सबके साथ उच्च कोटि का व्यवहार करना चाहिए
गोविन्द भवन का व्यवहार अभी आदर्श नहीं है। हम जैसा सुधार चाहते हैं, वैसा सुधार नहीं हो रहा है। अपना ध्येय है कि हरेक व्यक्ति को यहाँ से लाभ पहुँचे। जैसे औषधालय है, उसमें इलाज मुफ्त करते हैं, औषध मुफ्त देते हैं। कोई सज्जन वैद्य को अपने घर ले जाने का रिक्शा-भाड़ा देना चाहे तो खुशी से ले सकते हैं। नहीं दे, तो नहीं लें। पथ्य ( औषध के अनुसार खानपान) भी अपने यहाँ से दे दें। औषध आवश्यकता होने पर २-३ दिन की भी दे दें। दवाइयाँ कुल मिलाकर २५,०००/- रुपये की मुफ्त दी गई। ये यदि ४०,०००/- रुपये की भी हों तो कोई आपत्ति नहीं है। सबको सुख पहुँचे।
हमारी घोषणा- यहाँ रहने वाले कम्पाउण्डर को कोई कुछ दे तो उसे लेना पाप समझना चाहिए। इसका सुधार नहीं हुआ है, यह हमारे लिए कलंक है, इसे धो डालना चाहिए। यह संस्था कलकत्ता में आदर्श बने। हरेक को कहना पड़े कि- 'यह संस्था एक नम्बर है।' जहाँ त्याग होगा, वहाँ स्टैण्डर्ड ऊँचा होगा ही। यहाँ रहने वाले भाइयों को कोई कुछ दे तो रिश्वत समझनी चाहिए। यहाँ काम करने वाले भाइयों को बाहर के लोगों के साथ सत्य व्यवहार करना चाहिए। कोई गाली दे दे तो भी सहन करना चाहिए (गीता २/१५) । सहनशक्ति उत्तम गुण है। प्रिय, हितकर सत्य वचन बोलना चाहिए।
यहाँ बिना सैल्सटैक्स के माल नहीं बेचा जाता, यहाँ नकली चीज नहीं दी जाती, छिपाव नहीं किया जाता। जरा भी गड़बड़ी हो तो मैनेजर को कहना चाहिए। वह नहीं सुने तो हमको कहना चाहिए। ऐसा व्यवहार करना चाहिए कि दूसरे यहाँ का अनुकरण करें। यहाँ अपवित्र औषध नहीं बनती जैसे- आसव आदि।
कितने ही वैद्य आयुर्वेदिक में डॉक्टरी (अंग्रेजी) औषध को मिला देते हैं; हम ऐसा करना पाप समझते हैं। कोई भाई यहाँ से जूता, पुस्तक आदि सामान खरीदकर ले जाए; फिर उसे वापस करना चाहे तो ले लेना चाहिए। जो बिक्री करने के लिए ले जाए, उसके लिए अपने यहाँ रियायत नहीं है; यह भी होनी चाहिये। कोई जूता खराब हो जाए तो उसके नुकसान को सहन कर लेना चाहिए और ग्राहक से वापस ले लेना चाहिए। इसी प्रकार पुस्तक, घी और दवाई की बात है।
सबके साथ उच्च कोटि का व्यवहार करना चाहिए। बैठने के लिए जगह देनी, विनययुक्त, प्रेमयुक्त, मीठा व्यवहार करना चाहिए। यहाँ से रामराज्य की छाप पड़नी चाहिए।
यहाँ पर कितनी सुविधा है ! यहाँ किसी रकम की चोरी नहीं होती है। ऐसा आदर्श उपस्थित करना है कि सच्चाई के साथ में काम चलता है, गोविन्द भवन का चल रहा है।
परस्पर प्रेम का व्यवहार, किसी की शिकायत नहीं करनी, अपशब्द नहीं बोलना, अपने पद के अभिमान का एकदम त्याग कर देना- इससे बड़ी भारी शान्ति एवं चित में प्रसन्नता हो सकती है। व्यक्तिगत आध्यात्मिक उन्नति करनी और संस्था की भी उन्नति करनी। अपने शरीर से दूसरे का हित करना चाहिए।
