गीताप्रेस में काम करने वालों को इससे आध्यात्मिक विषय का लाभ भी उठाना चाहिए
दूर से आने वाले भावुक आदमी गीताप्रेस को तीर्थ मानते हैं। वास्तव में यह तीर्थस्थान नहीं है, किन्तु श्रद्धालु को उसकी भावना के अनुसार लाभ हो भी जाता है। प्रधान तो अपना भाव ही है। गीताप्रेस तो वास्तव में भगवान् की है; चाहे कोई माने या न माने।
महाभारत, गीता, रामायण, भागवत आदि से और कल्याण एवं कल्याण कल्पतरु मासिक पत्रिकाओं में भक्तों, महात्माओं, विद्वानों एवं ज्ञानियों के लेख रहते हैं, उनसे भी लाभ होता है, गीताप्रेस में रहने वालों को तो लाभ होना ही चाहिए; ग्रामवासियों को भी होना चाहिए, सत्संगियों को भी होना चाहिए, नहीं तो शर्म की बात है। एक अच्छी स्त्री अपने घर का सुधार कर देती है; ग्राम का भी।
युधिष्ठिर के बारे में आता है कि अज्ञातवास के समय जब उनका पता नहीं लगा तो भीष्मजी ने कहा कि- 'मैं पता जानता हूँ। जहाँ युधिष्ठिर हैं, वहीं पाँचों भाई हैं। वहाँ महामारी नहीं होगी, अकाल नहीं पड़ेगा, धन-धान्य, धर्म आदि की वृद्धि होगी।' तब दूतों ने कहा कि ये सारी बातें विराटनगर में हैं। खयाल करना चाहिए कि युधिष्ठिर की खोज किस प्रकार से की गई ! जैसे लोग गाँधीजी को महात्मा कहते हैं, उसी प्रकार युधिष्ठिर को धर्मराज कहते थे।
एक कहानी है- एक अच्छे घराने का वैश्य परिवार था। उसकी लड़की मुकलावा (गौना) लेकर अपने ससुराल गई। वहाँ (उसके ससुराल में) कलियुग ने अड्डा जमा रखा था। उसके पीहर में तो आपस में छीन-छीनकर (उत्साह से) काम करते थे; खाने की वस्तुएँ दूसरे के काम में आवें, ऐसा आपस में चाहते थे; यहाँ पर (ससुराल में) उलटी बात थी।
(गीताप्रेस की 'उपदेशप्रद कहानियाँ' कोड़ नं ६८० में स्त्रियों के कल्याण के प्रयोग वाली कहानी पढ़नी चाहिए।)
हम लोगों को आपस में बहुत उदारता का व्यवहार करना चाहिए। इसके लिये चार बातों का खयाल रखना चाहिए- प्रेम, विनय, त्याग और निरभिमानिता। राजा त्रिशंकु ने अपने मुँह से अपने ही पुण्य गिनाए, जिससे वे पुण्य नष्ट हो गये और वे स्वर्ग से गिर गए। भाई लोगों को कमर कसकर सेवा का काम करना चाहिए।
पर हित सरिस धर्म नहिं भाई । पर पीड़ा सम नहिं अधमाई ॥
(रा.च.मा. ७/४१/१)
परहित बस जिन्ह के मन माहीं । तिन्ह कहुँ जग दुर्लभ कछु नाहीं ॥
(रा.च.मा. ३/३१/९)
भगवान् की प्राप्ति भी दुर्लभ नहीं है, फिर और की तो बात ही क्या है ! ते प्राप्नुवन्ति मामेव सर्वभूतहिते रताः (गीता १२/४) (अर्थात्- वे सम्पूर्ण भूतों के हित में रत हुए और सबमें समान भाव वाले योगी मेरे को ही प्राप्त होते हैं)।
गीताप्रेस में जब तक काम करने का अधिकार है, तब तक काम कर लो। गीताप्रेस में राजनैतिक पुस्तकें नहीं छपती हैं। बाइस्कोप (सिनेमा), सिगरेट, बीड़ी, खेल के प्रचार की तो गन्ध ही नहीं है, बल्कि इनका तो यहाँ विरोध ही रहता है। जिस किसी भी प्रकार से पुस्तकों का अधिक-से-अधिक प्रचार हो, ऐसा प्रयास करना चाहिए, जैसे विवाह में बारातियों को, दहेज में, पुरस्कार में, उपहार में या जिनके पास पैसे हों तो वे मुफ्त में बाटें; नहीं तो इन पुस्तकों का मूल्य लेकर देना चाहिए। इन पुस्तकों का भारत के कोने-कोने में प्रचार करना चाहिए; स्कूलों में, कचहरी में, घरों में जाकर प्रचार करना चाहिए। गले में झोला डालकर प्रचार करना चाहिए; फिर मान-बड़ाई तो ठहरेगी ही कहाँ ?
