किसी आदमी की मेरे से मिलने की उत्कट इच्छा होती है, तो उससे मिलना हो जाता है (श्रीशुकदेवजी की बीमारी अवस्था में उनसे बातचीत)
आप मुझ को हर वक्त अपने नजदीक समझा करो।
(१) यह बात कहने की नहीं थी, किन्तु शुकदेवजी की बीमारी है, इसलिये कही है। किसी आदमी की मेरे से मिलने की टाण (उत्कट इच्छा) होती है और मेरा साक्षात् (शरीर से) आना नहीं होता है, किन्तु उससे मिलना हो जाता है और मुझे इस बात का पता ही नहीं रहता। ऐसी घटनाएँ कई घटी हैं, क्योंकि उसकी टाण है।
(२) हमारे भय होने का तो काम ही नहीं है, क्योंकि भय तो अज्ञान से होता है। जहाँ पर ज्ञान है, वहाँ भय का क्या काम ?
(३) शुकदेवजी के सामने स्त्रियाँ आती हैं तो इनको ध्यान ही नहीं देना चाहिये। उनके पास तो आती नहीं, हमारे पास आती हैं।
(४) न जीने की इच्छा करनी चाहिए, न मरने की इच्छा रहित हो जावे, क्योंकि इच्छा की हुई होती तो है नहीं।
(५) समता ही खास है। ब्रह्म सम है-
इहैव तैर्जितः सर्गो येषां साम्ये स्थितं मनः ।
निर्दोषं हि समं ब्रह्म तस्माद्ब्रह्मणि ते स्थिताः ।।
(गीता ५/१९)
अर्थात्- जिनका मन समभाव में स्थित है, उनके द्वारा इस जीवित अवस्था में ही सम्पूर्ण संसार जीत लिया गया है, क्योंकि सच्चिदानन्दघन परमात्मा निर्दोष और सम है, इससे वे सच्चिदानन्दघन परमात्मा में ही स्थित हैं।
सत्संग के अमूल्य वचन-
सब का हित अधिक-से-अधिक हो, ऐसी चेष्टा रखनी चाहिये।
भगवान् की स्मृति और भगवान् का लक्ष्य रखते हुए ही काम करना चाहिये।
दो बात की तरफ लक्ष्य रखे- हर समय भगवान् की स्मृति रहे और स्वार्थ का त्याग।
अपना साधन होता है, वह परमात्मा की कृपा से ही होता है।
हम लोगों को गीता याद करने के साथ-साथ अपना जीवन भी उसी के अनुसार ढालने की चेष्टा करनी चाहिये। गीतामय जीवन बनाना है।
हमको अच्छा एवं पवित्र काम निष्कामभाव से करना चाहिये। कर्म में निष्कामता की प्रधानता है। निष्कामभाव से करने से ही आत्मा का कल्याण हो सकता है।