Seeker of Truth
॥ श्रीहरिः ॥

गीताप्रेस के कार्यकर्ताओं को उद्बोधन

प्रवचन सं. ११
दि. ८-११-१९५७, प्रातः

मेरे तो सभी काम सत्संग ही है- चाहे पंचायती (यानी आपस के विवाद का समाधान) करा लो, चाहे मकान का नक्शा बनवा लो। किसी के दवाई लगाऊँ, तो भी सत्संग है; और बात करते हैं, तो भी सत्संग है। इन कार्यों में मेरे भीतर से बिल्कुल फर्क नहीं है; मैं आप लोगों की दृष्टि के कारण इनको बढ़िया, घटिया बताता हूँ; हमारे तो सब बराबर है। अलग-अलग दृष्टि है। सामने जैसा समुदाय होता है, उसके अनुसार समझा देता हूँ।

गीताप्रेस के भाइयों को किस प्रकार प्रेम का व्यवहार करना चाहिए- यह कहने का विचार है। स्त्री अपने पति के लिए समझ ले, लड़का माता-पिता के लिए समझ लें और नौकर मालिक के लिए समझ ले।

एक व्यक्ति १००० आदमियों की सेवा करता है और दूसरा एक उन १००० आदमियों की सेवा करने वाले की सेवा करता है; तो उस दूसरे आदमी की सेवा बढ़कर हो गई, क्योंकि वह ठीक रहेगा तो हजारों आदमियों की सेवा होती रहेगी।

एक आदमी मेरी सेवा करे और दूसरा आदमी 'मैं कहूँ, उस प्रकार से करे' तो मेरे कहने के अनुसार करने वाला श्रेष्ठ है। रामेश्वर मूँदड़ा है, वह मेरी सेवा करता है। मैं उससे कहूँ कि- 'तुम वासुदेव काबरा की सेवा करो' तो उससे उसको ज्यादा लाभ। है। इसमें हमारी प्रसन्नता है और वासुदेव काबरा से दुनिया को फायदा होता है, क्योंकि इसके द्वारा लेख लिखा जायेगा तो हजारों। आदमियों को लाभ होगा।

(नोट- श्रद्धेय श्रीसेठजी जब प्रवचन करते थे, तव श्रीवासुदेवजी काबरा उसे लिख लिया करते थे और उसे श्रद्धेय श्रीसेठजी के भावों के अनुसार मारवाड़ी भाषा से हिन्दी में रूपान्तरण भी कर देते थे। उससे फिर श्रद्धेय श्रीसेठजी की। पुस्तकें छपती थी।)

जैसे गीता (१/११) में दुर्योधन ने अपनी सेना के सब वीरों से कहा है कि- 'पितामह भीष्म की रक्षा करो, कहीं शिखण्डी सामने नहीं आ जाए।' (दुर्योधन के कहने का भाव यह था कि भीष्म पितामह जब तक जीवित रहेंगे, तब तक वे हम लोगों की रक्षा और प्रतिपक्ष की सेना का संहार करते रहेंगे)। जैसे रामध्यानजी हैं, उनका मन खराब नहीं हो- ऐसी चेष्टा करनी चाहिए, क्योंकि यदि वे चले जायँ तो उनके जैसा दूसरा आदमी कहाँ से आवे ?

सबका परम हित हो, वैसी बात बतलाई जाती है। गीताप्रेस का हित ही हमारा और संसार का हित है, क्योंकि उसमें जो बात छपवाई जाती है, वह संसार के हित के लिए छपवाई जाती है। कितने ही श्रद्धालु आदमी गीताप्रेस को अच्छी दृष्टि से देखते हैं। यहाँ रहने वाले आदमियों की अपेक्षा भी उनकी दृष्टि अच्छी है। कई इसे तीर्थस्थान समझते हैं। यद्यपि यह तीर्थस्थान नहीं है, लेकिन हम लोग चाहें तो इसे तीर्थस्थान बना सकते हैं। महात्मा अ-तीर्थ को तीर्थ बना देते हैं। पतिव्रता (अनुसूयाजी आदि), सुतीक्ष्ण, भरतजी, शरभंग- उन सबने अपने रहने के स्थान की तीर्थ संज्ञा कर दी। महात्मा तीर्थों को भी तीर्थ (तीर्थी कुर्वन्ति तोर्धानि) और जहाँ तीर्थ नहीं है, वहाँ भी तीर्थ कर देते हैं। ईश्वर तो महात्माओं के महात्मा हैं। ईश्वर की दुकान होवे तो तीर्थ बनना बहुत आसान है। (यहाँ श्रद्धेय श्रीसेठजी का भाव यह लगता है कि गीताप्रेस तो ईश्वर की दुकान है, अतः इसे तीर्थस्थान बनाना तो बहुत आसान है।)

