गीताप्रेस की संस्था से संसार में परमार्थ विषय का कितना लाभ हो रहा है !
हम लोग गीताप्रेस के भीतर के आदमी हैं। हम विचार करके देखें कि गीताप्रेस की संस्था से संसार में परमार्थ विषय का कितना लाभ हो रहा है ! अपना ध्येय यही है कि भगवद्भावों का प्रचार होवे तो सबके लिए हित की बात है।
ज्वालाप्रसादजी का भी व्यवहार निष्काम था। अपने जितने ट्रस्टी हैं, वे गीताप्रेस से स्वार्थ सिद्ध करने वाले नहीं हैं। ऐसी संस्था संसार में कहाँ है ? रुपये तो अपनी संस्था से अन्य संस्थाओं में ज्यादा है, किन्तु इस तरह का प्रचार और कहाँ है ? यह संस्था अधिक-से-अधिक चले- ऐसी सबकी चेष्टा होनी चाहिए। घनश्याम (दास जालान) की जैसी चेष्टा थी, वैसी चेष्टा हमें करनी चाहिए। शरीर तो सबका नाशवान् है। अपनी बारी (पारी) के अनुसार सबको ही मरना है। पीछे बचें, उनमें जोश बढ़ना चाहिए। जैसा काम घनश्याम करता था, वैसा काम हम सब कर सकते हैं। एक घनश्याम की जगह २० घनश्याम तैयार हो सकते हैं। यह भगवान् का चलाया हुआ चाक है, यह बन्द नहीं हो- यह बात हरेक आदमी को समझनी चाहिए (कुम्हार जिस चक्के की सहायता से मिट्टी के बर्तन तैयार करता है, उसे चाक कहते हैं)। सबमें शक्ति है; ईश्वर का अंश सबमें है। अग्नि की छोटी-सी चिनगारी भी पूरे शहर को भस्म कर सकती है। गीताप्रेस की ८ घंटे की ड्यूटी- यह तो गीताप्रेस की है ही, इसके अलावा ८ घंटे और काम कर सकते हैं; जैसे हम लोग करते हैं, मैं करता हूँ। जिस तरह से अन्य लोग रुपये कमाने का काम करते हैं, उस प्रकार से हम भी कर सकते हैं, किन्तु नहीं करते हैं। घनश्याम में शरीर का बल नहीं था, उसने मन को वश में कर लिया था। उसने बीमार अवस्था में, कम ताकत में भी काम किया तो हम लोग क्यों नहीं कर सकते हैं ? घर के काम को गौण समझना चाहिए।
गीताप्रेस तो भगवान् का है ही, इसमें मानने की जरूरत नहीं है; इसलिए गुंजाइश निकालें तो निकल सकती है। समय को सार्थक कर सकते हैं। रुपये, समय, बुद्धि, मन और इन्द्रियों की चोरी नहीं करनी चाहिए।
संस्था की चीज अपने काम में लानी- रुपयों की चोरी है। ऊँचे दर्जे की नीयत से काम करना चाहिए। बिना मन लगाए काम करना - मन की चोरी है। बुद्धि का भी पूरा प्रयोग करना चाहिए। हाथ, पैर, कान, आँख, शरीर सबको इस काम में लगा देवें।
संस्था- इस प्रकार की संस्था संसार के उपकार की दृष्टि से मिलनी कठिन है। गीताप्रेस में मतभेद नहीं है, स्वार्थ का सम्बन्ध नहीं है- यह सब भगवान् की कृपा है। इसलिये इस संस्था से असली लाभ उठाने से मुँह क्यों मोड़ना ?
