हम गीताप्रेस के कार्यकर्ताओं को जिस रूप में देखना चाहते हैं, वैसा रूप दिखता नहीं है
प्रश्न- आपके मन के अनुकूल कैसे होवें ?
उत्तर- यह सवाल जाग्रत् रहने से (अर्थात् जब आप लोगों में यह जाग्रति रहेगी कि हम श्रद्धेय श्रीसेठजी के अनुकूल कैसे होवें तो आपके मन में ही नई-नई युक्तियाँ स्फुरित होंगी) । यह ही साधन है। यदि आप मुझ से अपने दोष पूछो, मैं बताऊँ और उसको सुनकर आपके मन में उस दोष के लिए सफाई देने की धारणा उत्पन्न होवे, तो मेरे मन में उस दोष को न कहने की ही आवे। वह दोष आप पूछो, तब दूर होवे। जिस बुद्धि से दूसरे के दोष देखते हैं, उसी बुद्धि से अपने दोष देखे ।
सबमें भगवद्भाव- यह एक नम्बर है। दो नम्बर- सबमें भगवान् हैं। तीन नम्बर- सबमें गुण-बुद्धि करे (अर्थात् सबमें गुण ही देखे, दोष नहीं)। यह भी न हो तो ईश्वर और महात्माओं में गुण-बुद्धि करे। इनमें अवगुण होते ही नहीं हैं। कोई दिख जावे, तो उस दोष की अवहेलना करे। शास्त्र पढ़ते हैं, उनमें तर्क से कहीं-कहीं दोष- बुद्धि हो जाती है। हमारे पास एक बड़ा हथियार है; हम कह देते हैं कि- 'इस शास्त्र का भाव हम समझे "नहीं" - इस प्रकार कहकर छोड़ देते हैं। ऐसे ही अवतारों के विषय में है। कह देते हैं कि- 'हमारे कृष्ण में तो दोष है नहीं। इस पुस्तक में जो बात दी गई है, सो हमारी समझ में नहीं आई।' ह हमारी कमी बता देते हैं। इस कमी का कहीं भी दण्ड नहीं है।
(१) सबमें भगवान् हैं या सब भगवान् हैं।
(२) सब चीज भगवान् की हैं। मैं भगवान् का हूँ और भगवान् मेरे हैं।
(३) भगवान् की प्रेरणा के अनुसार करे या भगवान् करवाएँ, वैसे करे।
(४) भगवान् के लिए कर रहा हूँ- उनकी प्रीति के लिए या भगवत्प्राप्ति के लिए।
अध्यात्म विषय में 'संसार का अधिक-से-अधिक हित कैसे होवे' - यह बार-बार स्फुरणा होती है, पर उपाय की तरफ दृष्टि जाती है तो अंधकार ही अंधकार दिखता है, चारों तरफ अंधेरा-ही-अंधेरा दिखता है। जिस तरफ भी दृष्टि फैलाते हैं, उस तरफ कोई भी सन्तोषजनक काम नहीं दिखता है। हम दोष नहीं देखने के लिए कहते हैं, पर हमें ही दोष दिखते हैं।
श्रीस्वामीजी ने कहा- आप दोष थोड़े ही देखते हैं। जो कमी है, वही तो दिखती है।
आप (श्रद्धेय श्रीसेठजी)- हम सब आदमियों को जिस रूप में देखना चाहते हैं, वैसा रूप दिखता नहीं है। कोई रास्ता भी नहीं दिखता है कि यह उपाय है। रास्ता हमारा देखा हुआ काम भी नहीं आता है; स्वयं आपको दिखे, वह काम आता है। हमारा कहा हुआ तो आपके पसन्द नहीं आता है; और आपके स्वयं के समझ आता में आता नहीं है। हम कहते हैं, वह आपके समझ में नहीं है। हम कहते हैं, वह आपके समझ में आवे, तब काम आवे। आप दोष पूछते हो, हम बता देते हैं, तो आपको सुनकर भारी लगता है। आपको स्वयं का दोष सूझता नहीं है, तब क्या बतावें ? आपको क्या दोष देवें; दोष तो हमारे में भी है।
सत्संग के अमूल्य वचन-
महात्मा पुरुष जब दूसरों से काम लेते हैं तो उन (सेवा-कार्य करने वालों) के हित के लिये ही लेते हैं।
महात्मा पुरुष प्रभु में ही मिल जाते हैं। प्रभु की पूजा ही उनकी पूजा है। उनके दर्शन, भाषण से तो क्या, उनके स्मरण से ही अन्त:करण पवित्र हो जाता है।
चाहे आग में घास डालें अथवा घास में आग डालें, वह आग ही बन जाती है, इसी प्रकार महात्मा के पास अज्ञानी जाए अथवा अज्ञानी के पास महात्मा जाए, वे अपनी ज्ञानाग्नि से उसके अज्ञान को मिटा देते हैं। ज्ञानी का संग, उनका दर्शन, भाषण, स्मरण- सभी महान् फलदायक हैं। जब एक दीपक से लाखों दीपक जल सकते हैं तो एक महात्मा से लाखों महात्मा क्यों नहीं हो सकते हैं ? महात्मा की आज्ञानुसार आचरण करने से महात्मा का तत्त्व जाना जाता है।
भगवान् की भक्ति का प्रचार करना चाहिये और लोगों को भक्तिमार्ग में लगाना चाहिये इससे बढ़कर कोई काम नहीं है। संसारी वस्तु का चिन्तन करना है, वह तो भगवान् से दूर होना है। जब-जब संसार का चिन्तन हो, तब-तब पश्चात्ताप करना चाहिये।