जिसका राग-द्वेष और हर्ष-शोक जितना कम है, वह उतना भगवान् के नजदीक है
जिसका राग-द्वेष और हर्ष-शोक जितना कम है, वह उतना भगवान् के नजदीक है। (राग-द्वेष और हर्ष-शोक) जिसके जितना ज्यादा है, वह उतना ही भगवान् से दूर है। भगवान् कहते हैं-
यो न हृष्यति न द्वेष्टि न शोचति न काङ्क्षति ।
शुभाशुभपरित्यागी भक्तिमान्यः स मे प्रियः ॥
(गीता १२/१७)
अर्थात्- जो न कभी हर्षित होता है, न द्वेष करता है, न शोक करता है, न कामना करता है तथा जो शुभ और अशुभ सम्पूर्ण कर्मों का त्यागी है- वह भक्तियुक्त पुरुष मुझ को प्रिय है।
भगवान् का काम समझकर उनका गुमास्ता ( मुनीम, नौकर) बनकर उनके हुक्म के अनुसार निष्कामभाव से कार्य करे, तो यह कार्य ही भगवत्प्राप्ति में सहायक हो जाए। सत्संग की टाण (उत्कट अभिलाषा, लगन) भी भगवत्प्राप्ति में सहायक होती है।
भगवान् की प्राप्ति के उद्देश्य से कोई काम किया जावे तो वह भजन, ध्यान के समान है।
कर्मों का फल और उनमें आसक्ति का त्याग करके काम करने से वह निष्काम कर्म होता है। हमारे यहाँ से संचालित होने वाले विभिन्न कार्यों का उद्देश्य यह है-
गीताप्रेस का काम - सत्संग की पुस्तकों को छापना एवं उनके प्रचार का उद्देश्य। गीताप्रेस की पुस्तकों की दुकानों द्वारा पुस्तकों का प्रचार तथा कल्याण का प्रचार ।
गीता भवन, स्वर्गाश्रम में - सत्संग, साधन-भजन एवं गंगा किनारे वास ।
ऋषिकुल, चूरू द्वारा - ब्रह्मचर्य आश्रम, जिसमें बालकों को वैदिक सनातन शिक्षा मिले।
गोविन्द भवन, कलकता - शुद्ध घी, हिंसारहित चूड़ियाँ, जूते और कपड़े लोगों को मिलें।
दोनों कागज एजेन्सियों का काम - कागज प्रचार का उद्देश्य नहीं है, किन्तु उसकी कमाई सत्कार्य में लगती है एवं गीताप्रेस आदि में रुपये तो खर्च होते ही हैं। रुपये कमाने का उद्देश्य होने से ही पाप, प्रमाद प्रवेश कर जायेंगे।
भगवत्प्राप्ति के उद्देश्य से काम करने से काम करते समय प्रसन्नता होगी और काम मुक्ति देने वाला होगा; इसलिये काम इसी उद्देश्य से करना चाहिए। यदि निन्दा, अपमान बुरा लगता है। तो इसका मतलब है कि हम मान, बड़ाई चाहते हैं। निन्दा, अपमान अमृत के समान लगता है तो हम भगवान् के निकट पहुँच रहे हैं। निन्दा को यदि ठुकराते हैं तो निन्दा नहीं चाहते, स्तुति चाहते हैं।
सच्ची निन्दा का भी असर नहीं पड़ना चाहिए; झूठी की तो बात ही क्या है !