यदि हम ईश्वर की आज्ञा का आदर करें तो हमारे उद्धार में ज्यादा देर नहीं होगी
यदि हम ईश्वर की आज्ञा का आदर करें और अवहेलना नहीं करें तो हमारे उद्धार में ज्यादा देर नहीं होगी। जीवन बनाने में कठिनाई है। कठिनाई इसलिए हो रही है कि हम लोग संसार को ज्यादा आदर देते हैं। भगवान् भी कहते हैं-
राजविद्या राजगुह्यं पवित्रमिदमुत्तमम् ।
प्रत्यक्षावगमं धर्म्यं सुसुखं कर्तुमव्ययम् ॥
(गीता १/२)
अर्थात्- यह ज्ञान सब विद्याओं का राजा तथा सब गोपनीयों का भी राजा एवं अति पवित्र, उत्तम, प्रत्यक्ष फल वाला और धर्म युक्त है, साधन करने को बड़ा सुगम और अविनाशी है।
भगवान् कहते हैं- 'यह बात बड़ी सुगम है, करने में बिल्कुल परिश्रम नहीं है, किन्तु मेरे में श्रद्धा नहीं होने से मेरे वचनों में आदर नहीं होता है, क्योंकि श्रद्धा नहीं है' (गीता ९/२-३)। अनादर तो अलग बात है, वह तो पाप है-
अवजानन्ति मां मूढा मानुषीं तनुमाश्रितम् ।
परं भावमजानन्तो मम भूतमहेश्वरम् ॥
(गीता ९/११)
अर्थात्- मेरे परमभाव को न जानने वाले मूढ़ लोग मनुष्य का शरीर धारण करने वाले मुझ सम्पूर्ण भूतों के महान् ईश्वर को तुच्छ समझते हैं (अर्थात् अपनी योगमाया से संसार के उद्धार के लिए मनुष्य रूप में विचरते हुए मुझ परमेश्वर को साधारण मनुष्य मानते हैं)।
'ईश्वरों का ईश्वर' - ऐसे भाव को जानते नहीं, वे अवज्ञा करते हैं। मनुष्य के रूप में अवतार लेने वाला मैं; वे मेरे प्रभाव को जानते नहीं हैं।
अधिकारी पुरुष संसार के कल्याण के लिए होता है। उसकी तो सामर्थ्य नहीं थी, किन्तु भगवान् ने पॉवर दे दिया। उस (अधिकारी पुरुष) की बात मानें, तो भी वही बात है। एक व्यक्ति भगवान् का पॉवर लेकर तो नहीं आया, किन्तु वह अपना यह सिद्धान्त रखता है कि दुनियाँ का उद्धार हो जावे। जो ऐसा भाव रखता है, उसके उद्धार की तो बात ही क्या है !
एक आदमी बीमार है, (भगवन्नाम या गीता आदि) सुनना चाहता है, उसे दस आदमी मिलकर सुनाते हैं, वह सुनते-सुनते मर गया, तो उन (सुनाने वाले) सभी को लाभ होगा। और लाभ थोड़ा नहीं होगा, पूरा लाभ होगा, क्योंकि भगवान् के कमी नहीं है। (किसी व्यक्ति के) मरने वाली बीमारी होवे तो (उसे भगवन्नाम, गीता आदि सुनाने के लिए) हजार काम छोड़कर चले जाना। अन्तकाल के समय में मरणासन्नका क्षणमात्र में उद्धार हो जाता है। ऐसी चेष्टा करने वाला और शरीर से सेवा करने वाला - जबरदस्ती भगवान् से पॉवर ले लेता है। ऐसा कोई काम होता है तो सेवा करने वालों में जैसे- शिवकृष्णजी डागा हैं, उनके जिम्मे लगाया जाता है या पहले लच्छीरामजी मुरोदिया, बद्रीदासजी लोहिया थे, उनके जिम्मे लगाया जाता था। लच्छीरामजी मुरोदिया की स्त्री के बालक पैदा होने वाला था, घर पर डॉक्टर को बुलाया हुआ था; इतने में एक आदमी आया, बोला- 'अमुक आदमी मर गया है, उसको उठाने वाला कोई नहीं है।' वे (लच्छीरामजी मुरोदिया) उसी वक्त उसके साथ चले गए, उस व्यक्ति का काम हो गया। दो नम्बर पर लच्छीरामजी चूड़ीवाला- अपने रुपये लगा कर सेवा करने वाले थे।
इस संसार में जिनका यह भाव है कि अपने कल्याण की परवाह नहीं, दूसरे का कल्याण होना चाहिए, वे तो जबरदस्ती भगवान् से अधिकार छीन लेते हैं; भगवान् ने उन्हें अधिकार देकर भेजा नहीं। भगवान् कभी भेजें तो ऐसे ही आदमी को भेजेंगे। ऐसे आदमी की बात का आदर करो। 'उस महात्मा की सेवा करो, हवा करो, पगचम्पी करो' मैं इस बात का पक्षपाती नहीं हूँ, बल्कि विरोधी हूँ। मैं तो पत्नी से भी पैर नहीं दबवाता हूँ। मैं ही नहीं दबवाता हूँ तो फिर महात्मा किस तरह से दबवाएँगे ?
