मेरे द्वारा धारण किए हुए जीवनचर्या के नियम
राजाजी की सभी बातें अनुकरणीय हैं- सत्संग के बीच में बोलने को छोड़कर। टाइम पर आना, नियमित रूप से साधन करना, शरीर थोड़ा अस्वस्थ रहते हुए भी सत्संग में आना- यह उनका आदर्श है। (जिन राजाजी की बात श्रद्धेय श्रीसेठजी बता रहे हैं, वे छतीसगढ़ के अन्तर्गत सीतामऊ के राजा रामसिंहजी थे। वे श्रद्धेय श्रीसेठजी के अनन्य सत्संगी थे और श्रीसेठजी के सत्संग में प्रायः आया करते थे।)
पुराने जमाने के बहुत-से महात्माओं के चरित्र का खयाल आ गया। बखतरनाथजी महाराज रतनगढ़ में बगीची में रहते थे। हमारे मामा मुरलीधरजी का उनसे बहुत प्रेम था। बखतरनाथजी में बहुत वैराग्य था। उनमें वैराग्य, उपरति, जप, ध्यान प्रधान था। वे सुबह जल्दी ही भिक्षा लेने चले जाते और रात की बची हुई । रोटियाँ ही लेते; करीब २० रोटियाँ ले आते (एक हफ्ते की रोटियाँ एक साथ ले आते)। कच्ची झोंपड़ी में रहते। एक घड़ा पानी ले आते। दिन के प्रारम्भ में एक सेर (लगभग एक लीटर) पानी में रूखी-सूखी रोटी को भिगो देते। फिर भजन-ध्यान करने बैठ जाते। २-३ घण्टे में रोटी एकदम पानी में गल जाती तो रोटी को उस पानी में खूब घोलकर पानी की तरह कर लेते और पी लेते। इस प्रकार वे रोटियाँ एक सप्ताह तक चलती। ऐसी भिक्षा किसी के काम की नहीं है, क्योंकि वैसे देखो तो बासी रोटी तामसी होती है, किन्तु वैराग्य के सामने सब कानून माफ है। वे किसी से विशेष मिलना-जुलना नहीं करते। वैसे तो साधु के लिये संग्रह करना ऊँचे दर्जे की बात नहीं है, किन्तु एक वैराग्य के सामने माफ है।
बखतरनाथजी जब चूरू में रहते, तब कुंजलालजी बजाज और मैं बखतरनाथजी महाराज के पास गये। आध्यात्मिक विषय की बात चली, तब महाराज मेरी तरफ इशारा करके बोले कि- 'इसको पूछ लो, यह ठीक बताएगा।'
कुंजलालजी बोले कि- 'मेरी तो आपके वचनों में श्रद्धा है। '
महाराज बोले कि- 'हमारे में श्रद्धा कहाँ है ? मैंने तो कह दी।' (तात्पर्य यह है कि मेरे में यदि श्रद्धा होती तो जो आध्यात्मिक विषय की बात मेरे से पूछी है, वह मेरे कहने से जयदयाल (श्रद्धेय श्रीसेठजी) से पूछ लेते; प्रतिवाद नहीं करते। )
एक बार चूरू में अकाल पड़ा। बद्रीनारायण घनश्यामदास मंत्री ७ पीढ़ी से पंच थे। उन्होंने अकाल में गायों के वास्ते ५-१० हजार मन की बागड़ लगाई हुई थी (यानी गायों के लिये २००-४०० टन चारे का स्टॉक किया हुआ था)। वे महाराजजी के पास गए और बोले— 'कोई सेवा बताइये।'
महाराजजी बोले- ‘गायें अकाल में बहुत तकलीफ पा रही हैं। सुनते हैं कि आपके यहाँ चारे की बागड़ (स्टॉक) है। फिर वह क्या काम आएगा ?'
