Seeker of Truth
॥ श्रीहरिः ॥

नाम का जप, स्वरूप का ध्यान और भगवान् राम को हृदय में याद करके उस माफिक व्यवहार करना चाहिए

प्रवचन सं. ३८
दि. २३-१२-१९५६, रविवार, प्रातः ८ बजेश्रीघनश्यामदासजी के घर पर

हम सामने वाले को पहले उसकी अच्छी बातें कहकर उत्साहित करते हैं। सबको इसी प्रकार करना चाहिए।

मोहनलाल पटवारी ने मुझे कई बार पूछा, मौका नहीं लगा। वह वाणी से कहता है, मन से भी कुछ बात है। वह कहता है कि- 'आप सेवा कार्य में मेरे रुपये कम लगाते हो।' हम कहते हैं कि- 'आगे में विशेष ध्यान रख सकते हैं।' यह वाणी से कही हुई बात है; तो अँगुली पकड़कर कलाई पकड़ते हैं।

व्यवहार सुधारना चाहता है। खुद कहता है कि मातादीन का व्यवहार और भाव ठीक है; भानुलाल का व्यवहार और भाव ठीक है। खराब यह है कि यह अपना व्यवहार सुधारना तो चाहता है, किन्तु हम जैसा चाहते हैं, उस दृष्टि से रुपये में दो आना (१२%) भी नहीं है।

तीन से व्यवहार पड़ता है- जूलाहा से, व्यापारी से और कम्पिटीशन करने वालों से। दोषों का सुधार नरक से बचना है। सुधारमात्र से मुक्ति नहीं है; ऐसा करने से नरक के गड्ढे से बच गये।

प्रथम लोभ का त्याग, ईर्ष्या का त्याग और क्रोध का त्याग- अपनी दृष्टि में उनका व्यवहार नीति-विरुद्ध दिखता है। या वास्तव में वैसा होता है तो क्रोध आ जाता है। हमको बर्दास्त करना चाहिए। इससे नरक से बचते हैं। उसको शिक्षा देने के लिए अपना व्यवहार ऊँचे दर्जे का करके दिखा देना चाहिए। युधिष्ठिर का व्यवहार कितना ऊँचा था ! और दुर्योधन का कितना नीचा था ! किन्तु एक बार तो युधिष्ठिर के व्यवहार का दुर्योधन पर भी असर पड़ा। यह अनुकरण करना चाहिए।

बाजार तेज हो जावे तो माल बेचने वाले से कह देना चाहिए कि- 'अभी तेजी के रुख का समाचार है और हम आपकी वस्तु लेना चाहते हैं। आपकी मर्जी है; बेचो, या नहीं बेचो ।' बाजार मन्दा हो जावे तो माल खरीदने वाले को कह देना चाहिए कि- 'बाजार में मन्दी का रुख है। आपकी मर्जी है; लेओ, या नहीं लेओ।'

दूसरे व्यापारी का कोई जूलाहा अपने पास आवे तो उसके बारे में उस व्यापारी से पूछ लेना चाहिए कि- 'उस जूलाहे की तरफ आपका सूत तो बाकी नहीं है न ?' व्यापारी आवे तो उस जुलाहे के बाबत पूछ लेना चाहिए कि- 'आपके उसमें रुपये तो बाकी नहीं हैं न ?

आप कहते हो कि- 'हम आपका काम समझते हैं।' किन्तु हमारे कहे अनुसार तो करते नहीं हो, तब आपने हमारा काम कहाँ समझा ? केवल वाणी से कहते हो। आपका मन आपको धोखा देता है। आपके मन में यदि यह बात होवे कि- "हमारा व्यवहार आपके सन्तोषजनक है', तो आपको सुधारने की जरूरत नहीं है। आप यदि यह नहीं मानते हो कि- 'हम पाखण्डी हैं' तो आपको सुधारना चाहिए। 'जुलाहों की अधिक सेवा किस प्रकार करें' - इसमें उदारता का व्यवहार कर सकते हो। इसी प्रकार अपने व्यापारी को भी कम भाव में माल देओ तो अच्छी बात है। अपने को ऐसा व्यवहार करना चाहिए कि दूसरों पर भी अपना असर पड़े। किसी का उपकार करके उपकार नहीं समझना, अपितु कर्तव्य समझना चाहिए। आपको यह समझना चाहिए कि दूकान भगवान् की है; हमें कम-से-कम लाभ करना है। यदि हमारी बात मानो कि- 'सत्य व्यवहार हो, कपट नहीं हो' तो हम बहुत राजी हों।