प्रचार का ढंग - (१) गीता, रामायण आदि के प्रचार करने का सदस्य बनना। (२) गीता-रामायण परीक्षा समिति द्वारा प्रचार करना। इन दोनों से भी वह जबर (श्रेष्ठ) है, जो हिन्दुस्तान भर में पुस्तकों का प्रचार करता है; वह सबसे श्रेष्ठ है। यदि यह काम श्रेष्ठ नहीं होता तो यह काम मैं, घनश्याम (श्रीघनश्यामदास जालान), भाई हनुमान (भाईजी श्रीहनुमान प्रसाद पोद्दार) क्यों करते ? हम पैसा कमाना खूब जानते हैं। इसलिये हम लोगों को सबका हित निष्कामभाव से करना चाहिए।
विहाय कामान्यः सर्वान्पुमांश्चरति निःस्पृहः ।
निर्ममो निरहंकारः स शान्तिमधिगच्छति ॥
(गीता २/७१ )
अर्थात्- जो पुरुष सम्पूर्ण कामनाओं को त्यागकर ममतारहित, अहंकाररहित और स्पृहारहित हुआ विचरता है, वही शान्ति को प्राप्त होता है अर्थात् वह शान्ति को प्राप्त है।
भीतर में कर्तापन के अभिमान का भी त्याग कर देना चाहिए; फिर इस त्याग का भी त्याग कर देना चाहिए, अर्थात् मैं त्यागी हूँ- इस भाव का भी त्याग कर देना चाहिये। भगवान् की आज्ञा और उद्देश्य का पालन करना चाहिए।
सत्संग के अमूल्य वचन-
आत्मोद्धार करना हो तो इधर-उधर की बातें छोड़कर हर समय भगवान् का भजन करे। प्रभु को छोड़कर अन्य में मन नहीं लगावे । मन निरन्तर
प्रभु के स्मरण में लगा रहे।
भगवान् के भजन में देह सूख जाय, साधन करने में मृत्यु हो जाय तो भी हर्ज नहीं।
जैसे पूर्वजन्म के स्त्री, पुत्र, परिवार की अब याद भी नहीं है, इसी भाँति इस जन्म की बातें और स्त्री, पुत्र, परिवार भी याद नहीं आयेंगे। फिर समय व्यर्थ क्यों गमावे ? मन को निरन्तर भगवान् के भजन स्मरण में लगाये रखे।
जैसे पतिव्रता प्रत्येक कार्य पति की प्रसन्नता के लिये करती है, वैसे ही अपना प्रत्येक कार्य भगवान् की प्रसन्नता के लिये प्रभु को याद रखते हुए करे।
कठपुतली के समान सूत्रधार प्रभु पर निर्भर हो जाय ।
विपत्ति प्रभु का भेजा हुआ पुरस्कार है। उसमें परम आनन्द माने, उसे प्रभु का प्रसाद समझे। उसमें मुफ्त में प्रभु का छिपा हुआ प्यार भरा हुआ है।