पुस्तकों की छपाई शुद्ध एवं सुन्दर होनी चाहिए
(१) पुस्तकों में कोई भी अशुद्धि होती है, वह मुझे बर्दास्त नहीं होती है। उसका तुरन्त सुधार करना चाहिए।
पुस्तकों की छपाई शुद्ध एवं सुन्दर होनी चाहिए। पहला नम्बर शुद्धता का और दूसरा नम्बर सुन्दरता का है।
शुरूआत में वणिक् प्रेस, कलकत्ता में सवा रुपये वाली गीता छपी थी, तब जरा-सी अशुद्धि निकलती तो वहाँ ही तुरन्त शुद्ध करा देते थे। अपनी छपाई एवं सुन्दरता भारतवर्ष में एक नम्बर की होनी चाहिए।
यदि कहीं अशुद्धि रह जावे तो यहाँ पर (गीताप्रेस में) जितनी पुस्तकें हों, उनमें तो तुरन्त शुद्ध करा लेवें। जो पुस्तकें गीताप्रेस की दूकानों में चली गई हों तो वहाँ पर समाचार देकर ठीक करा देवें । जिल्द की, चित्र आदि की गड़बड़ी हो जावे तो भी ठीक करा देवें। पुस्तक २० लाख की जगह १८ लाख की बिके, अथवा शुद्ध कराने में १०,०००/- रुपये लग जावें तो वह भी हमें स्वीकार है।
(२) मजदूरों की मदद करना, चाहे भीतर (गीताप्रेस) के मजदूर हों, या बाहर के हों। अभी बाहर वाले मजदूर डीगे साहब के बहकावे में आए हुए हैं, किन्तु वहाँ से उन्हें छुटकारा मिल जाने पर उनको काम देने में उनका हित है। उद्दण्डता बढ़ाकर वे अपना हित चाहें, वह उनका हित नहीं है, नुकसान है, क्योंकि-
(क) वे लोग अपनी मेहनत का पैसा इकट्ठा करके डीगं साहब को चन्दा के रूप में देते हैं।
(ख) वे मजदूरी कम करते हैं।
(ग) फर्मा बाहर भेजा जाता है; इसमें उनका नुकसान है। (प्रिन्टिंग करने में प्रयुक्त होने वाली एक विशेष प्रकार की आयताकार प्लेट को फर्मा कहा जाता है)।
(घ) हम जो उनकी मदद करना चाहते हैं, उससे वे वंचित रहते हैं।
मजदूरों के ज्यादा फायदा किस तरह हो- यह ध्यान रखना चाहिए; ऐसा फायदा, जो कि गीताप्रेस बर्दास्त कर सके। प्रेस में ५०,०००/- रुपये का और नया नुकसान हो जावे तो भी बर्दास्त कर लें। यह बात आपको हमारी मान लेनी चाहिए।
मैं अभी मजदूरों की मदद करने आया था, किन्तु वे लोग उद्दण्ड हो रहे हैं, इसलिए मदद देनी कठिन है। हम यह चाहते हैं कि उनकी उद्दण्डता भी नहीं बढ़े तथा उनको पैसा भी मिले।
(३) पुस्तकों के दाम बढ़ाकर मजदूरों की मजदूरी बढ़ाने की बात कही, इसका उत्तर यह है कि पुस्तकों के दाम के बाबत तुम लोगों को क्या चिन्ता है, चाहे हम मुफ्त में बाँटें ? आप लोगों की मजदूरी उचित होनी चाहिए। मजदूरी कम हो, तो ज्यादा ले लो। यदि आपका वेतन कम हो, तो ज्यादा कर सकते हैं। आपका मेहनताना कितना होना चाहिए- यह आप देखो।
(४) आपस में खूब हिल-मिलकर काम करना चाहिए। केशरदेव जिस तरह अपने ऑफिस को कण्ट्रोल में रखता है, थोड़े आदमियों में ही काम चलाता है, वैसे ही, हमें उससे भी अच्छा काम करना चाहिए। अपने-अपने विभाग की आप स्वयं को सँभाल करनी चाहिए। जो मनुष्य के द्वारा साध्य प्रयत्न है, उसे बाकी नहीं रखना चाहिए। अपनी लापरवाही के कारण पुस्तकों की बिक्री नहीं घटनी चाहिए।
(५) जो पद में बड़ा हो, उसकी इज्जत करनी चाहिए; लेकिन स्वयं को बड़प्पन का अभिमान नहीं रखना चाहिए। दूसरे के अधिकार को ठेस नहीं पहुँचावें, उसकी तो रक्षा करें, किन्तु अपने अधिकार के अभिमान का त्याग करें। यह व्यापक बात है- सबके लिए उपयोगी है।
(६) सबकी अलग-अलग इच्छा होती है। अपनी इच्छा, अपना हठ हो, उसका त्याग करके दूसरे की बात रखनी चाहिए। यदि धर्म-विरुद्ध हो तो नहीं माननी चाहिए। यदि धर्म-युक्त हो तो अपनी बात छोड़कर दूसरे की बात माननी चाहिए ।
सबके लिये- गीताप्रेस का तथा संसार का हित हो और अपनी बात छोड़नी हो तो बड़ी खुशी से छोड़ देवें। इससे सामने वाले पर असर पड़ता है और वह भी अपनी बात छोड़कर दूसरे की बात मानने की चेष्टा करता है।
मैं यदि त्याग की बात कहूँगा तो आपके मन में भी बदले में त्याग की बात आयेगी। यदि स्वार्थ की बात कही जायेगी तो बदले में आपके भी स्वार्थ की बात आयेगी। किसी की सेवा करके उसको लाभ पहुँचाना तो लाभ है ही, किन्तु उससे ज्यादा लाभ वह है कि जिसकी सेवा की है, उसके मन में भी वैसी सेवा करने का भाव पैदा होवे।