इससे भी ऊँचे दर्जे का व्यवहार है- 'सबके साथ में समान व्यवहार करना, अपने स्वार्थ के वशीभूत होकर पक्षपात नहीं करना, सच्चाई का व्यवहार करना, इन्कम टैक्स, सैल्स टैक्स की चोरी नहीं करनी, ब्लैक मार्केटिंग नहीं करनी, अपने से कम्पिटीशन करने वालों से भी सच्ची बात करनी, छिपाव नहीं करना, स्वार्थ का त्याग करना, ममता का त्याग करना, लोभ की बू (दुर्गन्ध) नहीं आ जावे।' रुपये इकट्ठा करके भगवान् के रुपये भगवान् के काम में लगाने हैं तो आप लगाने वाले कौन ? आपके हृदय में भगवान् जिस तरह की प्रेरणा करें, उसी प्रकार करना ।

नाम का जप, स्वरूप का ध्यान और भगवान् राम को हृदय में याद करके उस माफिक व्यवहार करना चाहिए। रुपये, शरीर का आराम, मान, बड़ाई इत्यादि का स्वार्थ नहीं आ जावे। मान, बड़ाई का जो सुख है, वह लाभ तो यहाँ ही ले लिया; हमें तो मुक्ति की भी इच्छा नहीं रखनी चाहिए। इस व्यवहार को देखकर महात्मा, ईश्वर खुश होवें तो उनको कहें कि 'हम तो व्यवहार उच्च कोटि का चाहते हैं। कमी की पूर्ति आपको कर देनी चाहिए।' अपने व्यवहार में सदा कमी ही समझनी चाहिए।

- 'कब तक ?'

- जब तक कि व्यवहार के दर्शनमात्र से लोगों का कल्याण नहीं होवे। उस अन्न में यह ताकत आ जावे कि एक मुट्ठी चना भी कोई खा लेवे तो उसकी आत्मा शुद्ध हो जावे। उस व्यापार को दूसरा आदमी देखे तो उसके मन में भी आवे कि हम भी ऐसा ही करें। आपके व्यवहार से जुलाहों का सुधार हो जाय। जो आदमी आपके यहाँ से कपड़ा ले जावे, उन पहनने वालों का जीवन बदल जाए। रुपये उधार लेते हैं, उसका भी भाव बदल जाए। किसी भी प्रकार अपना सम्बन्ध जुड़ जावे तो उन पर भी अपने व्यवहार की, अपने बर्ताव की छाप पड़े, वे भी वैसे बनने लग जायँ, तब अपना व्यवहार उच्च कोटि का समझना चाहिए।

इससे भी उच्च कोटि की बात- भगवान् आपको पॉवर दे देवें। भगवान् पॉवर दे देवें, तो उन्हें जीवों के उद्धार के लिये खुद नहीं आना पड़े। संसार में ऐसे मनुष्य हुए हैं, जिनके द्वारा लाखों, करोड़ों का उद्धार हुआ है। ऐसी स्थिति बन सकती है, जैसे तुलाधार वैश्य, नन्दभद्र आदि बहुत उच्च कोटि के भक्त थे। (तुलाधार वैश्य की कथा महाभारत, शान्तिपर्व अध्याय २६१ में आई है और नन्दभद्र की कथा स्कन्द पुराण, माहेश्वर खण्ड के अन्तर्गत कुमारिका खण्ड में अध्याय ४०-४१ में आई है।)

तुलाधार व्यापार के द्वारा परमधाम को चले गए। उनका व्यवहार इतना उच्च कोटि का नहीं था कि उनके साथ व्यवहार करने वालों की मुक्ति हो गई हो। असर तो अच्छा पड़ा होगा, किन्तु यह बात नहीं है कि उनके दर्शन, भाषण, स्पर्श से उद्धार हो गया हो। बहुत-से इतिहासों में ऐसे राजाओं की कथाएँ आती हैं कि उनके पास आने वालों को भी उन्होंने मुक्त कर दिया।

इससे भी बढ़कर- एक राजा भगवान् के धाम में जा रहा था कि रास्ते में नरक पड़ा, तो उन नारकीय जीवों का भी कल्याण कर दिया।

इससे भी बढ़कर वे हुए कि जब तक वे रहे, तब तक उनकी भक्ति के प्रभाव से पृथ्वीभर के मनुष्यों का कल्याण होता रहा; जैसे राजा कीर्तिमान की १०,००० वर्ष की आयु थी। ऐसी बात सदा भी कायम रह सकती है। मनुष्यों का और अन्य जीवों का भी तो हो सकता है। भगवान् तो असम्भव को सम्भव कर सकते हैं, किन्तु भगवान् के हृदय को बदलने वाला भी तो होना चाहिए।

एक भक्त की कथा कहा करते हैं (सबका उद्धार कर देने की बात) ।

ऐसा हो तो सकता है; नहीं हुआ तो क्या ?