हम रामराज्य की महिमा सुनते हैं। अच्छे काम को रामराज्य की उपमा देते हैं। यह रामराज्य क्यों नहीं बन सकता ? - हमारी कमी के कारण नहीं बन पाता। सबको अपनी-अपनी कमी समझनी चाहिए। हमको दूसरे की कमी नहीं देखनी चाहिए। रामराज्य देखना हो तो अपनी कमी समझे; नहीं तो दुर्योधन-राज्य होगा। गीताप्रेस को जो तीर्थ मानते हैं, वे हम लोगों के द्वारा पूजने योग्य हैं। हमारे इसका चित्र तो खयाल में (ध्यान में) है कि (गीताप्रेस) कैसा बनना चाहिए, किन्तु युक्ति नहीं जानते ।

यहाँ के कर्मचारी दूसरी संस्थाओं की अपेक्षा बहुत अच्छे, ऊँचे दर्जे के हैं। खयाल करके देखो- दूसरी-दूसरी मिलों में हड़ताल होती है, तब मिल-मालिकों का कितना विरोध किया जाता है, किन्तु यहाँ के कर्मचारी ऐसा नहीं करते हैं; वे संस्था की चीज समझते हैं, इसकी उन्नति का भाव सबका ही रहता है। दूसरी मिलों के मजदूरों की भावना यह होती है कि हमारे परिश्रम का फल मिल-मालिक भोगते हैं; किसी अंश में बात सच्ची भी है, किन्तु यहाँ गीताप्रेस में यह बात नहीं है; न यहाँ पर किसी दूसरे बहाने से चंदा लिया जाता है। यह बात स्पष्ट है कि यहाँ की पुस्तकों के २०-२५ वर्ष पहले जो दाम थे, करीब-करीब वही चले आ रहे हैं। वर्तमान समय में लागत आज के २० वर्ष पहले से करीब ६ गुणा हो गई है, परन्तु पुस्तकों के दाम वही हैं। दाम बढ़ाने की आवश्यकता है, किन्तु दाम बढ़ाने से पैसा ही तो बढ़ेगा; बिक्री बढ़ने से नुकसान कम हो जाएगा। (यह अर्थशास्त्र का सिद्धान्त है कि कोई भी वस्तु अधिक मात्रा में उत्पादित करने से उसकी प्रति ईकाई लागत कम पड़ती है। लगता है कि श्रद्धेय श्रीसेठजी उसी ओर संकेत कर रहे हैं।)

यद्यपि सब कृपा भगवान् की है। रामजी ने सब राक्षसों को मारा तो कहा- 'बन्दर समर-सागरके बेड़े बन गए' (ए सब सखा सुनहु मुनि मेरे । भए समर सागर कहँ बेरे ॥ (रा. च. मा. उत्तरकाण्ड ८/७); इसी प्रकार यहाँ भी निमित्त कर्मचारी- भाई हैं। पदाधिकारी- भाई लोगों की विशेष सेवा है; चाहे पैसे लेकर करते हैं या बिना पैसे करते हैं। बहुत-से तो बिना पैसे लिए सेवा करते हैं। अधिकांश में भाई लोग सेवा करते हैं। (गीताप्रेस में सेवा कार्य करते-करते ) हम भगवान् के हो जावें- यह हमारी असली प्रशंसा है। हम इनकी प्रशंसा करते हैं; इनके नुकसान के लिए नहीं, बल्कि उनका उत्साह बढ़ाने के लिए करते हैं।

परस्पर में खूब प्रेम बढ़ावें। अपने से सबको श्रेष्ठ समझें। दूसरों के दोष दर्शन नहीं करके गुणों का दर्शन करें। एक-दूसरे की सच्ची प्रशंसा करें। ऐसा करना उसको अपनाना है, गीताप्रेस का भक्त बनाना है। रुपया देकर गीताप्रेस का भक्त बनाने की अपेक्षा मान देकर बनाना और अच्छा है; कीर्ति देना उससे बढ़कर है। उसको वास्तव में गीताप्रेस का भक्त बना देना और ऊँचा है। आगे ऊँचे दर्जे में पैसा, मान, कीर्ति कलंक हैं, परमात्मा की प्राप्ति में बाधक हैं।

- फिर आप मान, बड़ाई क्यों देते हैं ?

