परम सेवा करने में मान, बड़ाई मिले तो गाली के समान लगनी चाहिए; उसमें लज्जा, संकोच होना चाहिए
भगवान् अपने को दृढ़ करने के लिए नियमपालन के समय में बाधा डाल सकते हैं, किन्तु अपने को पक्का रहना चाहिए। (महाभारत, वन पर्व, यक्ष प्रसंग में) युधिष्ठिर के चारों भाई पानी लेने गये और वहीं मर गए। जब यक्ष ने युधिष्ठिर पर प्रसन्न होकर किसी एक को जीवित करने के लिए कहा तो युधिष्ठिर ने धर्म का विचार करके नकुल को ही जीवित करने के लिए कहा। फिर सब जी गए।
प्रहलाद के द्वारा अपने लड़के विरोचन एवं सुधन्वा के साथ में न्याय करने की बात। (जिसमें विरोचन एवं सुधन्वा के प्राणों की बाजी लगी हुई थी; उसमें उन्होंने अपने पुत्र की अपेक्षा सुधन्वा को श्रेष्ठ बतलाया)।
तीन चीजें हैं- नेम (नियम से), टेम (टाइम, समय पर) और प्रेम से।
सबसे नीचा दर्जा- नियम से करना ।
उससे ऊँचा- समय से करना ।
सबसे ऊँचा- प्रेम से करना (इसमें नियम और टाइम भी आ गये) ।
(१) कोई आदमी सड़क पर पड़ा हो तो दिलचस्पी से उसकी सेवा का काम करना चाहिए। रुपयों की कोई अड़चन नहीं है।
(२) कोई मरणासन्न व्यक्ति गीता, भगवन्नाम आदि सुनना चाहे तो उसको सुनाना बहुत ऊँचे दर्जे का काम है। मैं व्याख्यान सुनाता हूँ, उससे नीचे दर्जे का वह काम नहीं है, क्योंकि मरने के समय अपने कल्याण के लिये बहुत ज्यादा छूट है। व्याख्यान सुनाने वाले को जो लाभ होता है, उससे ज्यादा लाभ मरणासन्न व्यक्ति को गीता, भगवन्नाम आदि सुनाने का होना चाहिए। वहाँ तो एक मिनट में मुक्ति हो सकती है।
(३) बाढ़, भूकम्प, महामारी आदि में निष्कामभाव से सेवा करना मुक्ति का साधन है। वह सेवा है, परम सेवा नहीं है, किन्तु निष्कामभाव से करने पर अपने लिए परमसेवा हो गई।
पुस्तकों और मासिक पत्रिका 'कल्याण' के प्रचार के लिए घनश्याम (दास जालान) के बराबर कोई नहीं है। उसमें क्या बात थी ? हम लोग क्यों नहीं कर सकते हैं ? हमारे मन में पुस्तकों का दाम घटाने की इच्छा रहती है, घनश्याम के भी घटाने की ही रहती थी। अन्य चीजों के दाम बढ़ रहे हैं, हम पुस्तकों के दाम नहीं बढ़ा रहे तो घटे हुए हैं। कोई बढ़ावे, तो विरोध करना चाहिए।
अहमदाबाद में भिक्षु अखण्डानन्द स्वामीजी की पुस्तकों के दाम बहुत कम थे। उनके मरने पर पुस्तकों के दाम दुगुने, तीन गुने कर दिये। उनकी पुस्तकों का नाम सस्ता साहित्य था ! हमारी पुस्तकों का नाम सस्ता साहित्य नहीं है।
हरेक प्रचार को बढ़ावें। अपने रुपये बढ़ाने की आवश्यकता नहीं है; सेवा का काम बढ़े, वही असली धन है। रुपया बढ़ा है। उससे तो प्रचार में धक्का ही लगा है। रोगी को वैद्य से दिखाना दवा देनी, पथ्य देना- ये सब सेवा के काम कर सकते हो।
परमसेवा करने में मान, बड़ाई मिले तो गाली के समान लगनी चाहिए; उसमें लज्जा, संकोच होना चाहिए। (मान, बड़ाई में) जितनी प्रसन्नता होगी, उतना ही उत्तम कर्मों का फल कम हो जायेगा। वह तो रोने का स्थान है, मानो कि घर में चोर आ गया।
आप कलकत्ता में रहते हो। कलकत्ता में अपनी संस्था द्वारा जितने सेवा के काम हैं, उनका स्टैण्डर्ड इतना ऊँचा होना चाहिए कि जैसे रुपये की टकसाल होती है, वैसे ही यह मुक्ति की टकसाल बन जावे। इसे उच्च कोटि की संस्था बनावें। जहाँ दोष होवे, उसकी निगह (निरीक्षण) करो, जिससे कि यह संस्था उत्तरोत्तर उच्च स्थान को जावे। हरेक प्रकार से दूसरों का उपकार करना चाहिए।
कोई ग्राहक पहने हुए जूते भी वापस करने के लिए लावे तो ले लो; सैल्स टैक्स भले ही अपने लग जावे। (सैल्सटैक्स) वापस दे दे तो ले लो; नहीं तो कोई आवश्यकता नहीं। खुशी के साथ वापस लेना चाहिए। माल बेचने में जितनी खुशी थी, उससे ज्यादा वापस लेने में खुशी हो ।
मेरे जो चोट (नुकसान) लगनी होगी, वह ही लगेगी। नहीं लगनी होगी, तो नहीं लगेगी।
अपनी दुकान पर किसी को धमकाना नहीं। कोई धमकावे तो उसको कहना कि- 'यहाँ से कोई आदमी बुरा भाव क्यों ले जावे ?"