कोई मरता होवे तो सत्संग छोड़कर भी वहाँ भगवन्नाम सुनाने के लिये जाना चाहिए
मैं तीन बातें सबसे ज्यादा दामी समझता हूँ-
(१) खुद भजन-ध्यान करना और निरन्तर करना ।
(२) दूसरों में भजन- ध्यान का प्रचार करना।
(३) निष्कामभाव से सेवा करनी ।
दूसरों में भजन-ध्यान का प्रचार करना- व्याख्यान देना, आध्यात्मिक पुस्तकों का प्रचार करना, मरणासन्न को भगवन्नाम सुनाना। मरने के समय भगवन्नाम सुनाने वाला काम सबसे ज्यादा विशेष है; यह एक नम्बर का काम है, उससे अपनी तुरन्त मुक्ति हो जाती है।
उसी में दूसरों में भजन-ध्यान का प्रचार करना, मेरी कही हुई और स्वामीजी की कही हुई सत्संग की बातें दूसरों को सुनानी- यह दो नम्बर का काम है।
आध्यात्मिक पुस्तकों का प्रचार करना - यह तीन नम्बर का काम है।
कोई मरता होवे तो मैं सत्संग छोड़कर भी वहाँ भगवन्नाम सुनाने के लिये चला जाऊँ !
ये तीनों चीजें प्रचार के अन्तर्गत हैं- गीता का प्रचार करना, मृतक के पास भगवन्नाम सुनाना, सत्संग, स्वाध्याय- ये सब प्रचार में है।
खुद भजन - ध्यान करना, निरन्तर करना- भजन-ध्यान करने वाली बात व्यक्तिगत बात है, केवल अपने से सम्बन्धित है।
निष्कामभाव से सेवा करनी- (१) लौकिक (२) पारलौकिक दोनों ही ।
(१) लौकिक सेवा- शरीर से, रुपयों से या वस्तु आदि से सेवा करनी; जिस सेवा से सेवा प्राप्त करने वाले को इस लोक में सुख मिले।
(२) पारलौकिक सेवा- जिस सेवा से सेवा प्राप्त करने वाले को पारमार्थिक विषय का लाभ मिले।
सेवा में निष्कामभाव जुड़ जावे तो कर्ता की मुक्ति हो जावे । सांसारिक सेवा भी निष्कामभाव से करे तो मुक्तिदायक है- ध्यानात्कर्मफलत्यागः (गीता १२ / १२) कर्ता का निष्कामभाव होना चाहिए। सांसारिक सेवा निष्कामभाव से हो तो वह सकाम ध्यान से श्रेष्ठ है। भाव के कारण इतना फर्क है। यह सिद्धान्त की बात बतलाई गई है।
मैं एक बात यह कहता हूँ कि घनश्याम (दास जालान) बीमार चल रहा है, भाईजी बीमार चल रहे हैं; मैं बीमार तो नहीं हूँ, किन्तु शरीर का क्या भरोसा है ? हमारी अवस्था की तरफ खयाल किया जावे तो हमको भी विदा होना ही है। पीछे जितने आदमी बचे, उनमें ज्यादा उम्र वाले ही अधिक हैं, कम उम्र वाले उतने नहीं हैं। संस्था की रक्षा की जिस प्रकार हमारे इच्छा रहती है, उससे ज्यादा विचार वाले आदमी संस्था में चाहते हैं। हम लोगों को चेष्टा तो रखनी चाहिए। इस समय जितने आदमी बैठे हैं, उनके मन में यह बात आ जावे कि गीताप्रेस संस्था चलानी है तो स्वयं के (निजी) काम की अपेक्षा इस काम को ज्यादा महत्त्व देवें। इसकी चीज को निजी काम में लाने को ग्रहणकाल के दाने के समान समझना चाहिए (नोट- सूर्यग्रहण, चन्द्रग्रहण के समय अन्नदान करने का बहुत महत्त्व है, परन्तु उस अन्न को लेने वाले को उसे पचाने के लिए बहुत जप-तप करना आवश्यक होता है)। यह विचार पहले के जमाने में बहुत ज्यादा था, आजकल बहुत कम रह गया है।
अच्छी संस्था में परिश्रम करना बहुत अच्छा है। कोई आदमी इस संस्था से काम करने के लिए तनख्वाह लेकर भी परमात्मा की प्राप्ति का लाभ कर सकता है। दूसरा आदमी तनख्वाह नहीं लेकर भी उतना लाभ नहीं उठा सकता है।