वे बोले- 'अभी समय नहीं आया है।'
महाराजजी बोले- 'समय तो आ गया; और अब आपकी मर्जी।'
वे वापस आ गए। रास्ते में एक महाराजजी के श्रद्धालु व्यक्ति उनसे बोले कि- 'महाराजजी का ऐसा हुक्म मिल गया था ! आपने उनकी बात नहीं मानकर बहुत बड़ी गलती की !'
उस समय लोग इस बात की प्रतीक्षा किया करते थे कि महाराजजी हमें कोई बात का आदेश दें और हम उसकी पालना करें। सकामी लोग उस समय ज्यादा थे।
चिम्मनलालजी सर्राफ (गोपाल के पड़दादा) साईंजी महाराज की बहुत सेवा करते। साईंजी महाराज का पंजाबी शरीर था। वे ध्यान में मस्त रहते। एकदम नंगे (दिगम्बर) रहते। रात में कुत्ता उनके साथ में सो जाता, रोटी खा लेता तो उनको कोई अड़चन नहीं होती। साथ में सो जाओ, चाहे खा लो। वे अपने हाथ से खाते नहीं; कोई खिलाता तो खा लेते।
बखतरनाथजी महाराज के पास एक बार मैं और रामवल्लभजी सरावगी गये तो महाराज ने रामवल्लभजी को कीड़ियों (चींटियों) को दलिया डालने की बात कही। तब मैंने भी पूछा- 'मैं भी कौड़ियों को दलिया डाल दूँ ?' तो महाराज ने कहा कि- 'तेरी इच्छा बड़ी है' (यानी भगवत्प्राप्ति की इच्छा है, वह इससे नहीं हो सकेगी)।
बिलासरायजी भुवालका के एक बार पैरों में कोई रोग हो गया था और डॉक्टर ने उनको कहा कि- 'ऑपरेशन करके पैर काटना पड़ेगा, नहीं तो यह रोग पूरे शरीर में फैल जायेगा।' वे ऑपरेशन करवाने के लिये कलकत्ता जाने की तैयारी करके बखतरनाथजी महाराज से मिलने गये; तो महाराज ने पूछा कि- 'कहाँ जा रहे हो ?' तो उन्होंने कलकत्ता जाकर पैर कटवाने की पूरी बात बताई। तब महाराज ने कहा कि- 'यह कीड़ीनगरा रोग है (पहले कैंसर के रोग को बोलचाल की भाषा में कीड़ीनगरा कहते थे)। इसमें पैर कटवाने की क्या बात है ? कीड़ियों को बाजरी पसन्द है। घर जाओ और बाजरी के आटे को पैरों पर कुछ दिन बाँध लेना।'
उनकी महाराज के वचनों में श्रद्धा थी। उन्होंने वैसे ही किया; कुछ ही दिनों में उनका रोग ठीक हो गया।
( श्रद्धेय श्रीसेठजी के द्वारा स्वयं की बातें बतलाई गई ) - कई बातें नियमों में स्वभावसिद्ध हो गई हैं। ६० वर्ष करीब हो गए। धारण करने के बाद छोड़ी नहीं। नुकसान की बात करने में दोष है।
(१) भगवान् के नाम का जप पहले करता था, फिर होने लगा।
(२) साकार, निराकार का ध्यान। यह किसी से बातें होते हुए भी हो सकता है, परन्तु जप नहीं हो सकता है।
(३) भगवान् विष्णु की मानसिक पूजा- प्रेम-भक्ति-प्रकाश पुस्तक के अनुसार (गीताप्रेस से प्रकाशित, जिसका कोड नं. २९९ है)। सबसे पहले यह पुस्तक चक्रधरपुर में बनाई थी।
