रुपयों के त्याग से मान, बड़ाई, प्रतिष्ठा की प्राप्ति होती है और इन दोनों के त्याग से परमात्मा की प्राप्ति होती है
गीताप्रेस का काम करने में तीन चीजें मिलती हैं- (१) रुपये (२) मान, बड़ाई, प्रतिष्ठा और (३) आत्मा का कल्याण ।
तीनों भी मिल सकती हैं, दो भी और एक भी मिल सकती है। केवल रुपये मिलने के उद्देश्य से ऊँचा उद्देश्य है- मान, बड़ाई का; और उससे ऊँचा उद्देश्य परमात्मा की प्राप्ति का है। रुपयों के त्याग से मान, बड़ाई, प्रतिष्ठा की प्राप्ति होती है और इन दोनों के त्याग से परमात्मा की प्राप्ति होती है। मान, बड़ाई, प्रतिष्ठा के त्याग का फल परमात्मा की प्राप्ति है।
त्याग का भी त्याग, यानी मैं त्यागी हूँ- इस अभिमान का भी त्याग ऊँचे दर्जे की चीज है। रुपये, शरीर का आराम, मान, बड़ाई, प्रतिष्ठा के त्याग का अभिमान रहे, तो परमात्मा की प्राप्ति में कुछ विलम्ब हो सकता है।
राजा चोल ने सब कुछ त्याग दिया, किन्तु उसको राज्य, रुपये और भक्ति का अभिमान था। उस ब्राह्मण को अभिमान नहीं होने के कारण भगवान् पहले मिल गए। राजा को जब इस बात का पता लगा कि राज्य, रुपये आदि इस मार्ग में कुछ काम नहीं आते, तो वह अग्नि में कूद पड़ा, तो भगवान् झट मिल गए। देर क्यों हुई ? - अभिमान के कारण। (गीताप्रेस से प्रकाशित पुस्तक- महत्त्वपूर्ण शिक्षा, जिसका कोड नं. २४२ है, उसमें राजा चोल व नरोतम ब्राह्मण का चरित्र पढ़ना चाहिये।)
गीताप्रेस के काम की विशेषता- (१) दूसरे जगहों के काम में १०० में से ७५ जगह चोरी, झूठ, इन्कम टैक्स, सैल्स टैक्स आदि की चोरी, झूठा बहीखाता आदि होता है। चाहे सरकारी काम करवाना हो, चाहे ऑर्डर सप्लाई का काम कोई भी काम हो, घूस देकर काम करवाते हैं। एक पोस्ट ऑफिस में तो यह घूसखोरी कम है। अपना काम निकलवाने के लिए यह पतन का मार्ग अपनाना पड़ता है। स्वयं का व्यापार करने वालों की भी यही दशा है। यह सब गीताप्रेस में नहीं है।
(२) गीताप्रेस के द्वारा धार्मिक ग्रन्थों का प्रचार और गोविन्द भवन, कलकत्ता में गोरक्षक जूता, शुद्ध घी, काँच की चूड़ी, औषध का प्रचार- यह सब धार्मिक दृष्टि को लेकर होता है। गोरक्षक जूते का प्रचार, क्योंकि चमड़े के जूतों के कारण हिंसा होती है; चूड़ी का प्रचार, क्योंकि लाख की चूड़ी में हिंसा होती है; शुद्ध घी का प्रचार, क्योंकि वेजिटेबल घी से स्वास्थ खराब होता है एवं उसमें चर्बी होती है; हाथ से बुने कपड़े का प्रचार, क्योंकि मिल के कपड़े में कपड़े पर अशुद्ध चीजें लगाई जाती हैं; आयुर्वेदिक औषध का प्रचार, क्योंकि देशी दवाई में भी धोखेबाजी चल पड़ी है। इन चीजों को गोविन्द भवन में ब्रिकी के लिए इसीलिए रखा गया है कि लोगों को असली एवं पवित्र वस्तु मिल जाती है।
यहाँ गीताप्रेस का सब व्यवहार स्वरूप से पवित्र और सात्त्विक है। भाव भी सात्त्विक हो जावे तो और लाभ है।
नीचे-से-नीची नौकरी कसाईखाने की है। ऊँचे-से-ऊँची नौकरी यह (गीताप्रेस की) है।
भोजन पवित्र में ऊँचा- (१) सात्त्विक भोजन होवे (पदार्थ सात्त्विक हों) (२) न्याय से उपार्जित द्रव्य से बनाया गया हो और (३) शुद्धता से बनाया जाए।
परिश्रम का पैसा पवित्र है। बेईमानी नहीं करके पैसा पैदा हो, वह श्रेष्ठ है। व्यवहार सबसे ऊँचे दर्जे का यह है कि पुस्तकें और 'कल्याण- पत्रिका' से लोगों में भक्ति, ज्ञान, वैराग्य, सदाचार का प्रचार-प्रसार हो। प्रूफ देखने वाले प्रूफ देखते हैं, चित्र देखने वाले चित्र देखते हैं- सामने आने पर, बाँचने से, देखने से फायदा है। यह सब होने पर भी स्वार्थ का त्याग हो, तो सोने में सुगन्धि है।