मैं बाँकुड़ा रहकर महाभारत आदि का काम करता हूँ और गीताप्रेस में तार (टेलीग्राम) वगैरह देता हूँ, उसका पैसा ले लेऊँ तो हर्ज की बात नहीं है, किन्तु गीताप्रेस का बहुत ही कम कीमत का भी कोई सामान लेकर अपने काम में लेऊँ, तो वह ठीक नहीं है।
इस मकान का किराया घनश्याम आदि हम लोगों से कम लेते हैं। वे यदि किराया ज्यादा लेवें, तो आपत्ति नहीं है, किन्तु गीताप्रेस के आदमी से निजी काम लेवें तो वह ठीक नहीं है। गीताप्रेस के आदमी से काम करावें तो उसको पारिश्रमिक दे देवें. किन्तु वह भी दो नम्बर की बात है; एक नम्बर नहीं है। उससे काम नहीं लेना एक नम्बर है। एक नम्बर का काम रहने से परहेज ज्यादा रहेगा। दो नम्बर रहने से परहेज कम हो जाता है। मान लो - यहाँ से कुछ आदमी प्रेस के काम के लिए बाँकुड़ा ले गये; वह खर्चा यहाँ के खाते में लिखने में आपत्ति नहीं है, किन्तु उनसे हमारा निजी काम करावें तो उचित नहीं है। व्यवहार में इस विषय में सबको सुधार करना चाहिए।
मैं तो यहाँ तक पाप समझता हूँ कि मान लो कि मुझे मोटर (कार) की आवश्यकता पड़ी और घनश्याम के नाम से सब चीजें हैं, किन्तु यदि पता गीताप्रेस का लिखवा देवें तो उचित नहीं है। कारण क्या है ? यह प्रभाव क्यों डाला कि मैं गीताप्रेस का प्रेसिडेन्ट हूँ ? निजी काम के लिए नहीं। वहाँ तो जयदयाल गोयन्दका हूँ; बाँकुड़ा में दूकान है।
लादूरामजी पहले प्रेस में काम करते थे, किन्तु चीणी (शक्कर) आदि का काम व्यक्तिगत करते थे, तो हम लोगों को भारी लगता था; अब भाईजी के जँवाई करें, तो अनुचित है। दुर्गाबाबू गीताप्रेस में बैठकर निजी काम के लिये गीताप्रेस के टेलीफोन से बात करें तो उचित नहीं है। गीताप्रेस से बाहर जाकर करो। बाहर भी नहीं जाना चाहिए- क्योंकि अपने समय और काम में हर्जा होवे।
गीताप्रेस के हम लोग ८ ट्रस्टी और १५ मेम्बर हैं। मैं कोई काम करना चाहता हूँ तो १५ के १५ हाँ कर देवेंगे, क्योंकि मैं स्वार्थ नहीं चाहता हूँ। यदि स्वार्थ चाहूँगा तो नीचे दबना पड़ेगा।
आप सब आदमी यदि मन में यह धारणा कर लेंगे कि गीताप्रेस के रुपये तथा अन्य चीजों में ग्लानि करनी और काम करने में बढ़कर काम करना- तो आप लोगों का जीवन बदल जावेगा। जैसे एकादशी व्रत किया, दिनभर निराहार रहे, सायँकाल स्यामक (सामख) में २-४ मूँग चले गए तो एकादशी का व्रत भंग हो गया। ऐसे ही थोड़ा भी दोष हो जावे तो अपना पतन है। आप लोग जितने काम करते हो, मैं हृदय से समझता हूँ कि जो केवल गीताप्रेस से भोजन-वस्त्र ही लेते हैं- जैसे शुकदेवजी, गंगा बाबू, चौबेजी- वह तो उनके लिये प्रसाद है ही; बाकी जो तनख्वाह लेने वाले भाई हैं, वे भी त्यागपूर्वक काम करते हैं- यह मानता हूँ। हमारे ऊपर इस बात की छाप है। जब औरों पर छाप है तो मैं समझता हूँ कि भगवान् पर भी छाप है। हमें यह मालूम हो जावे कि अमुक आदमी गीताप्रेस पर भार है तो साम, दाम, दण्ड, भेद से उसे निकालने की चेष्टा करते हैं। १००/- रुपये लेते हैं तो १५०/- रुपयों का काम करना चाहिये।
जितने आदमी यहाँ बैठे हैं, सबके प्रति हमारा हृदय से भाव है कि यह गीताप्रेस का काम परमात्मा की प्राप्ति में सहायक है। ऐसी संस्था में जो पैसे लेकर भी काम नहीं करना चाहते, उनकी तो मैं गलती मानता हूँ, बेसमझी मानता हूँ। हाँ, १००/- रुपये लेकर १५०/- रुपये का काम करना चाहिए। जो १००/- रुपये लेकर ५०/- रुपये का काम करे, उसको तो हाथ जोड़कर दूर से ही विदा कर देते हैं।
