गीताप्रेस का काम भगवान् का काम है!
गीताप्रेस का काम भगवान् का काम है, यह बात सभी कहते हैं- जो श्रद्धा वाले हैं, वे भी और जो श्रद्धा वाले नहीं हैं, वे भी; किन्तु समझता कोई भी नहीं है। यह अयुक्त (गलत) नहीं है। कोई एक पाई (आधा प्रतिशत), कोई दो पाई (एक प्रतिशत) समझता है. पूरा कोई नहीं समझता है; भगवान् ही जानते हैं। मानने वाले भी थोड़े ही हैं। यदि वास्तव में समझ लें तो आनन्द का ठिकाना नहीं रहे ! यदि किसी को इसका छोटा-सा भी काम मिल जावे, तो इससे अलग होना नहीं चाहता। कलकत्ता में शेयरबाड़ा (स्टॉक एक्सचेन्ज) है, उसमें ४०० सदस्य हैं। पहले ५००/- रुपये फीस थी, अब ४०,०००/- की फीस है; उसमें भी भर्ती होने के लिए लोग लालायित हैं। वह बेकार काम है, मुक्ति में बाधक है। किसी को मिनिस्ट्री मिल गई, किसी को असेम्बली में पास मिल गया तो अपने-आपको कृतकृत्य मान लेता है। मिनिस्टर बनने पर भी हटना नहीं चाहता है। कोई म्युनिस्पैलिटी में चेयरमैन बन जाता है और हटने का प्रकरण आता है तो उसे मौत-सी दिखती है। कितना नीचा दर्जा है ! असेम्बली का सदस्य, सदस्य में मिनिस्टर, मिनिस्टर में भी होम मिनिस्टर; किन्तु परमात्मा के सामने ये सब नीचे ही हैं। सबकी आयु है। इन्द्र की भी आयु है। करोड़ों इन्द्र हो चुके, किन्तु उसकी अब क्या कीमत है ? २ पैसा भी नहीं है। राजा नहुष का कितना प्रभुत्व चलता था । उसको साँप बनाकर गिरा दिया गया ! परमात्मा की प्राप्ति के मुकाबले में इसकी कोई कीमत नहीं है।
अपना यह जो काम है, हम लोग गीताप्रेस में भर्ती हैं- यह सोच-सोचकर प्रसन्न रहना चाहिए। कोई भाई इस्तीफा देवे ही नहीं। हमारी ओर देख लिया करो। ऐसा करने की हमारे मन में ही नहीं आती है, यमराज भले ही उठा लेवें। इससे अच्छा दूसरा कौन-सा स्थान मिलेगा, जिसका फल परमात्मा की प्राप्ति है ? कोई भाई यह समझ ले कि हमारे रहने से गीताप्रेस का नुकसान होता है, उस समय तो रोते हुए इस्तीफा दे देना चाहिए। जिस व्यक्ति की आवश्यकता है, उसके इस्तीफा के लिए तो बात आ ही नहीं सकती। जो कंटक हैं, वे तो हमारे माँगने पर भी इस्तीफा नहीं देते। जिनको हम लोग चाहते हैं कि इनकी आवश्यकता है, उनको इस्तीफा नहीं देना चाहिए। जिनको नहीं चाहते, वह यदि भला आदमी हो तो मुक्ति का साधन होते हुए भी एक दिन भी यहाँ नहीं रहना चाहिए। लोभी आदमी की हमको जरूरत नहीं हैं, उनका रहना हमारे फायदे की चीज नहीं है। जिसको हम लोग चाहते हैं, उसको ठोकर खाकर, गाली खाकर भी यहीं पर रहना चाहिए; भगवान् के दरबार को नहीं छोड़ना चाहिए। यह बात समझ में आने पर मान, अपमान, निन्दा, बेइज्जती- सब बह जायेंगे; इनका कोई भी मूल्य नहीं है। जब तक मन में इनका मूल्य है, तब तक मुक्ति में कलंक है; इसको धो डालना चाहिए। धोने की पहचान— आनन्द, प्रसन्नता का ठिकाना नहीं रहे। ऐसा पुरुष ही- 'मैं भगवान् के दफ्तर में दाखिल हो गया' ऐसा मानने वाला है; जानने वाला नहीं है। जानने वाले को तो भगवान् से बढ़कर कह दें तो अत्युक्ति नहीं है; उसी वक्त परमात्मा की प्राप्ति ही उसका फल है। इसको तो भगवान् ही जानते हैं। साधन अवस्था का जानना, फिर मानना। जितना मानता है, उतना सात्त्विक आनन्द, शान्ति मिलती है। यह बाधक एवं साधक- दोनों है। बाधक इसलिए कि वह (आनन्द, शान्ति के उपभोग में) अटक जाता है; नहीं तो साधक है, मदद देने वाला है।
सत्संग के अमूल्य वचन-
आप संसार के उद्धार के लिये खड़े होंगे तो आपको भगवान् आप ही शक्ति देंगे; वे आप ही योग्य बना लेंगे।
सेवा और परम सेवा वही पुरुष कर सकता है, जो लोगों को कष्ट के समय सहायता दे। यदि कोई व्यक्ति बीमारी और कष्ट के समय तो सहायता देवे नहीं और बाद में उपदेश दे तो उसका उपदेश किस तरह लगे ?
यदि सेवा करने के कारण भजन कम भी होवे और उसका भजन- ध्यान करने का उद्देश्य होवे, तो वह सेवा भजन से कम कीमती नहीं है।
अपने ऊपर ईश्वरकी दया मानने वाले पुरुषों को कभी निराश नहीं होना चाहिये। उनमें श्रद्धा प्रेम होने के लिये भजन - ध्यान की विशेष कोशिश करनी चाहिये।
जो आदमी मरणासन्न हो, उस आदमी को परमात्मा की तरफ लगा दो - इसके बराबर कोई भी साधन दुनिया में नहीं है। ऐसा जो समय है, वह महापुरुषों के समय के समान दामी (मूल्यवान्) है। इस क्रिया से भगवान् बहुत राजी होते हैं।