लोगों में पुण्यों के पालन की इच्छा, चेष्टा नहीं रहती है, किन्तु फल चाहते हैं
हमारी ७५ वर्ष की उम्र हो गई, अब थोड़ा ही जीना है, ५-१० वर्ष की नहीं कही जा सकती है। कलियुग में ज्यादा-से-ज्यादा १०० वर्ष की उम्र है। यह विचार आता है कि आप लोग तैयार होओ, तब काम होवे ।
दवाई - पानी में यह आसरा नहीं लेना चाहिए कि कोई महात्मा राख की चुटकी दे देवे तो लाभ हो जावे। अपने कर्म तो करना, किन्तु फल नहीं चाहना। आप लोग तो जो कुछ हम कहें, वही करें; फल की तरफ नहीं देखें। हमारी बात को काम में लावें तो कल्याण हो सकता है- इसकी हमारी जिम्मेदारी है।
लोगों में यह बात है कि पुण्य के पालन की इच्छा, नहीं रहती है, किन्तु फल चाहते हैं; बिना किए फल होता नहीं है। पाप का फल नहीं चाहते हैं, किन्तु पाप खूब करते हैं- चेष्टा
पुण्यस्य फलमिच्छन्ति पुण्यं नेच्छन्ति मानवाः ।
न पाप फलमिच्छन्ति पापं कुर्वन्ति यत्नतः ॥
दुःख सभी को होता है। पाप के बिना दुःख होता नहीं । ज्ञानी को भी किसी निमित्त से दु:ख प्राप्त हो जाता है, किन्तु उसके विकार नहीं आता है। बहुत ऊँचे दर्जे की बात है कि संसार को विनाशशील, अनित्य समझे; इसकी सत्ता मालूम दे तो उसे मिथ्या माने।