- 'हमारा उद्धार नहीं हुआ' यह मूर्खता का द्योतक है; और अब भी उद्धार नहीं होगा तो डबल (दुगुनी) मूर्खता होगी. पछताना पड़ेगा-

सो परत्र दुख पावइ सिर धुनि धुनि पछिताइ ।

कालहि कर्महि ईस्वरहि मिथ्या दोष लगाइ ॥

(रा.च.मा. उत्तरकाण्ड दोहा ४३)

मन के प्रतिकूल कार्य में उत्तेजना नहीं आनी चाहिए। कोई घटना प्राप्त होने पर उस समय लोभ आ जाता है, मन में काम आ जाता है, अनुकूलता एवं प्रतिकूलता- ये दो वृत्तियाँ हो जाती हैं, अनुकूलता में राग और प्रतिकूलता में द्वेष हो जाता है- इनकी जड़ उखाड़ देनी चाहिए और भगवान् की लीला को देखकर मुग्ध होते रहना चाहिए।

इससे भी ऊँची बात यह है कि ये बातें करने की जरूरत ही नहीं, स्वतः होनी चाहिए; भगवान् स्वयं करवा लें। परमात्मा की कृपा से सुगम है; कठिन नहीं है।

अनुकूल-प्रतिकूल वृत्ति को जड़ से उखाड़ देना चाहिए। लड़के के द्वारा माता-पिता की अनुकूलता में ही अनुकूलता मान लेने पर उसमें समता आ जाती है, राग-द्वेष का नाश हो जाता है। स्त्री, लड़का, शिष्य, सेवक- सबके लिए यही बात है। जहाँ समता है, वहाँ भगवान् हैं-

इहैव तैर्जितः सर्गो येषां साम्ये स्थितं मनः ।

निर्दोषं हि समं ब्रह्म तस्माद्ब्रह्मणि ते स्थिताः ॥

(गीता ५/१९)

अर्थात्- जिनका मन समभाव में स्थित है, उनके द्वारा इस जीवित अवस्था में ही सम्पूर्ण संसार जीत लिया गया है, क्योंकि सच्चिदानन्दघन परमात्मा निर्दोष और सम है, इससे वे सच्चिदानन्दघन परमात्मा में ही स्थित हैं। मन, बुद्धि, इन्द्रियाँ, शरीर एवं मान्यता के अनुकूल, प्रतिकूल जो घटना हो, उसे भगवान् का विधान मानना चाहिए; भगवान् करते हैं या करवाते हैं- उनको देख-देखकर मुग्ध होना चाहिए; जड़, चेतन पदार्थ-मात्र को भगवान् का स्वरूप और क्रिया-मात्र को भगवान् की लीला समझना चाहिए। ये सब बातें भगवान् की कृपा से होती हैं और भगवान् की कृपा हम पर है ही- यह मान लेना चाहिए। जो मान लेता है, वह लाभ उठा लेता है। 'सब भगवान् के स्वरूप अपने पर बड़ी भारी कृपा हुई कि मनुष्य का शरीर मिला, जल्दी हैं' - ऐसा मान लें तो हमारे लिए सब भगवान् के स्वरूप हैं। कल्याण होने वाले कलियुग में और अध्यात्म-प्रधान भारत में जन्म मिला। इसमें भी गीता जैसे शास्त्र सस्ते मूल्य में मिलते हैं और समय-समय पर भगवान् की चर्चा मिल जाती है। अब परम लाभ उठा लेना चाहिए।

किसी भी प्रकार से अपने व्यापार से सम्बन्ध हो जावे तो उसका कल्याण हो जावे- यह हमारे से ऊँचा बनने की बात है। मैं सूते का काम करता था। यदि बाजार गिर गया, उस समय बाहर गाँव से कोई लेने वाला आता तो कह देता था कि बाजार गिर गया है; कम माल लेना चाहिए। इस समय से २ महीना पहले दिवाली पर सूत का भाव १८ रुपये १२ आना था। रूई का भाव गिर गया। यह नीति कायम करने का विचार है कि एक सप्ताह में ४ आने घटा देवें तो लेने वाले को बतला दिया कि ४ सप्ताह में एक रुपया घटेगा। इस पर भी वह ले जावे तो अपने को दोष नहीं देवे।

