। भगवान् कैसे मिलें - यह तीव्र इच्छा हर समय जाग्रत् रहनी चाहिये। भगवत्प्राप्तिका उपाय तो इस तीव्र इच्छासे अपने-आप मिल जाय। बिना भगवान्के मिले काम चलता नहीं, कहीं भी शान्ति नहीं मिलती, इसलिये भगवान्की आवश्यकता है। बिना भगवान्के दूसरी चीजसे काम चलता है नहीं। संसारके पदार्थ तो बहुत समयसे हमारे पास रहे हैं, ये तो उलटे बाधक हैं। भगवत्प्राप्तिकी तीव्र लालसा होनी चाहिये। असली लगन वही है कि-
लगन लगन सब ही कहें लगन कहावै सोय ।
नारायण जा लगन मैं तन मन दीजे खोय ॥
जब यह बात समझमें आ जाती है कि भगवान्के समान कोई चीज नहीं है तो उसको पानेकी तीव्र लालसा जाग्रत् हो उठती है। रुपये तो तीव्र इच्छा होनेपर भी नहीं मिलते, क्योंकि रुपये तो जड़ हैं। आपमें तो उनको पानेकी इच्छा है, परन्तु हुआ सदा ही निरन्तर मेरेको स्मरण करता है, उस निरन्तर मेरेमें युक्त हुए योगीके लिये मैं सुलभ हूँ, अर्थात् सहज ही प्राप्त हो जाता हूँ।
नित्य-निरन्तर (सदा) बिना तार टूटे भजन करनेवालेको सुलभ है, विलम्बका काम नहीं। भीतरकी लालसासे ही ऐसी स्मृति होती है, रुचि तीव्र होनी चाहिये। रुचिसे लालसा, उससे लगन और लगनसे भगवत्प्राप्ति हो जाती है। कोई भी मिले, उससे पूछे कि भगवान् कैसे मिलें ? जब तक न मिलें, तब तक यह लालसा उत्तरोत्तर बढ़ती ही जाय।
एक भक्त थे, उनका यही हाल था- हर बादलको देखकर चातककी तरह पुकारना। कैसे मिलें- यही लगन लगी रहती थी। एक साधुने कहा- 'भगवान्से मिलना हो तो ग्रीष्मकालमें पंचाग्नि तपो।' उसने शुरु कर दिया।
दूसरा साधु मिला, उससे फिर प्रश्न किया- 'भगवान् कैसे मिलें ?' उसने कहा- 'उपवास करो।' वह उपवास भी करने लगा।
एक तीसरे साधुने कहा- 'नाम-जप किया करो।' वह यह काम भी करने लगा।
चौथेने कहा- 'जपके बाद ध्यान भी करना चाहिये।' वह बोला- 'ध्यान होता नहीं।' तब साधुने कहा- 'प्राणायामसे ध्यान होता है।' तो उसने प्राणायाम भी शुरु कर दिया।
एक और सज्जन मिले, उन्होंने कहा- 'इतना सब करते हो, भगवान् नहीं मिलेंगे तो क्या करोगे ?'
वह बोला- 'जीवन भर खोज करता रहूँगा। कहीं-न-कहीं और कभी-न-कभी तो अवश्य मिलेंगे।' बस, उसी सज्जनमेंसे भगवान् प्रकट हो गये। वे भगवान् ही थे, परीक्षा करने आये थे।
हमलोगोंको भी यह जोरदार निश्चय रखना चाहिये। भगवान्से मिलनेकी वास्तविक इच्छा होगी तो निराशा तो कभी नहीं होगी। जो भगवान्के भरोसेपर रहता है, उनपर निर्भर रहता है, उसे भगवान् अवश्य मिलते हैं। विलम्ब तो हमारी कमीकी पूर्तिके लिये करते हैं। हमारी लालसाको और भी तीव्र करनेके लिये ही भगवान् हमें तरसाते रहते हैं।
हमें अपनी लालसाको हर समय बढ़ाते रहनेके लिये सत्संग, सत्पुरुषोंका संग करते रहना चाहिये। लालसाका वृक्ष कभी नष्ट नहीं होता, उस वृक्षकी रक्षा भगवान् करते हैं। देखनेमें न भी आवे तो भी विश्वास करना चाहिये।
भजन-ध्यान भी स्थायी पूँजी है। भगवान् कहते हैं- न मे भक्तः प्रणश्यति (गीता ९/३१); योगक्षेमं वहाम्यहम् (गीता ९/२२)।
जब भगवान् रक्षा करते हैं, तब किसकी सामर्थ्य है, जो उनके भक्तकी पूँजीका नाश कर सके।
भगवान्की ओर देखकर यह विश्वास करे कि वे अवश्य मिलेंगे। भरतकी तरह निश्चय रखे- 'प्रभो ! आपकी तरफ देखकर मुझे विश्वास होता है कि आप मुझे अवश्य मिलेंगे-
जन अवगुन प्रभु मान न काऊ । दीन बंधु अति मृदुल सुभाऊ ॥
(रा.च.मा. ७/१/६)
अर्थ- प्रभु सेवकका अवगुण कभी नहीं मानते। वे दीनबन्धु हैं और अत्यन्त ही कोमल स्वभावके हैं।
भगवान् अगर विलम्ब करते हैं तो हमारे हितके लिये ही करते हैं। हमें घबराना नहीं चाहिये, लालसा बढ़ाते ही रहना चाहिये।
दूसरे प्रश्नका उत्तर- 'सफलता कैसे मिले ?'
