Seeker of Truth
॥ श्रीहरिः ॥

हर एक प्रकार से पुस्तकों की बिक्री बढ़ानी चाहिए

प्रवचन सं. ४३
दि. ८-११-१९५७, दोपहर २ बजे

मुसलमानों में आत्मबल है, हम लोगों में नहीं है। जिस-किसी प्रकार से अपने धर्म का प्रचार हो- ऐसी चेष्टा करनी चाहिए। अपने पास प्रेस है और मासिक पत्र (कल्याण) है। दफ्ती, क्राफ्ट, आर्ट, स्याही, कागज आदि सबका दाम बढ़ गया है, फिर भी पुस्तकों का दाम नहीं बढ़ाया है। रुपयों की फिक्र आप मत करो, आप तो प्रचार करो। आपको कहते नहीं कि आप चन्दा (डोनेशन) इकट्ठा करो। आप तो पुस्तकें, मासिक - पत्र आदि का प्रचार करो। इनके द्वारा लोगों को सुख पहुँचाना चाहिए।

संस्कृत विद्यालय का ज्यादा ध्यान रखो। अपने को धर्म से विरुद्ध प्रचार में मदद नहीं करनी है। स्कूलों में गीता, रामायण पढ़ाने के लिए अध्यापक रखने के लिए कलकत्ता में १०००/- रुपये महीना के खर्च के लिए कह दिया है।

हर एक प्रकार से पुस्तकों की बिक्री बढ़ानी चाहिए। 'कल्याण-कल्पतरु' बन्द हो गया, इसका लोगों के भी विचार है, हमारे भी विचार है, किन्तु गोस्वामीजी (श्रीचिम्मनलालजी गोस्वामी, तत्कालीन सह-सम्पादक 'कल्याण' एवं सम्पादक 'कल्याण- कल्पतरु') बोले- 'मैं दोनों काम नहीं कर सकता हूँ' - इस कारण से बन्द करना पड़ा। व्याख्यान, मासिक पत्र और पुस्तकों के द्वारा अपने भावों का प्रचार करना चाहिए। कोई गीताप्रेस देखने के लिए आवें तो सबके साथ ही ऊँचा-से-ऊँचा व्यवहार करना चाहिए; चाहे बड़ा आदमी हो या छोटा हो ।

यहाँ पर एक बढ़िया लॉरी (वाहन) मँगाकर पुस्तकों और कल्याण का प्रचार करें। जिस प्रकार सिनेमावाले अपना प्रचार करते हैं, उसी प्रकार हमें भी प्रचार करना चाहिए। हम लोगों को प्रचार एवं बिक्री- दोनों करनी चाहिएँ। गीताप्रेस में काम करने की अपेक्षा पुस्तकों आदि का प्रचार हमारी दृष्टि में ज्यादा अनुकूल (महत्त्वपूर्ण) है। गीताप्रेस की सब दुकानों में ज्यादा-से-ज्यादा पुस्तकें बिकनी चाहिएँ। पुस्तक प्रचार में ज्यादा-से-ज्यादा खर्चा होवे, तो भी हमें बर्दाश्त है। इसके लिए १००००/- रुपये साल के विज्ञापन पर खर्च करने के लिए आपको कहते हैं। आप भाई लोग एक महीना / बीस दिन में बैठकर (मीटिंग करके) विचार करो कि प्रचार किस तरह करना है। जहाँ पर लोगों को ईसाई बनाया जा रहा है, वहाँ पर गीताप्रेस के चित्र, अढ़ाई आने वाली गीता और रामायण के अलग-अलग काण्ड भिजवाए जायँ। ऋषिकुल में बालकों को पढ़ाते हैं; अपने मन के माफिक (अनुकूल) बालक नहीं बने हैं, किन्तु हताश नहीं होते हैं।

जिस तरह से धर्म का प्रचार हो, उसी तरह करना चाहिए। लोगों को नित्यकर्म का नियम दिलाना चाहिए। स्कूल, कॉलेज में गीता, रामायण की परीक्षा कायम करनी चाहिए; वहाँ की लाईब्रेरी में गीताप्रेस की पुस्तकें रखें। कोर्स में रखें- ऐसी चेष्टा करनी चाहिए। अध्यापकों को कुछ मासिक रुपये देकर इस तरह की चेष्टा करनी चाहिए। गीताप्रेस द्वारा प्रकाशित बालकों की पुस्तकें हर एक विद्यालय एवं अन्य स्थानों में प्रवेश कराने की चेष्टा करें। अपने तो प्रचार करना है। मैं तो यह कहता हूँ कि 'मैं मर जाऊँ, तो भी आप खूब प्रचार करना।' वर्तमान में जो पुस्तकों की बिक्री बढ़ रही है, उसमें हम लोगों की चेष्टा कारण नहीं है, अपितु हमारी पुस्तकें सस्ती हैं- यह कारण है। विवाह, मुकलावा, उपहार, पुरस्कार आदि में भी गीताप्रेस की पुस्तकें देनी चाहिएँ।