कोई संगठन करके इस प्रकार की संस्था बनाना चाहे तो कितनी कठिनता पड़े ! अपने यहाँ पैसे लेकर व्याख्यान देने वाला कोई नहीं है; सब निःस्वार्थभाव से काम करने वाले हैं।
बाहर से आने वाले अफसरों की भी यही दृष्टि रहती है कि यह काम अच्छा है। लोगों की सहानुभूति है। अपने को प्रचार में बहुत कम परिश्रम पड़ता है।
मान, बड़ाई, पद के अभिमान को धूल के समान समझना चाहिए। पद के अभिमान के कारण नुकसान होता हो तो उसी समय तिलांजलि दे देनी चाहिए। नीचे वाले को बढ़ावा देकर, स्वयं छोटा बनकर काम करा लेना चाहिए। सामने वाले की बड़ाई करनी चाहिए (यह बात सबके लिए है)। कोई काम गंगाबाबू और रामध्यानजी ने मिलकर किया, किन्तु बड़ाई रामध्यानजी को देवें, जिस प्रकार से भगवान् ने बड़ाई बन्दरों को दी- भए समर सागर कहँ बेरे (रा.च.मा. उत्तर. 8/7)। काम करते समय भगवान् रामचन्द्रजी को याद कर लेवे। इससे एक तो भगवान् याद आये, दूसरी बात- भगवान् का चरित्र अपने में समावेश होगा।
काम करने के साथ-साथ स्वास्थ्य को भी देख लेना चाहिए। शरीर भी भगवान् की सामग्री है, इसकी भी रक्षा करनी है। मुक्ति तो बचे हुए जीवन में ही होनी है। पूर्व का जीवन तो गया, सो गया।
कोई भी अच्छा आदमी यदि रुपये या मान-बड़ाई चाहे, तो जिस किसी प्रकार से उसे सहूलियत देकर उसको राजी रखना चाहिए; फिर वह अपना हो जावे तो गीताप्रेस की उन्नति करने वाला हो सकता है। जिस आदमी का ऐसा व्यवहार है कि- 'अपनी बात रहनी चाहिए, गीताप्रेस का चाहे नुकसान हो'- ऐसा आदमी गीताप्रेस का हित करने वाला नहीं है। चौबेजी प्रेस का हित करने वाले हैं। उनका मन खराब नहीं हो- ऐसी चेष्टा करनी चाहिए। उनकी मान, मर्यादा आदि रखनी चाहिए। आगे जाकर वह खुद समझ लेवें कि पैसे और मान अपने लिए (पारमार्थिक दृष्टि से) घातक हैं तो वह स्वतः ही छोड़ देंगे।
यहाँ गुटबन्दी करने वाले न तो स्वयं का कल्याण कर सकते हैं और न ही प्रेस का हित करने वाले हैं।
संसार के हित के लिए गीताप्रेस का नाम होवे तो अपने हर्ज की बात नहीं है। अपने व्यक्तिगत स्वार्थ के लिए नहीं होना चाहिए।
आप लोग अपनी आत्मा से यह बात पास करा लें कि आप मेरे मन के अनुसार करने लगे या नहीं। आपकी आत्मा में सन्तोष होना चाहिए; दूसरे भले ही निन्दा ही करो ।
घनश्याम हमारे कर्मठ व्यक्ति था। वह राजी होता, उस प्रकार से मैं बारह आने (७५%) करता था, वह चार आने (२५%) करता था। उसकी राजी के माफिक चिट्ठी लिखाते थे; उसका नतीजा क्या होगा, यह नहीं सोचते थे। नुकसान तो होगा नहीं, क्योंकि न तो मेरा स्वार्थ था, न उसका स्वार्थ था; किन्तु स्वयं की बात छोड़कर सामने वाले की बात माननी ही ठीक है। उसके सन्तोष के लिए हरेक बात की सलाह उससे लेते थे। शेष समय में उसकी (मेरे में) श्रद्धा, प्रेम विशेष थी।
