गीताप्रेस को चलाने वाले भगवान् तो सदा कायम हैं
मेरे मरने के बाद गीताप्रेस की पुस्तकों के दाम मत बढ़ने देना। जो पीछे रहें, वे (पुस्तकों के मूल्य बढ़ाने का) विरोध करें। अहमदाबाद में जो साधु थे, उनके मरने के बाद उनकी किताबों का मूल्य बढ़ा दिया गया। फिर वह संस्था बन्द हो गई। विशेष अधिकार थोड़े आदमियों को ही दिया जाता है, उनमें से भी और विशेष अधिकार एक-दो आदमियों को ही दिया जाता है। मैनेजर से ज्यादा अधिकार ट्रस्टी को और ट्रस्टी से भी ज्यादा मंत्री को है। अपने ट्रस्ट में जितने ट्रस्टी हैं, वे मेरे विरुद्ध नहीं चलते हैं।
'कल्याण' मासिक पत्रिका को, जहाँ तक सम्भव हो, बन्द नहीं होने देना। इसके माध्यम से हम लाखों लोगों तक अपने सद्भाव पहुँचा सकते हैं; इस (कल्याण) में राजनैतिक विषय से तो दूर रहना ही अच्छा है। दूसरा नम्बर पुस्तकों का ही है। तीसरा नम्बर चित्रों का है। चित्र तो हजारों की संख्या में ही छपते हैं, जबकि 'कल्याण' और पुस्तकें लाखों की संख्या में छपती हैं। अपनी पुस्तकें सस्ती हैं और फालतू नहीं हैं, इसलिए इनका प्रचार होना चाहिए। भाईजी (श्रीहनुमानप्रसादजी पोद्दार) जब तक हैं, तब तक भाईजी पर; और मैं हूँ, तब तक मेरे ऊपर भार है। कौन पहले मरे, क्या पता ? प्रेस को चलाने वाले भगवान् तो सदा कायम हैं, वे तो मरते नहीं। यदि कोई कहे कि इतना हम क्यों सोचें, अगला (अर्थात् भगवान्) तो है ही ? यदि ऐसी ही बात है तो व्यापार की भी क्या आवश्यकता है ? किन्तु जब तक हम हैं, तब तक अपना भी कर्तव्य है। भगवान् ने अलग-अलग काम बाँट दिए हैं। अपना काम है- कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन (गीता २/४७) (अर्थात्- तेरा कर्म करने में ही अधिकार है, उसके फलों में कभी नहीं)। फल तुम्हारे अधिकार की चीज नहीं है तो उस पर अपना अधिकार क्यों डालें ? इसी प्रकार व्यापार तुम्हारे हाथ में है, नफा-नुकसान नहीं। यदि व्यापार नहीं करते हो तो यह आपकी अनधिकार चेष्टा है। जीना मरना, बीमारी होनी या नहीं होनी आपके अधिकार में नहीं है, औषधि सेवन के लिए शास्त्र बाध्य नहीं करते हैं; रोना, न रोना आपके हाथ की बात है। कर्तव्य कर्म करना आवश्यक है, परन्तु संन्यासी के लिए निषेध है; शास्त्रानुकूल हो तो कर सकते हैं। कर्म करने में अधिकार है- सकाम, निष्काम- जिस प्रकार से करो, आपकी मर्जी। भगवान् तो कहते हैं कि मुक्ति चाहिए तो निष्कामभाव से करो। हम भी कहते हैं कि निष्कामभावसे करो। कोई सकामभाव से कर्म करने के लिए पूछता है तो उसे कह देते हैं कि- 'हमें पता नहीं।' यह नहीं कहते हैं कि- 'सकाम क्यों करते हो ? क्या फायदा है ?' क्योंकि ऐसा कहने से वह कहीं एकदम से ही कर्म न छोड़ दे। हमारे पत्रों में सकामभाव से अनुष्ठान करने की बात नहीं के बराबर है। किसी-किसी को बतला भी देते हैं, जैसे कि- 'चित्त की शान्ति के लिए भगवान् का भजन, ध्यान करो', आगे बढ़ें तो- 'स्तुति, प्रार्थना करो', आगे बढ़ें तो बीमार आदमी के लिये कह देते हैं कि- 'इसके लिए जप, ध्यान करो।' बीमारी के लिए भी फायदा और आत्मा के कल्याण के लिए भी फायदा।
रुपयों के तत्त्व को समझकर त्याग करने से मुक्ति है। मुक्ति की इच्छा न करके मुक्ति के लायक काम करे, वह ज्यादा महत्त्व का है। उनके लिए भगवान् पीछे-पीछे फिरते हैं। विरक्त से ज्ञानी और ज्ञानी से अपरोक्ष अर्थात् यथार्थ ज्ञानी श्रेष्ठ है।
सकाम, निष्काम का प्रकरण था तो उसको धोखा नहीं देते हैं। भजन, ध्यान करना बरनी बैठाने (अर्थात् सकामभाव से अनुष्ठान करवाने) से भी ज्यादा फायदे का है। भगवान् हित समझेंगे, तभी तो वह वस्तु देवेंगे। भगवान् उसका हित देखते हैं। भगवान् के यहाँ मोह, आसक्ति तो है ही नहीं। एक महात्मा भी किसी का अहित नहीं करता है तो भगवान् किस तरह अहित कर सकते हैं।
सत्संग के अमूल्य वचन-
प्रभु की स्मृति सूर्य है। प्रभु और महात्माओं की विशेष दया का अनुभव करे कि दिन-दिन भजन-ध्यानका साधन बढ़ रहा है। सद्गुणों का विकास करे और आसुरी सम्पदा का विनाश करे। भजन-ध्यान का साधन बढ़ावे ।
जीव-मात्र में प्रभु को देखे, देख-देखकर मुग्ध होता रहे। निरन्तर प्रभु का स्मरण-चिन्तन, प्रभु के विधान में परम सन्तोष, सब कुछ प्रभु का समझकर उनके अर्पण कर देना और उनकी आज्ञा के अनुकूल चलना- ये चार शरणागति के अंग हैं।