हम में जितनी बुद्धि है, उतनी नहीं लगावें तो यह बुद्धि की चोरी है। इसी प्रकार ज्ञान की, मन की, समय की, परिश्रम की और सब इन्द्रियों आदि की चोरी की बात है। २००/- रुपये लेते हैं और ३००/- रुपये का काम करते हैं तो ५०/- रुपये, १००/- रुपये बढ़वा लेना तो उचित है, किन्तु चार आने की भी चीज यहाँ से ले जाएँ, वह अनुचित है।
तुलाधार वैश्य का उदाहरण भी यहाँ नीचे दर्जे का है। ऊँचे दर्जे का उदाहरण सामने रखेंगे, तब जाकर नीचे दर्जे पर ठहरेंगे। मुक्ति तो इससे भी हो सकती है। मान-बड़ाई तो कलंक है, उसको तो मैले की बौछार की तरह समझना चाहिए।
स्वार्थ का त्याग करके व्यवहार करना चाहिए। इस प्रकार का मौका और संयोग पाकर भी उद्धार नहीं कर सकें तो भविष्य में क्या आशा रखी जावे ? इस मौके पर बहुत जल्दी सुधार हो। सकता है, केवल श्रद्धा की कमी है। इसमें अज्ञान हेतु है। आप लोगों में शक्ति, योग्यता है, आप इसे (अज्ञान को) दूर कर सकते हो; नहीं तो भगवान् से भी माँग सकते हो। नहीं माँगना और भी उत्तम है; फिर तो भगवान् को ही नजर रखनी पड़ेगी। जैसे किसी स्त्री के कपड़े फट गए; उससे कहा कि तुम अपने ससुर को क्यों नहीं कहती हो ? तो वह बोली कि- 'क्या उनको दिखता नहीं है (कि बहू के कपड़े फट गए हैं) ?' इसी प्रकार भगवान् को भी तो दिखता है।
यहाँ जितने आदमी हैं, उनको परमात्मा की प्राप्ति होनी कठिन नहीं है, बल्कि गीताप्रेस को मुक्ति की टकसाल बनावें। जो लोग दूर-दूर से देखने आवें, वे यह भाव लेकर जावें कि वे भी जाकर ऐसी संस्था खोलने का विचार करें। सार्वजनिक लाभ ही अपने लाभ है। हमें तो सोलह आना (१००%) समय काम में लगाना चाहिए। पारमार्थिक काम का दर्जा बहुत ऊँचा है। स्वार्थ त्यागकर, उदारतापूर्वक, निष्कामभाव से काम करना चाहिए । जगत्-जनार्दन की सेवा करनी है। सबमें भगवद्-बुद्धि होगी तो वह सेवा दामी (मूल्यवान) बनेगी। 'मैं तो केवल निमित्तमात्र हूँ'- यह बहुत ऊँचे दर्जे का भाव है। उच्च कोटि की सेवा का भाव रखना चाहिए। यह भाव हम लोग कर सकते हैं। भगवान् ने हम लोगों को जो कुछ भी दिया है, वह भगवान् के काम में लगाना चाहिए। सारा धन परमात्मा का है, हम तो उनके नौकर हैं। जिस व्यक्ति ने अपने धन, वस्तु, सामग्री पर अपना अधिकार जमा रखा है, वह अपना नहीं है। सब धन परमात्मा का है, हम उनके नौकर हैं। अपने अधिकार तो सब हटने वाले हैं; जिस दिन यमराज के दूत पहुँचकर ललकार लगा देंगे तो सब छोड़कर जाना पड़ेगा। मैं आपकी और आप मेरी मदद करें तो यह परस्पर ज्ञान बढ़ाने की बात है, यहाँ काम करने की बात है, फल एक ही है। यह भक्तिसहित कर्मयोग है, यह बहुत बढ़िया मार्ग है। (धन अपना नहीं है, यह सब भगवान् का है- यह बात अपना ज्ञान बढ़ाने की है। यहाँ पर बात निष्कामभाव से सेवा करने की है- यह खास बात है। इस बात का गीताजी में भगवान् ने अर्जुन को उपदेश दिया है।) भगवान् ने इसी का उपदेश गीताजी के अन्त में अर्जुन को दिया है-
गीता १८/५६ - यह कानून सबके लिए।
१८/५७, ५८, ५९ - यह कानून अर्जुन के लिए।
भगवान् का सिद्धान्त बड़े ऊँचे दर्जे का है। परमात्मा की प्राप्ति कोई कठिन चीज नहीं है और इससे बढ़कर भी कोई चीज नहीं है, वह इस समय हो सकती है। कर्मयोग, भक्तियोग से हो सकती है; दोनों मिल जावें तो और भी जल्दी हो सकती है। मन में निराशा नहीं लानी चाहिए। शंका की बात ही क्या है ? सब साधन मौजूद हैं।
