Seeker of Truth
॥ श्रीहरिः ॥

हम जब तक कोई काम नहीं छोड़ते हैं, तो आप क्यों छोड़ो

प्रवचन सं. ३७
दि. २६-१२-१९५६, प्रातः ८.०० बजेश्रीघनश्यामदासजी के मकान पर

हम जब तक कोई काम नहीं छोड़ते हैं तो आप क्यों छोड़ो ? आप तो हमारे पीछे हो ।

भीष्मजी के जीवन से हम सबको भी शिक्षा लेनी चाहिए। उनके शरीर में दो अंगुल जगह भी खाली नहीं थी, जहाँ अर्जुन का बाण नहीं लगा हो, फिर भी उन्होंने शर-शय्या पर सोए हुए ही युधिष्ठिरजी को कई दिन तक उपदेश दिया। हम लोगों के जरा-सी चोट लग जाती है तो हम बोल नहीं सकते।

हरिकृष्ण (श्रद्धेय श्रीसेठजी के छोटे भाई) पहले अस्पताल की सेवा का काम देखा करता था। वह जब बीमार पड़ा तो उसे डॉक्टरी (एलोपैथिक) दवाई के चित्र बार-बार याद आते थे। मैंने उससे कहा कि- 'जब तू ठीक हो जावे तो अस्पताल के काम से इस्तीफा दे देना।' तब से हमारे डॉक्टरी दवाई के बारे में छाप पड़ी कि इसका सम्पर्क होने से भी इतना असर हो जाता है, इसलिए डॉक्टरी दवाई के लिए हम मना करते हैं और इन दवाइयों में अशुद्ध वस्तुएँ भी होती हैं।

अपने तो यह चेष्टा रखनी चाहिए कि गीता, रामायण, भागवत आदि ग्रन्थ लोगों के घरों में पहुँचा देवें; पीछे चाहे वे गल ही जावें। कोई भूले-भटके भी पढ़ लेगा तो उसका जीवन सफल हो जायेगा।

सत्संग के लिए जगह (स्थान) बनाने में रुपये लगाने वाले को, मेरे जैसे लगवाने वाले को और ठहरने वालों को- तीनों को ही फायदा होता है। जो जितना पुण्य मानता है, उसको उतना ही पुण्य होता है। कोई साधु या भिखारी हमसे दान में कपड़ा ले गया; वह यदि यह माने कि इस कपड़े को पहनने से मेरा कल्याण हो जायेगा तो उसका कल्याण हो जायेगा।

आप लोगों ने नई मान्यता खड़ी कर ली कि हमारी मानी हुई मान्यता से काम होता नहीं है, तो ऐसी मान्यता को हटा देना चाहिए। जैसे ऋषिकेश जाते हैं और यदि यह मान्यता कर लें कि अबकी बार भगवत्प्राप्ति होगी; किन्तु साथ में दूसरी भावना भी होती है कि- 'प्राप्ति होती तो नहीं' यह खास मान्यता है, तब - भगवान् किस तरह मिलें ? आगे के लिए हम लोगों को ऐसे संस्कार जमने ही नहीं देना चाहिए।

अभ्यास- नित्य-निरन्तर, दीर्घकाल तक, सत्कारपूर्वक,

दृढ़ अभ्यास- कितने विशेषण लगाए ! (स तु दीर्घकालनैरन्तर्य- सत्कारासेवितो दृढभूमिः (पातञ्जलयोगदर्शन समाधिपाद सूत्र १४)

अर्थात्- किन्तु वह पूर्वोक्त अभ्यास दीर्घकाल पर्यन्त, निरन्तर व्यवधानरहित, ठीक-ठीक श्रद्धा, धैर्य, भक्तिपूर्वक अनुष्ठान किया हुआ दृढ़ अवस्थावाला हो जाता है।

कोई भी काम करना, वह भगवान् के लिए ही करना; अपने लिए नहीं करना। ऐसा करने से पहले के कर्म भी समाप्त हो जाते हैं- समग्रं प्रविलीयते (गीता ४/२३) (अर्थात्- सम्पूर्ण कर्म भलीभाँति विलीन हो जाते हैं)।

ईंधन बहुत इकट्ठा हो जावे तो भी आग लगने के बाद उसे जलने में कितनी-सी देर लगती है - जबहिं नाम हिरदै धरयो, भयो पाप को नाश नाम को हृदय में धर लो; वहाँ से उठाओ मत। आप लोग गोपाल की बेगार काटते हैं, तब ज्यादा लाभ किस तरह से हो ?