प्रधान बात काम करने वालों पर निर्भर करती है। गीताप्रेस के मालिक तो हम हैं ही, किन्तु यदि कोई हमारी सम्मति नहीं मानकर अपनी बुद्धि से ही काम करे तो हम लड़ाई करके भी उसको मना किस तरह कर सकते हैं ? वह कभी हमको हमारे कहे अनुसार काम करने में अड़चन दिखा देता है तो हम चुप हो जाते हैं।

इस घोर कलिकाल में सरकारी कानून में रहकर काम कर लेवे, उसको धन्यवाद देते हैं। इसके साथ यदि कोई उदारता एवं त्याग का व्यवहार भी करे तो और धन्यवाद दें; तथा करना नहीं पड़े, स्वतः होवे तो और धन्यवाद देते हैं। कठिन क्या है, किन्तु कठिन मान रखा है। हम पीछे हट जाते हैं; क्या करें ?

बात तो उन लोगों को हमारी माननी चाहिए, किन्तु हम उन लोगों की बात मानते हैं- घनश्यामजी, बजरंग बाबू, शुकदेवजी, गंगा बाबू आदि की। आप लोग काम में नहीं लाओ तो हम हाँ में हाँ कर देते हैं। भगवान् के बल पर कमजोरी दूर करनी चाहिए। काम हुआ ही पड़ा है, केवल बहादुरी हम लोगों को मिलनी है। जिनके सिर पर ईश्वर का हाथ है, उनके लिए कोई कठिन नहीं है; क्योंकि ईश्वर के लिए कठिन हो तो हम लोगों के लिए कठिन होवे, लेकिन अपने सिर पर से ईश्वर का हाथ हटाकर करें, तब तो असम्भव है- यह बात ठीक है। फिर भी भगवान् पर लांछन लगाते हैं- जबरदस्ती करके।

एक महात्मा के जिम्मे होकर काम करें तो सुधार हुआ पड़ा है। घर के एक अच्छे आदमी के जिम्मे होकर काम करें तो सुधार हो सकता है, फिर गीताप्रेस एवं गीताप्रेस सम्बन्धित काम तो ऊँचे दर्जे का है ही, अतः सुधार हुआ पड़ा है। किस ढंग से करें ? आप लोगों की मदद न मिलने के कारण हमारे में कमजोरी आ जाती है।

करने का प्रकार- स्वर्गाश्रम में साग तरकारी का पैसा बतला दिया; साग ले जाओ, पैसे दे जाओ। यह और ऊँचे दर्जे की चीज है कि फालतू आदमी ही नहीं रहे। साग तरकारी, पोस्टकार्ड, लिफाफा, दूध, अनाज- जो माँगे, उसको तौलकर दे देवे; भाव पूछे तो बता देवे; पैसे देवे तो ले ले, नहीं तो भगवान् का भण्डारा कर देवे।

- उसमें जो घाटा लगे, उसकी पूर्ति कहाँ से होगी ?
- उसमें कमी रहे ही नहीं, क्योंकि वह भगवान् का भण्डार है।

सामूहिक काम में मदद की आवश्यकता पड़ सकती है, व्यक्तिगत में नहीं; इससे आगे मदद माँगने की जरूरत ही नहीं पड़ती है। भाव ही प्रधान है।

ये बातें ही इतनी प्यारी लगती हैं; यदि काम में लाओ तो कितना अच्छा लगे ! जीवन बदल जावे !

पुस्तकों में पढ़ते हैं कि तुलाधार के सैकड़ों, हजारों आदमियों की माल लेने की भीड़ रहा करती थी। आजकल भी भीड़ रहती है, किन्तु उस भीड़ में दूकानदार का महत्त्व नहीं है, सरकार का महत्त्व है। उस भीड़ में और इस भीड़ में रात, दिन का फर्क है।

महाराज युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञ में दान देने वालों की भीड़ लगी थी, वह देखने लायक थी। अश्वमेध यज्ञ में दान लेने वालों की भीड़ लगी थी- जो जितना माँगे, उससे दस गुणा देना।

(वहाँ पर नेवले का आना, उसका आधा शरीर सोने का होना- वह कथा सुनाई।)

सत्संग के अमूल्य वचन-

भगवान् से मिलने की इच्छा हो तो भगवान् के लिये तल्लीन हो जाओ।

भगवान् की लगन लग जावे तो सब समय भगवान् का भजन होने लग जावे।

परमात्मा के सिवाय संसार की किसी भी वस्तु का चिन्तन करे ही नहीं। भगवान् के चिन्तन, स्मरण में ही लगा रहे।

त्रिलोकी का दान भगवान् के क्षण-भर के भी ध्यान के बराबर नहीं है।