जो माता-पिता की भक्ति करता है, उसके पीछे-पीछे भगवान् फिरते हैं
जो माता-पिता की भक्ति करता है, उसके पीछे-पीछे भगवान् फिरते हैं; तो फिर जो भगवान् की भक्ति करे, उसकी तो बात ही क्या है ! (भक्त पुण्डरीक की कथा बतलाई।)
जो भगवान् से प्रेम करते हैं, उसके पीछे-पीछे भगवान् फिरते हैं। ऊँचे साधक मुक्ति को नहीं चाहकर भक्ति चाहते हैं, भगवान् को नहीं चाहकर उनसे प्रेम चाहते हैं। भगवान् से जो प्रेम करता है, वह भगवान् के हृदय में अपनी चाह पैदा कर देता है, इसलिए भगवान् उसको चाहते हैं। भगवान् स्वतः उससे मिलेंगे।
सबमें भगवान् विराजमान हैं, इसलिए सबसे प्रेम करना चाहिए। आसक्ति नहीं करनी चाहिए, प्रेम करना चाहिए। सांसारिक विषय-भोगों में प्रीति और आसक्ति है, वह डुबाने वाली है। भगवत्प्रीत्यर्थ, भगवद्-बुद्धि से किसी से प्रेम करते हैं, वह असली है। स्वार्थ का त्याग करके, निष्कामभाव से भगवत्प्रीत्यर्थ प्रेम करना चाहिए। यह भी किसी को कहने की आवश्यकता नहीं है कि मैं स्वार्थ त्यागकर, निष्कामभाव से आपसे प्रेम करता हूँ। बिना कुछ चाहे प्रेम करना है, वही निष्काम प्रेम है। इसके तत्त्व को समझने से परमात्मा की प्राप्ति बहुत जल्दी हो जावे। यह बात समझने में सहज और करने में भी सहज है। लज्जा, मान, प्रतिष्ठा को कलंक के समान समझकर ठुकरा देवे। ममता, अहंकार से रहित होकर सेवा करे। उसे ही साधन माने। ऐसा साधन भजन-ध्यान से भी बढ़कर है। यह भक्ति-सहित कर्मयोग है। इसमें भक्ति ज्यादा हो जावे तो भक्ति-प्रधान कर्मयोग हो जावे। यह सबके काम की चीज है।
कोई बात कही जाती है, वह किसी को लक्ष्य करके कही जाती है। माताओं-बहिनों का प्रश्न था, उनको लक्ष्य करके यह बात कही गई है, पर है यह सबके काम की। जैसे अर्जुन को लक्ष्य करके गीता कही गई है, पर है सबके काम की। बहुत दामी बात है, बहुत रहस्य की बात है। यह साधनकाल में भी सुगम है- सुसुखं कर्तुम् (गीता ९/२); चीज भी सबसे बढ़कर उत्तम है। हँस-हँसकर बड़े उत्साह के साथ करे। भगवान् की सेवा करता हूँ- यह भाव रखकर करे। सेवा करते वक्त वाणी और बर्ताव में विनयभाव, कोमलभाव, सरलभाव रहे। ऐसा करने पर एक ही दिन में बहुत लाभ हो सकता है।
सबसे बढ़कर परमात्मा की प्राप्ति है। वह प्राप्ति हमको ही होवे- इस भाव से उत्तम भाव यह है कि हम सबको होवे। उससे भी उत्तम- 'हमको भले ही देर से होवे; औरों को हो जाए। सबका कल्याण हो, उद्धार हो ऐसी चेष्टा करनी।'
सबको भगवान् की भक्ति में लगाना चाहिए। घर वालों को और दूसरों को सत्संग में लाने की चेष्टा करनी चाहिए। सत्संग में नहीं आ सकें तो पुस्तक, लेख, व्याख्यान, रिकॉर्ड (अर्थात् ऑडियो टेप) आदि उसके यहाँ पहुँचाने की चेष्टा करनी चाहिए। यह भी नहीं होवे तो एक ऐसा उपाय है कि वह 'ना' नहीं कर सकता है। वह यह है कि जो अच्छी पुस्तकें (तुलसीकृत रामायण, गीता, भागवत आदि) हैं, उनके लिए उनसे विनयपूर्वक कहे कि
'यह पुस्तकें थोड़ी देर हमें सुनाया करो; आधा घण्टा ही सुनाया करो।' वह 'ना' नहीं कर सकता है। यह सुनना ही असली सेवा है। अपने हृदय में यह भाव रखना चाहिए कि इसके सुनाने से और हमारे सुनने से हम दोनों का कल्याण है। वह सौ बातें सुनाएगा तो दो-चार बातें उसको पकड़ ही लेंगी। कोई व्यक्ति कोयले की खान में जाएगा, तो वह चाहे कितना ही बचाव करे, कालिख लगेगी ही। अपने तो यह चाहे कि बढ़िया भोजन मैं अकेला ही क्यों खाऊँ, घर वाले सब खावें। घर वाले ही क्यों, मित्रों को भी, बहू के पीहर वालों को, बेटी के ससुराल वालों को भी खिलाना चाहिए (अर्थात् उनको भी सत्संग में जाने हेतु एवं अच्छी पुस्तकें पढ़ने हेतु प्रेरित करना चाहिए)। सौ रुपये के दहेज से भी बढ़कर पाँच रुपये की पुस्तकें देना ज्यादा लाभदायक हैं। मन का भाव इस प्रकार का रखना चाहिए कि हर एक प्रकार से लोगों को (पारमार्थिक) लाभ हो। सबका कल्याण हो, उद्धार हो- ऐसा भाव करना चाहिए एवं चेष्टा करनी चाहिए कि सब कोई इस ओर लगें। ऐसा भाव आपका होगा तो एक दिन भगवान् आपको अपना अधिकार सौंप सकते हैं, क्योंकि यह भगवान् का भाव है। जो भगवान् का भाव रखता है, वही इसका पात्र है।
सत्संग के अमूल्य वचन-
कलियुग में प्रभु थोड़े भजन से ही मिल जाते हैं। हमको यह मौका मिला है। अब इसे नहीं छोड़ें।