थोड़े आलस्य को भी ज्यादा मान लेवे तो उन्नति जल्दी होवे
उन्नति की बात - (१) पद का अभिमान, श्रेष्ठता का अभिमान, आचरण का अभिमान, ज्ञान का अभिमान- ये अभिमान महान् हानिकारक हैं और परमात्मा की प्राप्ति में महान् बाधक हैं- मान, बड़ाई, ईर्ष्या, दुर्लभ तजना एह ॥
व्यक्तिगत अभिमान (अहंकार) डुबाने वाला है।
अभिमान कैसे हटे - भक्तिमार्ग में- 'मैं सेवक सचराचर रूप स्वामि भगवन्त' (रा.च.मा. किष्किन्धा. दोहा ३)। सेवक होने पर पीछे यह समझे कि मैं तो धूल भी नहीं हूँ। पीछे- वासुदेवः सर्वमिति स महात्मा सुदुर्लभः (गीता ७/१९) - 'सब कुछ वासुदेव ही है- इस प्रकार मुझको भजता है, वह महात्मा अत्यन्त दुर्लभ है।'
ज्ञान के मार्ग में- समष्टि चेतन में व्यक्ति को हवन कर दे- ब्रह्माग्नावपरे यज्ञं यज्ञेनैवोपजुह्वति (गीता ४/२५) - 'अन्य योगीजन परब्रह्म परमात्मारूप अग्नि में अभेद-दर्शनरूप यज्ञ के द्वारा ही आत्मरूप यज्ञ का हवन किया करते हैं।'
प्रेम का मार्ग- साधन, साधक, साध्य- तीनों एक हो जाते हैं।
(२) स्वार्थ का त्याग- निष्कामभाव से काम करना; कहीं भी स्वार्थ की गंध नहीं आ जावे। पब्लिक (संसार) भगवान् का स्वरूप है। हर प्रकार से सबकी सेवा करनी चाहिए। हरेक काम में तत्पर होवे, सेवा करे। सेवा का अभिमान नहीं आना चाहिए। उससे इतनी प्रसन्नता होवे कि उसकी सीमा नहीं- ध्यानात्कर्मफलत्यागस्त्यागाच्छान्तिरनन्तरम् (गीता १२/१२)। अपने मार्ग में जो भूल हो, उसका संशोधन करना चाहिए। भगवान् कहते हैं- स्वल्पमप्यस्य धर्मस्य त्रायते महतो भयात् (गीता २/४०)। रुपयों का त्याग इतना कठिन नहीं है। इससे थोड़ा कठिन शरीर के आराम का त्याग है। सूक्ष्मता से देखने से मालूम होगा कि आलस्य शरीर में खूब प्रवेश किया हुआ है।
थोड़े आलस्य को भी ज्यादा मान लेवे तो उन्नति जल्दी होवे। धर्म तो पंगु है, उसके पैर नहीं हैं। उसको यदि आपको चलाना है तो आप ही चलाओ। उसमें प्रीति होने पर तो चिन्ता भी देता है (यहाँ श्रद्धेय श्रीसेठजी का तात्पर्य यह लगता है कि धर्म में प्रीति होने पर यह चिन्ता भी होती है कि कदाचित् मुझ से कोई अधर्मयुक्त काम न हो जाय ) ।
रुपया उधार लेने के समय जो प्रसन्नता होती है, उससे ज्यादा प्रसन्नता वापस देते समय होनी चाहिए। जितना चित्त नाराज है, उतनी ही बेईमानी है।
गीता भवन में पहला अधिकार- कमरा बनवाने वाले का है।
दूसरा अधिकार- हमारा है।
तीसरा अधिकार- कमरा काम में लेने वाले का है, किन्तु तीसरा अधिकार ही प्रधान हो जाता है। जब उनसे जगह (कमरा वापस) लेने के लिए प्रार्थना की जाती है, तब यही कहा जाता है कि- 'यद्यपि वर्तमान में इस पर आपका अधिकार है, उसमें से थोड़ी जगह माँगते हैं।' न्याययुक्त धर्म के पालन में जो कष्ट सहन करना होता है, वह तप है।
हम माँगें, तब वह जगह वापस करे, यह २ नम्बर है। एक नम्बर वह है कि बिना माँगे ही- 'यात्री ज्यादा आ गए हैं; मेरे पास जगह ज्यादा है' - यह कहकर जगह वापस देवे। इतना करके भी अहंकार नहीं आने देवे। कंचन की अपेक्षा कामिनी, उसकी अपेक्षा मान, फिर बड़ाई, फिर ईर्ष्या- इनका त्याग उत्तरोत्तर कठिन है।
कर्मों की शुद्धि होने के साथ-साथ अपना अन्तःकरण शुद्ध हो जाता है। गीता में-
नेहाभिक्रमनाशोऽस्ति प्रत्यवायो न विद्यते ।
स्वल्पमप्यस्य धर्मस्य त्रायते महतो भयात् ॥
(गीता २/४० )
अर्थात्- इस कर्मयोगमें आरम्भका अर्थात् बीजका नाश नहीं है और उलटा फलरूप दोष भी नहीं है, बल्कि इस कर्मयोगरूप धर्म का थोड़ा-सा भी साधन जन्म-मृत्युरूप महान् भयसे रक्षा कर लेता है।
इसमें भाव की पूर्णता है, क्रिया की कमी की बात है। भाव का मूल्य बहुत ज्यादा है। भाव से क्रिया का मूल्य बदल जाता है। भाव ठीक होने पर थोड़ी-सी क्रिया भी मुक्तिदायक हो जाती है।
कर्मों में संशोधन करना चाहिए, फिर भगवत्प्राप्ति बहुत जल्दी हो सकती है।
ज्ञान के मार्ग में समझ प्रधान है, भक्ति में प्रेम प्रधान है, कर्म में निष्कामभाव प्रधान है। निष्कामभाव के साथ ही शान्ति मिल जायेगी।
ज्वालाप्रसादजी कानोडिया में निष्कामभाव से गीताप्रेस का काम करने का भाव था। उनका हमारे प्रति बहुत श्रद्धा, विश्वास था। हमारे मत में ही उनका मत था। स्वार्थ का त्याग, सेवा करवाने का त्याग अनुकरणीय था।
बद्रीदासजी लोहिया के- बर्ताव में विनय और प्रेम अनुकरणीय है।
लच्छीरामजी मुरोदिया के दूसरे के दुःख को देखकर पिघलना, दया का भाव अनुकरणीय है।
दत्तात्रेयजी ने इसी प्रकार से २४ गुरु बनाए थे। सभी गुण तो भगवान् में हैं, मनुष्यों में तो १-२ गुण ही होते हैं; वहाँ से उनको संग्रह कर लेना चाहिए।
सत्संग के अमूल्य वचन-
संसार में जो कुछ भी अनिच्छा, परेच्छा और दैवेच्छा से हो रहा है, वह सब भगवान् की मर्जी से हो रहा है। भगवान् की मर्जी, उनकी इच्छा से जो कुछ होता है, उससे हमारा अमंगल हो ही नहीं सकता, उसमें तो हमारा हित-ही-हित भरा हुआ है। भगवान् के द्वारा हमारा अहित हो ही नहीं सकता- यह होना असम्भव है। जैसे एक माँ के द्वारा अपने बच्चे का अहित हो ही नहीं सकता, उसी प्रकार परमपिता परमात्मा के द्वारा हमारा अहित होना कैसे सम्भव हो सकता है ? इस प्रकार जो कुछ भी हो रहा है, उसमें भगवान् का विधान समझकर खूब प्रसन्न रहना चाहिये।