- बच्चा दवा खाना नहीं चाहता, मिठाई चाहता है। माँ समझती है कि मिठाई हितकर नहीं है, तो मिठाई में औषध डाल दो, जिससे खराबी नहीं करे। आगे जाकर बीमारी का खयाल आता है तो बच्चा कहता है कि- 'मिठाई खाने से बीमारी कम हो गई है।' माँ कहती है- 'मिठाई में दवा मिला दी थी।'

इसी प्रकार मान, बड़ाई, प्रतिष्ठा मिठाई है और सेवा का उत्साह है, वह औषध है। मान, बड़ाई, प्रतिष्ठा हानिकारक चीज है, किन्तु यदि इससे गीताप्रेस की सेवा बन जाय तो आगे तो भगवान् सँभाल लेंगे- असली बात यह है। एक-दूसरे को मान दें; स्वयं न लें। अपने लिए मान, बड़ाई, प्रतिष्ठा को विष के समान समझें, किन्तु दूसरे को देना कर्तव्य है। मान, बड़ाई, प्रतिष्ठा त्यागने का कर्तव्य उसका है (जिसको मान, बड़ाई, प्रतिष्ठा दी जाती है)। अपने लिए तो उसे देना ही कर्तव्य है।

विरक्त महात्माओं को भिक्षा कराते समय अपना कर्तव्य तो लाडू, हलुआ, जलेबी आदि खिलाने की चेष्टा है, महात्मा का काम लूखी-सूखी रोटी खाने का है। हम उसको उपदेश क्या दें ? भगवान् 'अमानी मानदो मान्यः' (श्रीविष्णुसहस्रनाम ९३) हैं। भगवान् से बढ़कर मान देने योग्य कोई नहीं, किन्तु भगवान् मान चाहते नहीं; इसी प्रकार भगवान् का सच्चा भक्त होता है, वह भगवान् जैसा ही व्यवहार करता है। हम मान देते रहें और वह फेंकता रहे।

हम स्वर्गाश्रम में जाते हैं तो बहुत-से आदमी सेवा कार्य में अपने रुपये लगाने के लिए कहते हैं। हम कहते हैं कि- 'कम लगाओ।' तो हम सबका सुधार होना चाहिए, पात्र बनना चाहिए। गुण तो सब में हैं ही; तो जब ५ आदमी इकट्ठा होवें तो गुणों की चर्चा करनी चाहिए। किसी के अवगुण नहीं लेना है। लोभी आदमी की रुपयों पर दृष्टि रहती है, दूसरी चीज पर नहीं। ऐसे ही हमें गुण ग्रहण करना चाहिए। परस्पर में प्रेम बहुत उच्च कोटि की चीज है।

गीताप्रेस का परम-हित किस काम में है- आपस का संगठन एक तार रहना चाहिए। ४-५ पदाधिकारियों के रुख में फर्क पड़ जाय तो बड़ा नुकसान है। दूसरों से छोटा बनकर प्रेम से, विनय से समझाना चाहिए। आपस में अपनी बात, जिद्द, प्रतिष्ठा या स्वार्थ के लिए अपनी अनुचित बात का समर्थन करना बड़ा अनुचित है एवं गीताप्रेस का नुकसान है। जिसमें गीताप्रेस का हित हो, वही करना चाहिए। जिस मैनेजरी से काम खराब होता हो, वह मैनेजरी किस काम की ?

भगवान् को खुश करने के लिए कोई भी काम करना पड़े तो चाहे वह काम नीचे-से-नीचा हो, वह भी ऊँचे-से-ऊँचा है। दूसरों को खुश करके खुश होना सात्त्विक प्रसन्नता है, दूसरों के सुख से सुखी ! गीताप्रेस में जितने भाई हैं, उनको स्वयं कष्ट, अपमान, निन्दा सहकर भी दूसरों को न्याययुक्त खुश करना चाहिए। दूसरे के दुःख से दुखी होना करुणाभाव है, इससे दया पैदा होती है, यह गुण है। उच्च कोटि के पुरुष दूसरे के दुःख से दुखी और दूसरे के सुख से सुखी होते हैं। यदि यह भाव रखें कि सबको सुख पहुँचावें तो फिर गीताप्रेस का रूप दूसरा ही बन जावे; यहाँ प्रवेश होते ही बड़ी शान्ति मिले। किसी से मुलाकात होते ही प्रसन्नता, शान्ति की बाढ़ आ जावे; चेहरे पर प्रसन्नता, शान्ति हो और व्यवहार में प्रेम हो। बड़े प्रेम से उसको गीताप्रेस दिखलावें, चित्रों की बड़ी प्रशंसा करके दिखलावें । जल, भोजन के लिए पूछ लें। ऐसे व्यवहार का असर पड़ेगा।

