स्वयं अमानी रहकर दूसरों को उचित सम्मान दें
मैं यदि मान नहीं चाहूँ तो मैं भगवान् के समान हुआ अमानी। मैं धारण करने वाला कैसे ? मान लो यदि सब आदमी गीताप्रेस को छोड़ दें तो मैं ही इसको धारण करने वाला रहूँगा। भगवान् बड़े गृहस्थी हैं- त्रिलोकधृक्; जिसका सब पर हुकुम चले वह लोकस्वामी; धारण-पोषण करने वाला (पुष्टि करने वाला) । गीताप्रेस पर घटाने (समझने) से गीताप्रेस को धारण करने वाला, पोषण करने वाला, फैलाव करने वाला; एक हजार टन कागज काम में आवे तो पाँच हजार टन काम में आवे- ऐसी कोशिश करने वाला। वह कैसे होवे ? सम्पत्ति बढ़ेगी, तभी होगा, सर्वांग पोषण होता है, वृक्ष की जड़ सींचने से सब पुष्ट हो जाते हैं।
अमानी - हृदय से मान नहीं चाहे। मान लो कि अपना लड़का कायदा नहीं रखता है तो साधक व्यक्ति को तो खुश ही होना चाहिए नाराज नहीं। यदि हमने मालिकपने का काम सँभाल रखा है, किन्तु लड़का बीच में पड़कर काम को ले लेता है, तो प्रसन्नता होनी चाहिए, नाराजगी नहीं; क्योंकि यदि लड़का सँभालता है, तो बहुत अच्छी बात है; मैं उससे ईर्ष्या क्यों करूँ ? ऐसा समझे कि मेरा तो बोझा हलका हो गया।
जैसे गीताप्रेस में मैनेजर का काम यदि एक साधारण आदमी ने कर लिया तो खुश ही होना चाहिए। जहाँ-जहाँ क्रोध का काम होवे, यानी कोई काम बिगड़ जावे, वहाँ-वहाँ प्रसन्नता होनी चाहिए।
मानद: - भगवान् किसको मान (अर्थात् सम्मान) देवें ? उनको किसी को भी मान देने की आवश्यकता नहीं है, क्योंकि भगवान् से बढ़कर कोई नहीं है; किन्तु फिर भी वे मान देते हैं। भगवान् यदि किसी को मान देते हैं तो उसको चेत (सावधान) होना चाहिए (कि मैं भगवान् की कसौटी पर खरा उतरूँ)। ऐसे ही यदि मैं किसी साधु को प्रणाम करूँ तो उस साधु को चेत होना चाहिए।
आपस में एक-दूसरे का कायदा रखें तो सभी काम अच्छे होते हैं। अपना दोष स्वयं को ही दिखाई देता है, इसलिए स्वयं को ही उसका सुधार करना चाहिए।
सत्संग के अमूल्य वचन-
सात-पाँच (अर्थात् इधर-उधर के) सब कामों को छोड़कर अब से लेकर मरण-पर्यन्त भगवान् का भजन- ध्यान रखते हुए सब चेष्टा होवें, तो करे; नहीं तो सब चेष्टाओं को छोड़ देना चाहिये।
मनुष्य जीवन का समय बहुत मूल्यवान् है, यह बार-बार नहीं मिलता है। इसे उत्तरोत्तर भगवान् के भजन-ध्यान में लगाना चाहिये।
मृत्यु का भरोसा नहीं है कि किस समय आ जाय। अतः भगवान् का स्मरण कभी नहीं भूलना चाहिये; उन्हें निरन्तर याद रखना चाहिये।