(४) पहले ध्यान, पूजा, आरती, स्तुति, प्रार्थना - सब उसी प्रकार चलता है। एक दिन भी नियम भंग नहीं होता। ५० वर्ष से भी ज्यादा हो गए हैं।
(५) गायत्री जप, सन्ध्योपासना- दोनों समय की। सूर्योदय, सूर्यास्त से पहले सन्ध्या करना। ५६ वर्ष हो गए।
(६) विष्णुसहस्रनाम का पाठ ।
ध्यान, पूजा की बात बाद की भी हो सकती है।
(७) गीता पाठ।
(८) सप्त श्लोकों की भागवत ।
(९) विष्णोरष्टाविंशति स्तोत्र |
(१०) आनन्दमय निर्गुण-निराकार का ध्यान।
मौन होकर भोजन करना और जितना पाना हो, उतना एक बार में ही ले लेना।
जल और दूध के अतिरिक्त भोजन में तीन चीजों से अधिक नहीं लेना- ३० वर्ष हो गए।
दो बातें छोड़ दी - सूर्य स्तोत्र का पाठ एवं सूर्य पूजन । १० वर्ष करके छोड़ दिए।
व्यापार में एक ही बात बेचने में, खरीदने में। प्रश्न के रूप में पूछ सकते हैं।
कपड़ा हाथ का बुना हुआ पहनना; मील का बना हुआ एवं नील लगा हुआ नहीं पहनना ।
चमड़े की कोई चीज व्यवहार में नहीं लानी। (४० वर्ष)
बाजार की बनी हुई चीज नहीं खानी ।
होम्योपैथिक और ऐलोपैथिक खाने की दवाइयाँ या इन्जेक्शन काम में नहीं लेनी; शरीर के ऊपर लगाने का काम पड़ा है।
सोडावाटर, लेमोनेड़, भाँग, वर्क काम में नहीं लेने।
गुलाबजल, इत्र काम में नहीं लेने- वैराग्य की दृष्टि से।
खोमचा बाजार की चीजें काम में नहीं लाते।
यात्रा में रेल के डिब्बे से नीचे उतरकर, गंगाजल से बनी हुई दूध, घी की चीजें काम में लेते हैं। यात्रा में कुएँ के जल की बनी हुई भी काम में नहीं लेते। रेल के डिब्बे में खाना-पीना एवं कुल्ला भी नहीं करते।
अछूत के हाथ का पानी नहीं पीना।
बाजार के साग काम में नहीं लाना ।
उषणा चावल, बाजार के पापड़ काम में नहीं लाने।
सैण्ट, सत, पोदीने के फूल वगैरह काम में नहीं लाने ।
कली किए हुए बर्तन काम में नहीं लाने।
दियासलाई चौके (रसोई) में नहीं लेना।
जो कपड़ा रोज धोया जावे, वही चौके में ले जाना। ऊनी या केटिया काम में लाया जा सकता है।
नशे की चीज काम में नहीं लानी। मादक वस्तु, मदिरा तो छूनी ही नहीं।
बाइस्कोप (सिनेमा) नहीं देखना ।
रास नहीं देखना । सौगन्ध तो नहीं है।
लड़के, लड़कियों के गाल पर हाथ नहीं लगाना।
महा- अपवित्र चीजें छूनी नहीं- मदिरा, मांस, अण्डा।
अपवित्र चीजें काम में नहीं लानी- लहसुन, प्याज आदि ।
जमाया हुआ कपूर काम में नहीं लाना ।
अगरबत्ती, धूप की बत्ती काम में नहीं लानी।
गाजर, बैंगन, गोभी का फूल, कुन्दरी (मसूर), शलजम नहीं खानी - लहसुन, प्याज की तरह ।
जानकर झूठ नहीं बोलना।
दूसरे की चीज छिपाकर नहीं लेनी ।
किसी को धोखा नहीं देना ।