(टिप्पणी- पूर्वकाल में 'गोपाल' नाम के एक राजा थे। उन्होंने अपने राज्य में यह घोषणा कर दी थी कि एक निश्चित आयु से अधिक उम्र वाले राज्य के प्रत्येक नागरिक को प्रतिदिन एक निश्चित संख्या में भगवन्नाम की माला फेरनी होगी। जो ऐसा नहीं करेगा, उसे दण्डित किया जाएगा। भगवद्भक्तों ने तो यह काम बड़े उत्साह से किया तथा राजाजी की प्रशंसा भी की. लेकिन अन्य सांसारिक लोग इस काम के लिए आपस में यह कहने लगे कि- 'चलो, गोपाल की बेगार भी काट लेते हैं।')

जैसे दिल से काम करेंगे, वैसी ही तो तनख्वाह मिलेगी। , साधन की चेष्टा भले ही कम हो, किन्तु मान्यता में कमी नहीं होनी चाहिए। श्रद्धा, भाव, प्रेम के आगे कुछ भी नहीं है। भाव धारण करने की चीज है।

भाव का उदाहरण- एक मनुष्य वृक्ष के नीचे भगवान् की प्राप्ति के लिये साधना कर रहा था। उसको नारदजी वहाँ से जाते हुए दिखाई दिए। उसने नारदजी से पूछा कि- 'आप भगवान् के पास जा रहे हैं। उनसे पूछना कि मुझे कब दर्शन देंगे ?'

नारदजी ने भगवान् से पूछा कि- 'उसको कब दर्शन दोगे ?'

भगवान् ने कहा कि- 'वह जिस वृक्ष के नीचे बैठा है, उस वृक्ष के जितने पत्ते हैं, उतने वर्षों के बाद उसको दर्शन होंगे।' नारदजी वापस आए; उस व्यक्ति ने नारदजी से पूछा कि- 'भगवान् ने क्या उत्तर दिया।'

नारदजी ने बताया कि- 'भगवान् ने कहा है कि जितने इस वृक्ष के पत्ते हैं, उतने वर्ष बाद दर्शन दूँगा।'

उसने पूछा कि - 'क्या ऐसा भगवान् ने कहा है !'

नारदजी बोले कि- 'हाँ, ऐसा स्वयं भगवान् ने कहा है।'

यह बात सुनकर उसका भाव बहुत बढ़ गया कि मेरे को भगवान् दर्शन देंगे ! उसके भाव के बढ़ने से भगवान् तुरन्त प्रकट हो गये। नारदजी भगवान् से बोले कि- 'आप तो कह रहे थे कि इतने वर्षों बाद दर्शन होंगे ?'

भगवान् ने कहा कि- 'उस समय यह जैसे साधना कर रहा था, उससे उतना ही समय लगता। अब इसका भाव इतना बढ़ गया है कि मुझे तुरन्त दर्शन देने पड़े। '

भाव बढ़ने से भगवान् तुरन्त प्रकट हो जाते हैं। उसके इतना भाव बढ़ गया कि मेरे जैसे तुच्छ मनुष्य को भी भगवान् दर्शन देंगे !

जानकारी का लाभ उठाना चाहिए और साधन अच्छे भाव से करना चाहिए। भगवान् ने तो हमारे ऊपर पूरा विश्वास कर रखा है कि- 'मैं मान लूँगा; आपके स्वयं के सन्तोष से हमारे सन्तोष है।'

सत्संग के अमूल्य वचन-

भगवान् से मिलने के सुख की तुलना में संसार का समस्त सुख सागर में एक बूँद के बराबर भी नहीं है।