जो कुछ काम करें, वह भगवान् का ही काम करें (गीता ९/२७)। तन-मन भगवान् के अर्पण कर दें, फिर शरीर को रोटी देना भी भगवान् की सेवा है। इससे साधना में बहुत ज्यादा असर पड़ता है। हम जितने आदमी यहाँ बैठे हैं, वे सब यह निश्चय कर लें कि गीताप्रेस को परमात्मा की प्राप्ति की पाठशाला बनानी है। यहाँ पर जितने काम करने वाले हैं, वे सब तो मुक्त हो ही जावें; और जो आवें, वे भी मुक्त हो जावें।

सबकी सेवा भगवान् की सेवा है। दूसरों का गुण लेना चाहिए, अवगुण नहीं। जो अपने अवगुण खुद अपने मुँह से कहता है, उसके अवगुण टिक नहीं सकते है। मैं (किसी में कोई) अवगुण बतलाऊँ तो वह अवगुण निकलता नहीं है। आप परिहार (अपने अवगुणों से छूटने का उपाय) पूछो तो जल्दी निकल जाता है।

एक खुद का काम है और एक गीताप्रेस का काम है। खुद के काम की अपेक्षा प्रेस के काम को ज्यादा महत्त्व देना चाहिए। हम लोगों को तो प्रचार के लिए केवल लाउड स्पीकर की आवश्यकता है।

आपस में प्रेम बढ़ाना चाहिए। जैसे महानन्दजी और जयरामजी (गीताप्रेस के कार्यकर्ता)- दोनों का एक जैसा ही काम है। जयरामजी तो महानन्दजी के मन-माफिक करें और महानन्दजी जयरामजी के मन-माफिक करें। एक की राय में दूसरे की राय मिला दें। आपस में इस प्रकार रहने से प्रेम बढ़ता है। हम लोगों में से सेवा, त्याग, विनय और प्रेम टपकना चाहिए। परमात्मा की प्राप्ति के लिए समय-समय पर विचार करें। निष्कामभाव से सबकी सेवा करना बहुत ऊँचे दर्जे की चीज है। सेवा का काम खोजते रहना चाहिए। दूसरे के चित्त की प्रसन्नता को अपने चित्त की प्रसन्नता का आधार बनाना चाहिए। एक-दूसरे के लिए त्याग करने के लिए तैयार रहें। इसी प्रकार वैराग्य और ज्ञान का प्रचार करें।

आप जितने लोग हो, प्रेस के लिए उदारता का काम करते ही हो, किन्तु अब भी गुंजाइश बहुत है। जो आठ घण्टे काम करता है, वह २४ घण्टे काम करे। अपने ऊपर काम की इतनी जिम्मेवारी रखे कि काम समाप्त ही नहीं होवे। रामध्यानजी अपने लिए प्रेस से बहुत कम खर्चा लेते हैं। और ज्यादा खर्चा लेवें तो हमारे चित्त में प्रसन्नता होगी। उनको तो यह भाव रखना चाहिए कि भगवान् की सेवा के लिए खर्चा लेऊँ, अन्यथा घर वाले यहाँ पर नहीं रहने देंगे और गीताप्रेस की सेवा छूट जाएगी।

काम आठ घण्टे की जगह २४ घण्टे करे। मन से, शरीर से खूब काम करे। दो काम करें- (१) सबकी उन्नति किस प्रकार से होवे ? और (२) हर समय भगवान् को याद रखें।

काम सुचारु रूप से किस तरह से होवे ? पाँच चीजों की चोरी नहीं करे-

(१) पैसों की चोरी- पैसों की चोरी नहीं करे। दुकान अथवा संस्था के आदमी से निजी काम करावे तो उतने समय का पैसा अपने नाम लिखकर उस आदमी को दे देवे।

(२) समय की चोरी- भगवान् के दरबार में ८ घण्टे की जगह २४ घण्टा काम करे। सर्वस्व भगवान् को अर्पण कर रखा है। उसमें चोरी नहीं करे।

(३) शरीर के आराम की चोरी- शरीर बीमार नहीं पड़ जावे- यह तो विचार रखे, किन्तु ज्यादा काम करने की चेष्टा रखे।

(४) मन की चोरी- काम मन लगाकर करे।

(५) बुद्धि की चोरी- काम में बुद्धि, समझ की कमी न रखे।

अखबार पढ़ना, निन्दा करना, शरीर का आराम आदि की निगाह रखे (इनमें समय खराब नहीं करे)। भजन के समय मन का इधर-उधर जाना मन की चोरी है। गीता पढ़ते समय बुद्धि नहीं लगानी बुद्धि की चोरी है।