झूठ, कपट, चोरी, बेईमानी, दगाबाजी, इन्कमटैक्स-सैल्सटैक्स की चोरी, ब्लैक-मार्केटिंग नहीं करना।
रेलवे एवं सरकार को नुकसान पहुँचाकर कर्मचारियों को रिश्वत नहीं देना।
जानकर हिंसा नहीं करनी।
जहाँ तक हो सके, अपनी सब क्रियाएँ निष्कामभाव से करनी।
अन्याययुक्त स्वार्थ की सिद्धि नहीं करनी। न्याययुक्त तो करते ही हैं, जिस तरह घनश्याम के घर की चीजें काम में लाते हैं। गीताप्रेस की चीज बिना जानकारी के आ जावे, तो अन्याययुक्त है।
जिसमें अपना हक नहीं हो, वहाँ की चीज में ग्लानि रखनी चाहिये। न्याय, अन्याय का अपने मन से पूछ लेवे। बदला हो तो हो। प्रेम होवे तो वहाँ न्याय है। आपत्तिकाल के समय में न्याययुक्त व्यवहार, जैसे धर्मशाला में रुकने का काम।
बिना पैसे दिए दूसरे की चीज नहीं लेनी ।
अपने लड़कों को स्कूल में मुफ्त में नहीं पढ़ाना।
गाय का दूध १ नम्बर, बकरी का २ नम्बर, भैंस का ३ नम्बर; और बाकी सब निषेध। इसी तरह घी की बात है। गाय सात्त्विक, बकरी राजसी और भैंस तामसी होती है; और सब त्याज्य हैं।
धोबी के धोए हुए कपड़े दुबारा धोकर पहनना ।
प्रश्न- भगवान् श्रीराम के दर्शन कैसे हुए ?
उत्तर- स्वप्न में। किसी ने जोर से आवाज दी; मैंने किवाड़ खोला। चूरू की बात है। संदेशवाहक आया, बोला कि- 'श्रीरामजी आये हैं और आपके लिये यहाँ ठहरे हैं। विमान लेकर आए हैं।' मैं संदेशवाहक के साथ गया। विमान खूब चमक रहा था। घर से आधा मील दूर की बात है। बहुत बड़ा विमान था; ताजिया से १० गुणा बड़ा। उसमें सीढ़ियाँ थी। सीढ़ियाँ चढ़ा, तब अँधेरा था। एकदम ऊपर खूब रोशनी थी। विमान धानुका की धर्मशाला से दक्षिण की तरफ खड़ा था। ऊपर विमान में उत्तरमुख लक्ष्मणजी और पूर्वमुख श्रीरामजी कुर्सी पर बैठे थे। मैं वहाँ हाथ जोड़कर खड़ा हो गया।
लक्ष्मणजी ने पूछा- 'यह कौन है ?'
रामजी बोले- 'जयदयाल है। इसी के लिए यहाँ ठहरे हैं।' रामजी मेरे से बोले- 'तू अपनी माँ सीता के पास जाकर सो जा।' मैं जाकर सो गया, लेकिन नींद नहीं आई; तब दुबारा आकर उनके चरणों के पास में खड़ा हो गया।
भगवान् बोले- 'क्या चाहता है ?"
मैं बोला- 'कोई इच्छा नहीं। '
वे बोले- 'अब जा।'
मैं बोला- 'अब नहीं जाऊँगा ।'
भगवान् बोले- 'अब तुमको जाना पड़ेगा।'
मैंने देखा कि अब तो जाना ही पड़ेगा तो मैंने पूछा कि 'कितने दिन यहाँ रहना पड़ेगा ?' बोले- '७२ वर्ष।'
मैं बोला- 'इतने वर्ष नहीं रहूँ।'
तो वे बोले- 'पहले क्यों स्वीकार किया ?"
इस तरह जिद्द करते हुए आँख खुल गई। ७२वाँ वर्ष जेठ बदी सम्वत् २०१४ को समाप्त होवेगा। मैंने अपने मन में कहा कि- 'स्वप्न की बात है, आदर नहीं देते।' उस समय १६-१७ वर्ष की उम्र थी।