अपमान, निन्दा, हठ को छोड़कर जिस तरह नुकसान न होवे, ऊँचे पद को नीचा समझकर, गीताप्रेस का नुकसान नहीं हो, वैसा ही करे। दामोदरजी में थोड़ा यह भाव है कि अपनी बात चाहे नहीं रहे, गीताप्रेस का हित कैसे हो, गीता का प्रचार हो । गोविन्द भवन, कलकत्ता में स्वभाव की कोमलता कुछ 'लोचनरामजी में है। गोविन्द भवन के फायदे के लिए गम खाना नारायण में है, मेरी राय समझ लेगा तो सब छोड़ देगा। रामेश्वर मूँदड़ा में भी मेरी राय समझकर अपनी बात छोड़ने की है। कलकत्ता में मदनलाल में विनयभाव और गीताप्रेस के हित की चेष्टा है। लोगों की अच्छी बात लेनी चाहिए, खराब नहीं ।

गुण तो सभी में रहते हैं। भगवान् और महात्मा में तो दोष रहते नहीं। हम लोगों का ऐसा उत्तम व्यवहार होना चाहिए कि जिसे देखकर दुश्मन भी खुश हो जाय। 'यस्मान्नोद्विजते लोको' (अर्थात्- जिससे कोई भी जीव उद्वेग को प्राप्त नहीं होता) गीता अध्याय १२ श्लोक १५ की यह बात सबसे कठिन लगती है। हमारे में तो नहीं घटती, दूसरों का क्या पता ? हमारे व्यवहार से तो हमारे मित्रों को भी दुःख हो जाता है, हमारा व्यवहार अखरता है। यह तो कह सकता हूँ कि मेरी नीयत तो नहीं है कि किसी को उद्वेग हो। यह भी अच्छी बात है। इसका परिणाम ही आगे होता है- 'यस्मान्नोद्विजते लोको लोकान्नोद्विजते च यः ' (अर्थात्- जो स्वयं भी किसी जीव से उद्वेग को प्राप्त नहीं होता) । इस प्रकार का वातावरण सब भाई करें तो कठिन बात नहीं है। अब ऐसा नहीं हो सकता इस बात को मानकर कठिन मान लें तो हमारे लिए कलंक की बात है। भगवान् की कृपा का बल लगा देना चाहिए; उनके बल पर इसको करके छोड़ेंगे। यह भक्तिप्रधान कर्मयोग है। बड़ा सुगम रास्ता है। सब भाइयों को ऐसा बनना चाहिए।

हर समय प्रसन्नता रखनी चाहिए कि भगवान् की हमारे ऊपर बड़ी दया है। दूसरों को खुश करके खुश होना, प्रेमभाव से बर्ताव करके खुश होना- भगवान् की दया होने से ऐसा बर्ताव होने लगता है। सबको साक्षात् भगवत्स्वरूप मानना बड़ी ऊँची चीज है (गीता ७/१९) । इतना नहीं हो तो भगवान् को सबमें और सबको भगवान् में मानना चाहिए (गीता ६/३०) । सबकी आत्मा को सुख पहुँचाना भगवान् को सुख पहुँचाना है।

सबमें भगवान् का दर्शन करके खुश हों, उनकी सेवा करने से खुश हों - यह प्रभु की सेवा है। जिनकी हम सेवा करते हैं, वे चाहे कायदे (पद, आयु, विद्या, बुद्धि में) हम से नीचे हों, किन्तु हमारा कायदा तो 'वासुदेवः सर्वम्' (गीता ७/१९) है। हमारे द्वारा जो सेवा होती है, वह भगवान् ही हमसे करवा लेते हैं। हमारे में तो ताकत नहीं है, हम तो निमित्तमात्र हैं। सबको खुश करना ही भगवान् को खुश करना है। गीताप्रेस के सभी ऑफिसों में प्रसन्नता, शान्ति हो तो प्रवेश करते ही वैकुण्ठधाम में पहुँचने वाली बात हो जावे; फिर गीताप्रेस तीर्थ हो जावे; तीर्थ से भी बढ़कर ! भगवान् की कृपा माननी चाहिए। नहीं मानेंगे, तब भी दया तो है ही, मानेंगे तो लाभ उठा लेंगे। उनकी कृपा से क्यों नहीं बन सकते ?