गायत्री जप ऊँचे दर्जे का करे। जिसने अपने-आपको भगवान् को समर्पित कर दिया है, उसके लिए जैसा बहीखाते (अकाउन्ट्स) का काम है, वैसा ही भजन है और वैसा ही सेवा का काम है; बल्कि वह अपने शरीर का काम करे, वह भी उसके लिए सेवा ही है। यदि उसके शरीर को दवाई की आवश्यकता है और वह समय पर उसे दवाई नहीं देता है तो यह उसका शरीर के प्रति अपराध है।

भगवान् की प्राप्ति में देरी क्यों हो रही है ? अपनी गलती से ही विलम्ब हो रहा है। अपने से जितना अधिक-से-अधिक काम हो सके, उतना करे; उतना नहीं करे तो यह चोरी है। कोई फालतू बातें करे तो उसको हाथ जोड़ लो; कह दो कि 'हमको तो काम करना है।' सेवा, भजन, ध्यान भगवान् का काम है। नाम-जप श्रद्धा, भक्ति, प्रेमपूर्वक और निष्कामभाव से करो। ये सब काम करते समय मान बड़ाई की भावना आना महीन (सूक्ष्म) गलती है। 'मैं त्यागी हूँ' इस अभिमान का भी त्याग करें।

ध्यान में कमी क्यों आने देनी चाहिए ? ऊँचे-से-ऊँचा ध्यान करो और निष्कामभाव से करो।

गीता का पाठ करो तो उसको जीवन में धारण करने की दृष्टि से करो। आज से ऐसे ही करना है। यदि आप इस प्रकार से करोगे तो जैसे मैं गीताजी का अर्थ, भाव बताता हूँ, आप उससे भी बढ़कर अर्थ, भाव बता सकते हो। उसमें एकदम प्रवेश हो जावें।

मानसिक पूजा में शान्ति और प्रेम क्यों नहीं आता है ? भगवान् की स्तुति, प्रार्थना करो; फिर उससे मिलने की उत्कण्ठा तो स्वतः ही होवेगी। प्रार्थना भगवान् सुनते क्यों नहीं हैं- इस बात के लिए रोना आना चाहिए। हमारे रोने से भगवान् के हृदय में दया आयेगी, क्योंकि वे दयालु हैं। यह प्रार्थना करें कि- 'आपमें मेरा विशुद्ध प्रेम होवे और निरन्तर होवे।' अभी आपकी माँग केवल ऊपर-ऊपर की है, हृदय की नहीं है। यदि भगवान् नहीं सुनें तो कहें कि - 'प्रभो ! हमारी बात क्यों नहीं सुनते हो ?' भगवान् के लिए आवश्यकता पैदा कर दो, फिर वे स्वतः आयेंगे।

उच्च कोटि का आचरण- यदि हमारे चरित्र देखकर दूसरा अनुकरण करे, तो वह अच्छा चरित्र है। यदि उससे भी बढ़िया चरित्र हो तो अनुकरण नहीं करना पड़े, उस चरित्र की हृदय में छाप पड़े ! उससे भी अच्छा चरित्र हो तो हमारे दर्शन से कल्याण हो जाय ! उससे भी ऊँचा चरित्र हो तो हमारे ध्यान से ही कल्याण हो जाय ! यदि उससे भी ऊँचा चरित्र हो तो हमारे चरित्रों के श्रवण से कल्याण हो जाय !

हम लेख लिखते हैं तो कितने आदमियों को लाभ होता है ! कितने लोग उन लेखों को पढ़ते हैं !

भगवान् की कानून है कि-

ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम् ।

मम वर्त्मानुवर्तन्ते मनुष्याः पार्थ सर्वशः ।

(गीता ४/११)

अर्थात्- हे अर्जुन ! जो भक्त मुझे जिस प्रकार भजते हैं, मैं भी उनको उसी प्रकार भजता हूँ; क्योंकि सभी मनुष्य सब प्रकार से मेरे ही मार्ग का अनुसरण करते हैं।

यह कानून भगवान् पर लागू पड़ती है, हम पर लागू नहीं पड़ती। जब तक जीते रहें, तब तक कमी की पूर्ति करते रहें । यह नहीं मानें कि हमारी उन्नति हो गई; यदि ऐसा मान लोगे तो फिर गिरना शुरु हो जायेगा। कभी अपने कर्तव्य की समाप्ति नहीं समझें।

लोक-संग्रह करना चाहिए। जिस प्रकार से भी लोग परमात्मा में लगें- यही लोक-संग्रह है। जब तक जीवें, तब तक इस काम की पूर्ति करें। (पूर्ति) कब होगी ? जब तक सबकी मुक्ति नहीं होवे।

सत्संग के अमूल्य वचन-

ईश्वर से बढ़कर संसार में कुछ भी नहीं है। जो ऐसा जान लेगा, वह बस, भगवान् को ही भजेगा।

मनुष्य जीवन का समय अमूल्य है। इसको बहुत ही विचारकर बिताना चाहिये।