'कोई व्यक्ति महात्मा नहीं है' यह परीक्षा तो तुरन्त कर लेते हैं, किन्तु 'कोई व्यक्ति महात्मा है' कठिन है। - यह परीक्षा होनी
भगवान् के संकेत-मात्र से अर्जुन नाचते थे और भगवान् के मित्र होकर परमधाम में रहे। अर्जुन ने भगवान् की आज्ञा मानकर ऐसे-ऐसे गुरुजनों (भीष्म पितामह, द्रोणाचार्य आदि) को मार डाला। हमारी तो यह दशा है कि हमारे मन के प्रतिकूल ऑर्डर दे दें तो हम शायद ही मानें। आपकी इच्छा में इच्छा मिला दें तो शत्रु भी हमारी बात मान लेगा। प्रतिकूलता होने पर भी हमारी बात प्रसन्न मन से मान ली जाए- वह लाभदायक है।
उस प्रसन्नता में भी दर्जा (श्रेणी) है। मेरी जगह कोई महात्मा हो और उसकी बात आप मानो; तब प्रसन्नता इतनी बढ़ती चली जावे कि आपको होश नहीं रहे, तो भगवान् प्रकट हो जावें ! एक आज्ञा की ही बात है; दूसरी बात ही नहीं। प्रहलाद को उनके गुरुपुत्र मारने आए; मारने के लिए उन्होंने कृत्या पैदा की। तब सुदर्शन चक्र ने पहले कृत्या का और फिर गुरु-पुत्रों का विनाश कर दिया। इससे प्रह्लाद का चित्त खिन्न हो गया। वह बोला- 'यदि मेरा इन गुरु-पुत्रों में द्वेषभाव न हो तो ये जीवित हो जायँ।' यह बात सुनकर उन गुरु-पुत्रों पर कितना असर पड़ा !
प्रह्लाद को खम्भे से बाँधकर हिरण्यकशिपु बोला- 'बता ! तेरा भगवान् कहाँ है ?' क्या ऐसे समय अपना धीरज रह सकता है ? प्रह्लाद के लिए यह परिस्थिति कितनी विपरीत है ! उसी समय भगवान् प्रकट हो गए। प्रह्लाद समझता था कि जो कुछ होता है, वह भगवान् के अनुकूल (अर्थात् भगवान् की इच्छा के अनुसार) होता है। उन्हें आग भी नहीं जला सकी !
सत्संग के अमूल्य वचन-
हर समय प्रभु की कृपा समझे । कृपा समझने में सहायक सत्संग, स्वाध्याय यानी प्रभु विषयक बातों का श्रवण, मनन, पठन, आलोचना (परस्पर विचार-विमर्श) करे। प्रभु-विषयक बातों में ११ बातें बहुत मनन करने योग्य हैं- नाम, रूप, लीला, धाम, तत्त्व, रहस्य, गुण, प्रभाव, प्रेम, शान्ति और आनन्द।