सर्व कर्माण्यपि सदा कुर्वाणो मद्व्यपाश्रयः ।
मत्प्रसादादवाप्नोति शाश्वतं पदमव्ययम् ॥
(गीता १८/५६)
अर्थात्- मेरे परायण हुआ कर्मयोगी तो सम्पूर्ण कर्मों को सदा करता हुआ भी मेरी कृपा से सनातन अविनाशी परमपद को प्राप्त हो जाता है।
गीताजी में कर्म के साथ सदा शब्द बहुत कम आया है: यहीं आया है। पिछले श्लोकों को लक्ष्य करके कहा है कि वह तो सब काम छोड़कर करने का मार्ग है, यह (गीता १८/५६) सब कर्मों को सदा करते हुए का मार्ग है। अर्जुन को निमित्त बनाकर यह सबके लिए कहा है। गीता १२/७ में 'नचिरात्' और गीता ९/३०-३१ में पापी के लिए 'क्षिप्रं' शब्द है। हम लोग तो बीच में आ गए, अतः अपने लिए तो है ही (यहाँ श्रद्धेय श्रीसेठजी का भाव यह लगता है कि हम लोग न तो अनन्य भक्त ही हैं और न सुदुराचारी ही हैं; बीच के हैं)।
सुगम भी है- गीता ८/१४, ९/२२- इन सबको याद करके कभी चित्त में निराशा नहीं करनी चाहिए। मान लो कि हम गौशाला में गए, गायों का काम सँभालने के लिये गए, मोटर में गए और मोटर में आए, वहाँ रोटी खाई; अपना कोई अन्य काम नहीं था। उसमें नीति से विचार करने की आवश्यकता नहीं है, फिर भी वहाँ का जो खर्चा लगा, उसके पैसे देने का विचार अच्छा है। भगवान् ने कहा है-
य इमं परमं गुह्यं मद्भक्तेष्वभिधास्यति ।
भक्तिं मयि परां कृत्वा मामेवैष्यत्यसंशयः ॥
(गीता १८/६८)
अर्थात्- जो पुरुष मुझ में परम प्रेम करके इस परम रहस्ययुक्त गीताशास्त्र को मेरे भक्तों में कहेगा, वह मुझ को ही प्राप्त होगा- इसमें कोई सन्देह नहीं है।
न च तस्मान्मनुष्येषु कश्चिन्मे प्रियकृत्तमः ।
भविता न च मे तस्मादन्यः प्रियतरो भुवि ॥
(गीता १८/६९)
अर्थात्- उससे बढ़कर मेरा प्रिय कार्य करने वाला मनुष्यों में कोई भी नहीं है तथा पृथ्वीभर में उससे बढ़कर मेरा प्रिय दूसरा कोई भविष्य में होगा भी नहीं ।
भगवान् का भाव समझो, चाहे हमारा भाव समझो- उनका प्रचार करें तो उससे बढ़कर हमारा प्यारा और कोई नहीं है। हमारा, भाईजी का, भगवान् का सबका एक ही भाव है। सब भाइयों को खूब प्रचार करना चाहिए। आपको यह समझना चाहिए कि जयदयालजी, घनश्याम (दास जालान) हम लोगों को मदद कर रहे हैं। गीताप्रेस की टेप निकालकर दो तो आपत्ति नहीं है (नोट- उस जमाने में प्रवचन तव्वा जैसे काले, गोल, सपाट, घूमने वाले टेप पर एक सूई की तरह दिखने वाले यंत्र से रिकॉर्ड किये जाते थे)। खूब प्रचार होना चाहिए। यह असली सेवा है।
सत्संग के अमूल्य वचन-
आप लोगों को यह धारणा करनी चाहिये कि अपना कल्याण चाहे नहीं होवे, परन्तु हमारे प्रयत्न से यदि किसी का भी कल्याण हो जाय तो अपना जीवन सफल हो गया।
नाम-जप से सबका कल्याण हो जायेगा। नाम-जप में हिंसा नहीं है और यह नामी से भिन्न नहीं है, इसलिये भगवान् ने गीता (१०/२५) में जप-यज्ञ को अपना स्वरूप बतलाया है।
जब तक देह में प्राण हैं, तब तक कटिबद्ध होकर भगवान् की प्राप्ति कर लेनी चाहिये। भगवान् के भजन-ध्यान में निरन्तर लगे रहना चाहिये।
भगवान् ने बहुत सुगम रास्ता बता दिया है कि- 'तू मेरा निरन्तर स्मरण कर, फिर मैं शीघ्र ही मृत्युरूप संसार-समुद्र से उद्धार कर दूँगा।' (गीता १२ / ६-७ )