मान, बड़ाई का त्याग और भी अच्छा है। त्याग के अभिमान का भी त्याग और ऊँचा है। किसी कारण से बाधा तो है नहीं; भगवत्प्राप्ति के काम में देर हो रही है- अपने भाव की कमी से।
प्रेमभाव से, निष्कामभाव से और श्रद्धा से यह काम करे तो और ज्यादा लाभ होता है। काम करके गिनाना नहीं चाहिए । भगवान् तो वैसे सब जगह हैं ही; गीताप्रेस में कोई गन्दी पुस्तक है नहीं, तो भगवान् यहाँ पुस्तकों के रूप में विराजमान हैं। भगवान् तो श्रद्धा, प्रेम से प्रकट होते हैं; मान्यता पर निर्भर है।
हमारी मान्यता पूछो तो हम क्या करते हैं- यह देख लो। लोग हमें पूछते हैं कि- 'सत्संग में रहना अच्छा है या बद्रीनाथ, केदारनाथ जाना अच्छा है ?' तो हम कहते हैं कि- 'जैसी आपकी मर्जी ।' फिर भी कोई पूछता है, तो कह देते हैं- 'आप देख लो कि हम क्या काम करते हैं।'
हम तो यह कहते हैं कि यदि खरीदने की सामर्थ्य नहीं हो तो थाली, लोटा बेचकर भी गीताप्रेस की पुस्तक खरीदकर रख लो। घर में पढ़ने के लिए एक भी गीताप्रेस की पुस्तक रहे तो सही।' अधिक पुस्तकें जहाँ पर हैं, वह तो प्रचार की चीज है। उसको देखकर ज्यादा प्रसन्नता होनी चाहिए।
हम लोग वर्तमान में गीताप्रेस का जितना काम करते हैं, उससे और ज्यादा करें, तो और ज्यादा काम करने की गुंजाइश है। समय की जो गुंजाइश है, उसे गीताप्रेस की जगह दूसरे काम में लगाना है, वह समय की चोरी है। इसी प्रकार मन की, बुद्धि की चोरी है। मन, बुद्धि को और अधिक लगा सकते हैं तथा समय भी और अधिक लगा सकते हैं।
तन, मन, धन, जन- चार चीजें हैं। धन को तो इस गिनती में से हटा दिया, क्योंकि धन की तो हम माँग नहीं करते। सेवा करने वालों से समय की माँग करते हैं, जैसे- कहीं साधुओं को कपड़े बाँटना, मरणासन्न को भगवन्नाम सुनाना आदि काम के लिए। तन, मन, बुद्धि, समय, जन- ये सब लगावें तो बहुत ज्यादा फायदा है। इन सबकी तो हमारे याचना करने का भी काम पड़ता है। इसमें अपना हित, उनका हित तथा संसार का हित- सबका हित भरा है।
गीताप्रेस को मन्दिर से भी ज्यादा समझने की गुंजाइश है। केवल एक भागवत की पुस्तक का भी घर में रहना अच्छा है, तब इतनी धार्मिक पुस्तकों के बीच में रहने का माहात्म्य तो कितना अधिक होगा ! पुस्तक देखना, पढ़ना, सुनना, बाँटना, छूना, नमस्कार करना भी लाभदायक है। मरने के समय गीता का स्पर्श करना, सिरहाने रखना, श्लोक सुनना, पढ़ना अच्छा है। यह काम मरने वाले और जीने वाले- दोनों के लिए ठीक है। इस काम में मान, बड़ाई, प्रतिष्ठा देनी, रुपया देना तो हमारे हाथ में है, परमात्मा की प्राप्ति करना आपके हाथ में है। मेरी तो मान्यता है कि- 'यदि आप यह मान लें कि जयदयाल (श्रद्धेय श्रीसेठजी) मेरी मुक्ति करा सकते हैं तो मैं आप सबकी मुक्ति करा सकता हूँ।' यदि किसी की मन्दिर में यह मान्यता हो कि यहाँ प्रतिमा की प्राण-प्रतिष्ठा है, यहाँ भगवान् प्रकट हो जायेंगे तो वहाँ भगवान् अवश्य प्रकट हो जायेंगे; नहीं तो अपनी मान्यता की कमी है।
आप यदि यह मान लें कि भगवान् आज रात में १२ बजे आयेंगे, तो वे अवश्य आयेंगे; यदि वे नहीं आते हैं तो आपके निश्चय में कमी है। यदि आपके ही सन्देह हो, तो वे आवें, न आवें।
स्त्री पातिव्रत धर्म का पालन करती है, उससे परमात्मा की प्राप्ति होती है, उसमें श्रद्धा, विश्वास ही प्रधान है। अपने विश्वास में कमी है, तभी परमात्मा की प्राप्ति में कमी है। भाव, मान्यता, श्रद्धा, निश्चय में ही कमी है। भगवान् तो कमी की पूर्ति भी कर देते हैं, किन्तु इस बात का भी निश्चय तो होना चाहिए।
सत्संग के अमूल्य वचन-
कान में भी नारायण, हृदय में भी नारायण ! साथ में भी नारायण ! देखे तो नारायण, बोले तो नारायण ! ऐसे नारायण का अभ्यास करने से नारायण की प्राप्ति हो जाती है।