इतने दिन तक उसने गीताप्रेस का काम निःस्वार्थभाव से किया। इतना दिखता नहीं था कि झुंझलाहट आदि इसको आती है, किन्तु अन्त समय में एक साथ सुधार हो गया। सेवाभाव से गीताप्रेस का काम किया था, वह कहाँ जा सकता है ! वह चीज अन्तकाल में सामने आ गई।
हमारी और घनश्याम की बात तो कई हुई; कई कहने की हैं और कई नहीं कहने की हैं।
वह पूछता कि- 'आप कोई बात कहो, वह हम आँख मींचकर कर लें या संशोधन कर लें।' मैं कहता कि- 'जिस प्रकार मैं कहूँ, वैसे कर लेना चाहिए।'
मैंने आपको कोई बात कही। आपकी बुद्धि में कोई उससे अच्छी बात आई और युक्ति से भी आपकी सोची हुई बात ही ठीक है, किन्तु उसमें रुपयों का ही तो लाभ हुआ; हमारी बात तो नहीं रही ! इससे आपकी आध्यात्मिक हानि हुई। आपने अपने अनुकूल बात मानी, वहाँ श्रद्धा थोड़े ही है। युक्ति से ठीक बात हो तो हम हर-एक की बात मान लेते हैं। श्रद्धा में जितना तर्क है, उतना हानिकारक है। युक्ति से मानने वाली बात श्रद्धा नहीं है। (युक्ति से ठीक हो तो) बालक की ही बात मान लेते हैं।
शास्त्र की बात केवल तर्क से सिद्ध होने वाली मानेंगे, अन्यथा नहीं मानेंगे, तो हम गिर जायेंगे; जैसे श्राद्ध, बलिवैश्वदेव आदि की बात है। ज्यादा तर्क होने से तो बुरा फल ही होगा।
बनजारे के द्वारा बीकानेर से मेट (मुल्तानी मिट्टी) लाने वाली बात; वह मेट बिक जाने पर मिट्टी भर लेता था (वह दृष्टान्त दिया ) ।
युक्तिसंगत बुद्धि होने पर भी वह फलवती नहीं है। श्रद्धा तो अन्धी ही होती है।
किसी ने मेरे में किसी गुण की कल्पना कर ली। मेरे में वह गुण नहीं है, किन्तु उस गुण की पूर्ति भी भगवान् को करनी पड़ती है, क्योंकि उसने तो कल्पना कर ली; उसका क्या दोष है ?
मन के प्रतिकूल बात बहुत प्रसन्नता से कर लें तो बहुत फायदा होता है। अच्छे पुरुष से किसी प्रकार भी भेंट हो जाए तो नुकसान नहीं होता है।
आपका और मेरा गुरु-शिष्य का सम्बन्ध होकर श्रद्धा होवे तो वह दिखाऊ होवे, क्योंकि वह श्रद्धा गुरु के हिसाब से हुई। उसमें बाहर में श्रद्धा का व्यवहार होना चाहिए, अन्दर में चाहे नहीं हो। वह (गुरु-शिष्य का) सम्बन्ध नहीं रखकर मित्रता का सम्बन्ध रखें और उसके बाद श्रद्धा होवे, वह ठोस होती है। गुरु-शिष्य के व्यवहार में सब गुरु बनने को तैयार हैं। गुरु नहीं बनकर वास्तव में मित्रता का व्यवहार रखना चाहिए। यह तत्त्व वे लोग (गुरु बनने के इच्छुक पुरुष) जानते ही नहीं। मित्रता में जितना प्रेम खुलता है, उतना गुरु-शिष्य में नहीं होता। उनको इस दोष से किसी भी तरह बचाना चाहिये। किन्तु संसार में यह हो रहा है कि गुरु तो यह समझता है कि यह (शिष्य) किसी प्रकार से भी मेरी बात माने, मेरी बात की रक्षा होवे, चाहे वह नरक में ही जावे ! हम तो सभी प्रकार से दोष से बचाने की चेष्टा करते हैं। कोई दोषयुक्त काम करेगा और हम फरियाद (शिकायत) ही नहीं करेंगे तो दोष उसको किस तरह मिलेगा ?