- भगवान्की और महापुरुषोंकी कृपासे।
'वह कृपा प्राप्त कैसे हो ?'
- वह तो प्राप्त ही है, हमलोग मानते नहीं। इसी भूलको हटाना है, यही करना है। उस प्रभुकी और महात्माओंकी तो पूर्ण दया है।
'प्रतीत क्यों नहीं होती ?'
- हम उस दयाको मानते नहीं, इसलिये प्रतीत नहीं होती। हम प्रभुकी शरण हो जायँ तो हमपर वह दया चमक उठती है, जैसे- शीशे पर की धूल हटा दी जाय तो सूर्यका प्रकाश उसपर चमकने लग जाता है।
माननेसे भी दया प्रतीत होने लगती है। एकान्तमें बैठकर गद्गद् भावसे भगवान्से प्रार्थना करनी चाहिये। दिल खोलकर रोना चाहिये। ऐसा न बने तो वचनमात्रसे ही प्रार्थना करो- 'हे नाथ ! हे गोविन्द ! हे वासुदेव ! हे हरि ! त्राहि माम् ! त्राहि माम् !'
बिना भावके भी प्रार्थना करनेसे आगे जाकर भाव बनने लगेगा।
हमारी अज्ञता, संशय, सारे दोष प्रार्थनासे हट जायँगे। श्रद्धाकी आवश्यकता है। श्रद्धा भी प्रार्थनासे मिल जाती है।
जब तक तीव्र इच्छा न हो, तब तक सत्संग करते ही रहो। सत्संग न मिले तो सत्पुरुषोंके वचनोंका मनन, विचार करना चाहिये। सत्संगकी लालसा होगी तो महापुरुष तो संसारमें हैं ही। भगवान् उन्हें भिजवा देंगे या खुद महापुरुष बनकर आ जायँगे, लालसा होनी चाहिये।
भगवान्से जो मिलना चाहता हो, उसे भगवान् न मिलें, यह युक्तिविरुद्ध बात है। हमारेमें चाह होनेसे भगवान्में चाह उत्पन्न होती है और उनकी चाहको कौन रोक सकता है ? इसमें विद्या, बुद्धि, धन- किसी चीजकी जरूरत नहीं है, केवल चाहकी जरूरत है।
भगवान् जो विलम्ब करते हैं, वह हमारे हितके लिये ही करते हैं। अधिक उत्कट इच्छा होनेपर मिलनेमें ज्यादा आनन्द होता है, जैसे भूखेको भोजन और प्यासेको जल मिलनेपर उन्हें ज्यादा आनन्द होता है। जो भगवान्पर बेड़ा डाल देता है कि हमें तो भगवान्से ही मिलना है, चाहे वे आजीवन न मिलें, हमको और दूसरा काम करना ही क्या है ? उनकी जब इच्छा हो, तब मिलें, हमें तो बस भजन-ध्यान करते ही रहना है।
एक साधुकी बात- नारदजीके हाथ भगवान्को सन्देश भेजा, पूछा- 'मुझे भगवान् कब मिलेंगे ?'
भगवान्ने कहा- 'वह तो शर्त करता है, पूछता है- भजन-ध्यान करता हूँ, कब मिलेंगे ?'
भगवान्ने कहा- 'जैसा भजन-ध्यान करता है, वैसा, उस पीपलके पेड़के जितने पत्ते हैं, उतने वर्षों तक करेगा, तब मिलेंगे।' नारदजीने जाकर उससे कह दिया।
वह साधु तो इस बातको सुनकर गद्गद् हो गया- 'मुझको, मेरे-जैसेको भगवान् मिलेंगे ! मिलेंगे ! मिलेंगे !' करते-करते नाचने लगा। बस, उसी क्षण भगवान् वहाँ प्रकट हो गये। नारदजी बोले- 'भगवन् ! आप आ गये !'
भगवान् बोले- 'इसका हाल तो देखो ! यह इस प्रकारकी बात सुनकर भी निराश नहीं हुआ, उलटा प्रेममें मग्न हो गया। शर्त छूट गई, चाहे जब मिलें, मिलेंगे तो सही, बस, आनन्दके मारे विभोर हो गया। अब मैं कैसे देर करता ?'
वही बात- कि लालसा बढ़ावें। आपका प्रश्न ही उत्तर है। भगवान् कैसे मिलें ? – यही करते रहो।
नारायण नारायण नारायण श्रीमन्नारायण नारायण नारायण...