हम यदि भगवान् की कठपुतली बन जावें तो भगवान् अपने कहे अनुसार नाचें
जो स्वतन्त्रता पूर्वक अपनी दूकान का काम करते हैं, उसमें केवल रुपये ही तो मिलते हैं, मुक्ति थोड़े ही मिलती है। गीताप्रेस का काम क्या दूकान से भी कम है ?
जैसे कप्तान कहे और सैनिक चलता रहे, उसी प्रकार मैं कहूँ और आप लोग चलो तो मुक्ति की मैं गारण्टी देता हूँ।
प्रेमी को तो भगवान् ढूँढ़ते हैं, क्योंकि भगवान् कहते हैं कि- 'उनके चरणों की धूलि मेरे शरीर पर पड़ जावे तो मैं पवित्र हो जाऊँ।'
हम यदि भगवान् की कठपुतली बन जावें तो भगवान् अपने कहे अनुसार नाचें।
भगवान् के मिलने का उपाय सीधा है, सरल है- वेद की वाणी की तरह। गीता के बहुत-से श्लोक हैं। संसार में भगवान् नहीं मिलकर महात्मा भी मिल जावे तो भी कल्याण हो जावे। महात्मा का मिलना दुर्लभ है; अगर मिल जाएँ तो उनको पहचानना मुश्किल है। जो भगवान् को प्राप्त हो गए, वे अपने को रास्ता तो बता ही सकते हैं। उनके बताए हुए के अनुसार साधन करने से भवसागर से पार हो जावे।
मैं जो आपको गीता, रामायण की बातें बतलाता हूँ, उनमें कोई मेरी बात थोड़े ही है, सब भगवान् की बातें हैं। मन में दृढ़ धारणा कर लो कि इन्हें काम में लानी है। काम में लाने में प्रधान श्रद्धा है।
महात्मा सबकी रक्षा कर सकते हैं। हम सब से महात्मा की रक्षा नहीं होवे। महात्मा की रक्षा क्या करनी है ? - महात्मा पुरुष कायम रहे तो वह हम सबकी रक्षा कर लेंगे।
हम किसी को महात्मा मान लें तो अपने लिए तो वह महात्मा ही है।
अपने को क्या करना है ? जो सेनापति कहे, - उसके कहे अनुसार, उसके सिद्धान्त के अनुसार, उसके मन के अनुसार करें तो अपनी जीत है।
मनुष्य कर्तव्य पालन करते-करते मरे तो उसका निश्चय ही कल्याण हो जावे। जो साधन में शूरवीर है, वही क्षत्रिय की तरह है।
'श्रद्धा' शब्द बहुत ऊँचे दर्जे का है। समय नहीं है, जल्दी चेतना हो तो चेतो। कल घनश्याम चला गया; हमने भी कमर कस रखी है (अर्थात् कभी भी जाना हो सकता है)। आप लोगों का भी समय जा रहा है।
जो भगवान् का काम है, वह हमारा काम है। बद्रीदासजी एते में श्रद्धेय श्रीसेठजी के काकाजी) को रेल में बैठे हुए को र वाली सीट में जो जंजीर लगी रहती है, उसके छेद में से भगवान के दर्शन कराए थे।
(नोट- उन दिनों रेल में ऐसी जंजीर हुआ करती थी । )
आप लोग मुझे सन्तुष्ट करा देओ तो मैं आप लोगों को सन्तुष्ट करा दूँगा। मैं और स्वामीजी कहें, वैसे ही करो तो काम जल्दी बन जावे। अपनी शक्ति के अनुसार चेष्टा करो।
सेनापति कहे, उसी तरह से करो, उसी में अपनी विजय है। हार-जीत, नफा-नुकसान जो है, वह भगवान् का है; उससे अपना कोई सम्बन्ध नहीं है। उसके फल की तरफ नहीं देखें-
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन ।
मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि ॥
(गीता २/४७)
अर्थात्- तेरा कर्म करने में ही अधिकार है, उसके फलों में कभी नहीं। इसलिए तू कर्मों के फल का हेतु मत हो तथा तेरी कर्म न करने में भी आसक्ति न हो।
अपने तो सेनापति के कहे अनुसार चलें। अगर सेनापति की गलती होगी तो वह स्वयं भुगतेगा। उसकी गलती का दण्ड अपने को नहीं मिलेगा।
अहंकार का और भगवान् का वैर है, अपने कर्तव्य के पालन में कमी है। गीता २/४७ को काम में लावें तो भगवान् अपनी खुशामद करें; खुशामद ही नहीं, अपना बोझ ढोवें, जैसे नरसीजी के यहाँ भगवान् ठीक समय पर आए और अपने-आपको उनका गुमाश्ता बतलाया। अब से लेकर मृत्यु तक भगवान् को नहीं भूलें तो फिर भगवान् अपने को नहीं भूल सकते-
अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जनाः पर्युपासते ।
तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम् ॥
(गीता ९/२२)
अर्थात्- जो अनन्यप्रेमी भक्तजन मुझ परमेश्वर को निरन्तर चिन्तन करते हुए निष्कामभाव से भजते हैं, उन नित्य-निरन्तर मेरा चिन्तन करने वाले पुरुषों का योगक्षेम मैं स्वयं प्राप्त कर देता हूँ।
वे कहते हैं कि- 'मैं उसका वाहन बन जाता हूँ।'