तुलाधार वैश्य का सत्य व्यवहार था और सबके प्रति समता थी। उसके यहाँ पर बच्चा, चतुर- सबको एक भाव से वस्तु दी जाती थी। किसी में भेदभाव नहीं होता था। यहाँ ऐसा व्यवहार करना सहज ही है। जो दुकानदार नहीं कर सकते, उन्हें प्रारब्ध और ईश्वर में विश्वास नहीं है। जैसा सत्य चलता है, वैसा असत्य नहीं चल सकता है-
सच्चा बोले, पूरा तौले । उसको ग्राहक ढूँढता डोले ॥
जो दलाली या आढ़त ठहरा ली, उससे कम देने की अथवा ज्यादा लेने की चेष्टा नहीं करनी चाहिए। जैसा नमूना दिखाया, वैसा माल देना चाहिए। बढ़िया में घटिया माल नहीं मिलाना चाहिए।
हम लोगों पर ईश्वर की बड़ी भारी कृपा है। उस कृपा की दृष्टि से हम कहते हैं कि हम भाग्यशाली हैं; उससे विशेष लाभ उठाना चाहिए। हर समय मुग्ध रहना चाहिए, आदर्श व्यवहार बनाना चाहिए, ताकि दूसरों पर छाप पड़े और वे लोग भी वैसा करने लगे; फिर यह अच्छे आदमियों को बनाने वाली टकसाल बन जाए। किसी पर क्रोध आ जाए तो उससे माफी माँगनी चाहिए।
किसी दूसरे को अपनी वजह से क्रोध आ जाय तो भी उससे स्वयं माफी माँगे। दोनों में अपना ही अपराध माने। क्रोध आना ही खराब है- इस बात का हर प्रकार से खयाल करना चाहिए। अपने स्वार्थ का त्याग करना चाहिए। अपना व्यवहार क्यों बिगड़े ?
मिथ्या वचन नहीं बोलें। भोग सामग्रियों का त्याग कर दें। कोई भाई किसी की शिकायत, निन्दा, चुगली करे ही नहीं। कभी ऐसा मौका पड़ जाए तो उसके हित के लिए करे।
अपने में, अपने साथियों में (सहकर्मियों में) कहीं भी, किसी प्रकार का दोष आवे तो मिटाने की चेष्टा करनी चाहिए। फोड़ा होने पर डॉक्टर मवाद निकाल देता है, इससे रोगी को पीड़ा थोड़ी होती है।
विष के समान समझकर दुर्गुण, दुराचार का त्याग कर देना चाहिए, उनका संग्रह नहीं होने देना चाहिए; दुर्व्यसन का त्याग कर देना चाहिए; भोग, प्रमाद, निद्रा, आलस्य का त्याग कर देना चाहिए- ये सब तामसी चीजें हैं। सद्गुण, सदाचार, समता, शान्ति को अमृत के समान समझकर सेवन करना चाहिए। अपने तो सेवा करने के लिए बैठे हैं, कोई ग्राहक चीज ले तो आनन्द; नहीं ले तो आनन्द। सामान वापस लेने में सबसे ज्यादा आदर और आनन्द होना चाहिए।
जो ग्राहक माल ले जाय, उससे व्यवहार करने में जैसी प्रसन्नता है, उससे ज्यादा प्रसन्नता उसके साथ होनी चाहिए, जो माल नहीं ले; तथा जो वापस लावे, उससे व्यवहार करने में सबसे ज्यादा प्रसन्नता होनी चाहिए। जो माल नहीं ले, केवल हैरान करे, तो समझना चाहिए कि भगवान् परीक्षा ले रहे हैं। उसका भी तो समय लगता है। उसके समय की कीमत समझनी चाहिए।
सत्संग के अमूल्य वचन-
भजन, जो हमारा राम नाम है, वह हमारा प्राण है।