ईश्वर ने हम लोगों पर बड़ी दया की, जिससे हमारा सम्बन्ध गीताप्रेस से किया
ईश्वर ने हम लोगों पर बड़ी दया की, जिससे हमारा सम्बन्ध गीताप्रेस से किया। यहाँ से गीता, रामायण आदि का प्रचार होता है। यहाँ पर सब हिन्दू भाई हैं, एक भी मुसलमान नहीं है। घनश्यामदास जालान विशेष चेष्टा करते थे; उसकी हिन्दुओं एवं गरीब, दुःखियों के लिए विशेष चेष्टा थी। उसने हिन्दुओं के द्वारा कपड़ा बनाने का काम शुरु किया था, किन्तु दुर्भाग्यवश बन्द हो गया। हम लोगों के लिए भगवान् ने कितनी सुविधा कर दी है, जरा विचार करो-
(१) यहाँ राजनीतिक विषयक बातें नहीं छपती ।
(२) यहाँ से किसी मादक वस्तु का प्रचार नहीं होता।
(३) यदि 'कल्याण' (गीताप्रेस द्वारा प्रकाशित मासिक पत्रिका) में विज्ञापन लेवें तो एक लाख रुपये आ सकते हैं, किन्तु वह हमारे सिद्धान्त के विरुद्ध प्रचार होगा। हमारा सिद्धान्त गीता, रामायण आदि के प्रचार का है-
गीता सुगीता कर्तव्या किमन्यैः शास्त्रविस्तरैः ।
या स्वयं पद्मनाभस्य मुखपद्माद्विनिःसृता ॥
(गीता माहात्म्य ४)
अर्थात्- जो साक्षात् कमलनाभ भगवान् विष्णु के मुखकमल से प्रकट हुई है, उस गीता का ही भलीभाँति गान (अर्थ सहित स्वाध्याय) करना चाहिये, अन्य शास्त्रों के विस्तार से क्या प्रयोजन है ?
दिन-प्रतिदिन गीता, रामायण, भागवत, 'कल्याण- पत्रिका' आदि का प्रचार बढ़ ही रहा है। 'कल्याण' की पहले ५-७ हजार प्रतियाँ छपती थी, फिर धीरे-धीरे ५०-७० हजार होते हुए, फिर एक लाख १५-१६ हजार होते हुए, अब डेढ़ लाख हो गई हैं। गीता, रामायण हम लोग माँग के अनुसार पूरी दे नहीं सकते। रामायण ७ रु. ५० पैसे वाली हम दे नहीं सके तो वह बाजार में ११-१२ रुपये में बिक गई।
यह हॉल सत्संग के लिए बनाया गया है। आप लोगों तथा हम लोगों के लिए कल्याण का बड़ा सरल मार्ग है। भारतवर्ष में शायद ही ऐसा कोई स्थान हो । प्रूफ रीडरों के सामने प्रूफ आता ही रहता है (यानी गीता, रामायण, भागवत, सत्संग आदि के ही प्रूफ रीडिंग के लिए आते हैं, जिससे लाभ होता ही है)। फोटो छापने वालों के सामने भी भगवान्, ऋषि, मुनि, भक्त एवं महात्माओं के चित्र सामने रहते हैं। उनकी स्मृति स्वाभाविक 'भगवद्-भाव में ही रहती है।
मशीन पर छापने वालों के सामने भी फर्मा रहता है। वे उठाकर पढ़ें या सुनें, तो सब जगह उपदेश की ही बातें हैं। कम्पोज करने वालों के सामने सत्संग के अक्षर रहते हैं। सबको ऐसा भाव रखना चाहिये कि भगवान् की सेवा कर रहे हैं. भगवान् का काम कर रहे हैं। भाव तो ऊँचे-से-ऊँचा रखना चाहिए। थोड़ी-सी इच्छा रहने पर यहाँ काम करते समय भगवान् के नाम का जप स्वाभाविक ही हो सकता है-
जबहिं नाम हिरदै धरयो, भयो पाप को नाश ।
जैसे चिनगी अग्नि की, परी पुराने घास ॥
हम जो काम करते हैं, उसके लिए मन में कभी भी यह विचार नहीं करना चाहिए कि हमको इस काम की तनख्वाह मिलती है। आपके द्वारा जो काम हो रहा है, उस काम का मूल्य कोई चुका नहीं सकता है। यह काम तो अमूल्य है, इसका मूल्य करना (इसकी कीमत आँकना) इस काम का अपमान है। (तनख्वाह के रूप में) जो प्रसाद मिलता है, वह बाल-बच्चों के लिए भगवान् का प्रसाद है।
यहाँ काम करते हुए भगवन्नाम का जप स्वाभाविक ही कर सकते हैं। नाम-जप करने के कारण यदि सेवा करने वालों से आना, दो आना (वर्तमान माप के अनुसार ६%, १२%) काम कम भी हो, तो हम लोगों को (अर्थात् प्रबन्धकों को) सहन करना चाहिए।
(टिप्पणी- दि. १-४-१९५७ से पूर्व भारतवर्ष में एक रुपये में १६ आना और एक आना में ४ पैसे (१२ पाई) हुआ करती थी।)
आप जो क्रिया करते हैं, वह उत्तम है; फिर भाव भी उत्तम हो तो सोना और सुगन्ध ! ऐसा करने में कोई परिश्रम नहीं है, बल्कि प्रत्यक्ष में शान्ति है। इसमें (अर्थात् भाव बनाने में) कोई खर्च नहीं है, समय नहीं लगता है तथा किसी का नुकसान भी नहीं है। इसके अनुसार क्रिया करने से लाभ होगा। हम लोग भगवान् की प्रजा के रूप में हैं, इसलिए सब भाई-भाई हैं। हमारा तो उदारभाव इतना विशाल होना चाहिए कि सबका कल्याण हो- ते प्राप्नुवन्ति मामेव सर्वभूतहिते रता: (गीता १२/४) (अर्थात्- वे सम्पूर्ण भूतों के हित में रत और सबमें समान भाव वाले योगी मुझको ही प्राप्त होते हैं)।
तुलसीदासजी कहते हैं-
परहित बस जिन्ह के मन माहीं । तिन्ह कहुँ जग दुर्लभ कछु नाहीं ॥
(श्रीरामचरितमानस ३/३१/९)
फिर कहते हैं- दूसरे के हित के समान कोई धर्म नहीं है-
पर हित सरिस धरम नहिं भाई । पर पीड़ा सम नहिं अधमाई ॥
(श्रीरामचरितमानस ७/४१/१)
अपनी शक्ति के अनुसार तन, मन, धन से सबका उपकार करना चाहिए। जो दूसरों का हित चाहता है, उसका हित भगवान् करते हैं। दूसरों के हित में ही अपना हित है।
महाराज युधिष्ठिर का व्यवहार- दुर्योधन सेना लेकर पाण्डवों को नष्ट करने के लिए वन में गया (वह प्रसंग सुनाया)।
पाण्डवों की पहचान का उपाय- विराटनगर में हैं (वह प्रसंग सुनाया)।
सत्संग के अमूल्य वचन-
किसी के भी साथ व्यवहार करें, उस व्यवहार में ये चार बातें रहनी चाहिएँ- प्रेम, उसका सम्मान, उसका हित और सत्य।