हम यदि जूठन छोड़ेंगे ही नहीं तो फिर खाएगा ही कौन ? कोई जूठन खिलाएगा तो आपकी श्रद्धा घटेगी या बढ़ेगी ? कोई आदमी मेरे से भोजन परोसवाना चाहता है तो मैं टाल-मटोल ही करता हूँ, क्योंकि मैं यदि परोसूँ, और आप यह बात जानते हो, मैं भी जानता हूँ, तो मैंने मेरा महत्त्व स्वीकार कर लिया और आप भी यह समझोगे कि- 'इन्होंने भी अपना महत्त्व स्वीकार कर लिया है' तो इस चीज को अच्छी मानते हुए भी इसे छोड़ने का ही महत्त्व है। आपको एक लाख रुपये चाहिएँ और मेरे पास २० लाख रुपये हैं। मैं कहूँ कि 'आप एक लाख रुपये ले लो।' आप देने पर भी नहीं लेओ, वह और भी अच्छा है। चोरी करके लेओ, वह और भी ज्यादा खराब है।
जो साकार या निराकार रूप से परमात्मा को प्राप्त हो जाता है, वह अपने शरीर की पूजा नहीं कराकर भगवान् की ही पूजा करावेगा, क्योंकि उसका शरीर तो नाशवान् है, उसको तो जलाकर खाक कर देंगे।
भगवान् राम का चरित्र बहुत दामी (मूल्यवान) है, अपना जीवन उनके समान दामी थोड़े ही है। अपने जीवन को महत्त्व देना रामजी की इज्जत घटानी है। हम अपनी जीवनी का हृदय से विरोध करते हैं, दूसरे लोग स्वयं लिखते या लिखवाते हैं ! विचार करो कि कितना फर्क है ! जमीन, आसमान का फर्क है !
दुजारी जी ने मेरी जीवनी लिखने की विशेष चेष्टा की, फिर भाईजी की जीवनी की चेष्टा की।
जो शरीर की पूजा कराता है, उसकी शरीर में स्थिति है। ब्रह्म में स्थिति वाला ब्रह्म की ही पूजा करायेगा।
सो अनन्य जाकें असि मति न टरइ हनुमन्त ।
मैं सेवक सचराचर रूप स्वामि भगवन्त ॥
(रा.च.मा. किष्किन्धा. दोहा ३)
जब वह अपनी पूजा करायेगा तो वह सेवक कहाँ रहा ? वह तो स्वामी हो गया।
एकलव्य भील का दृष्टान्त भी मुझ को नहीं देना है, क्योंकि इसमें शिष्य बनाने की गुंजाइश रहती है।
कोई बीमार आदमी मेरे में महात्मापने का महत्त्व करके दवाई - पानी करावे, तो इसमें सकामपने का दोष घटता है। उससे वह यथार्थ लाभ से तो वंचित हो गया ! किसी के पास बैंक में २०,०००/- रुपये हैं, किन्तु २,०००/- रुपये निकाल लिए तो उसके खाते में १८,०००/- रुपये ही बचे; और मुक्ति यदि २०,०००/- रुपये में होती होवे तो वह मुक्ति से तो वंचित ही रहा। हमारे से सकाम कर लिया तो भगवान् से कर लिया; और भगवान् से सकाम कर लिया तो हमारे से कर लिया। हमारा और भगवान् का- ये दो भेद क्यों करें ?
भगवान् ने द्रौपदी को दर्शन तो दे दिये, किन्तु वह उसी समय जीवन्मुक्त नहीं हुई; अन्त में तो मुक्त हो गई। भगवान् का तत्त्व, रहस्य जानने की कमी रही।
अर्जुन भगवान् के विश्वरूप को देखकर डरा, , तो अर्जुन में इतनी कमी तो थी ही। गीता अध्याय १८ श्लोक ७३ में अर्जुन ने भगवान् के वचन मानने की बात कही है-
नष्टो मोहः स्मृतिर्लब्धा त्वत्प्रसादान्मयाच्युत ।
स्थितोऽस्मि गतसन्देहः करिष्ये वचनं तव ॥
अर्थात्- अर्जुन बोले- हे अच्युत ! आपकी कृपा से मेरा मोह नष्ट हो गया और मैंने स्मृति प्राप्त कर ली है। अब मैं संशयरहित होकर स्थित हूँ, अतः आपकी आज्ञा का पालन करूँगा।
प्रेम की बाहुल्यता होने पर भगवान् का दर्शन हो जाता है और दर्शन होने पर कल्याण हो जाता है।
सत्संग के अमूल्य वचन-
पहले भगवान् को जानें; पीछे और कुछ जानें।