हमें तो एक दिन वह चीज दिखलानी है कि गीताप्रेस तीर्थ से भी बढ़कर हो जावे; रामराज्य का नमूना दिखला देवें। कोई पूछे तो कह देवें कि- 'जाओ, गीताप्रेस में देख लो !' फिर आप लोगों को हजारों में से एक देखते हैं (गीता ७/३)। भगवान् की कृपा के बल पर यदि मान लें तो दूसरों को भी भगवान् की प्राप्ति करा सकते हैं।

हम लोगों का सबका समय कम रह गया है, मृत्यु रोज निकट आ रही है। सबको जाना है, तिथि का पता नहीं है, इसलिए यह नमूना हम अपनी आयु में देख लें तो और अच्छा है। मरने के बाद यदि बने तो हम तो नहीं देख सकेंगे। आगे भी लोग ऐसा बना तो सकते हैं। यह ऐसा स्थान बन जावे कि लोग यहाँ से भगवत्प्राप्ति के पात्र बन जावें और लोगों को भगवत्प्राप्ति होने लग जावे।

ऐसा सत्संग मुक्ति से भी बढ़कर है- 

तात स्वर्ग अपबर्ग सुख धरिअ तुला एक अंग ।
तूल न ताहि सकल मिलि जो सुख लव सतसंग ॥
(रा.च.मा. सुन्दरकाण्ड दोहा ४ )

अर्थ- हे तात ! स्वर्ग और मोक्ष के सब सुखों को तराजू के एक पलड़े में रखा जाय, तो भी वे सब मिलकर (दूसरे पलड़े पर रखे हुए) उस सुख के बराबर नहीं हो सकते, जो लव (क्षण) - मात्र के सत्संग से होता है।

संसार में मुक्त जीव तो मिल सकते हैं, किन्तु ऐसा जमघट कहाँ मिले कि मुक्ति की टकसाल जैसी ? ऐसा हो जावे तो बहुत अच्छा। ऐसा मंसूबा (मनोरथ) भी अच्छा है। सबका कल्याण हो जावे- यह भाव बहुत अच्छा है; यह भाव बड़ा उत्तम है। ऐसा पुरुष हम लोगों में भी बन सकता है। भगवान् बनावें पात्र । 'सबका कल्याण कर दो, सबका पाप मुझे भुगता दो' - ऐसा मनुष्य पात्र बन सकता है। इतना त्याग हो, वह निमित्त बने। 'सारी दुनियाँ का दण्ड मैं भोगूँ' - यह कहना तो सहज है, किन्तु करना बड़ा कठिन है। सबके दुःख से दुखी होकर रोने से उसकी सुनवाई पहले होवेगी, क्योंकि अपने दुःख के लिए तो सब रोते ही हैं; उनकी सुनवाई जल्दी नहीं होती। इस प्रकार 'सबका कल्याण हो जावे, सब मुक्त हो जावें' - ऐसा भाव हर समय रखना चाहिए। अपने से जो कुछ बनती में आवे, वह भी संसार के कल्याण के लिए भगवान् को सौंप देवे तो त्याग का फल मिलेगा, किन्तु आप लोगों को यह (त्याग का फल मिलने की) दृष्टि नहीं रखनी चाहिए। भगवान् दें, यह बात दूसरी है। अपने तो निष्कामभाव से त्याग करे। भगवान् को दिए बिना सन्तोष नहीं होवे तो भगवान् की मर्जी । 'भजन, ध्यान, तपस्या का फल इसलिए त्याग करता हूँ कि त्याग का फल मिलेगा' - तो यह स्वार्थ के लिए त्याग हुआ। इस त्याग की इतनी महिमा नहीं है। बात तो ऐसी ही है। भगवान् ऋणी हो जाते हैं।

यदि भजन, ध्यान, साधन करके भगवान् से प्रार्थना करूँ कि- 'इस गरीब आदमी का कल्याण कर दो' या भगवान् के समर्पण कर दूँ तो समर्पण करना और ऊँचे दर्जे की चीज है, क्योंकि अपनी इच्छा नहीं है और भगवान् ऋणी बन जाते हैं। भगवान् यदि कहें कि - 'मैं तुम्हारा ऋणी हूँ' तो हमको तो जमीन में गड़ जाना चाहिए; कलंक समझना चाहिए कि भगवान् ने ऐसी बात कही। भगवान् ऐसी प्रतीक्षा करते हैं कि- 'यह माँगता तो नहीं है, किन्तु चाहता क्या है। माँगता तो नहीं है, किन्तु इसके सन्तोष किस बात का है' यह मौका देखते रहते हैं। भक्त की इच्छा की पूर्ति मेरे द्वारा कैसे हो ? हनुमान् को कहते हैं कि- 'मैं तेरा ऋणी हूँ। ऋण दूर भी नहीं करना चाहता, क्योंकि तुम्हारे में संकट आवे, तब ऐसा हो।'