Seeker of Truth
॥ श्रीहरिः ॥

गीताप्रेस का काम भगवान् का काम है

प्रवचन सं. २३
दिनांक २५-११-१९५९, रात्रि ११.१५ बजेएकान्त में

गीताप्रेस का काम भगवान् का काम है- यह समझकर चित्त में प्रसन्नता, उत्साह होना चाहिए, जो कि सेवा करने वालों में देखने में नहीं आता है। इससे थकावट नहीं आती है। यह भगवान् का काम है- यह युक्तिसंगत बात है। भगवान् का काम मानने से अपने चित्त में बड़ी प्रसन्नता होनी चाहिए; हमेशा भगवान् की स्मृति रहनी चाहिए। हमारे में क्या गड़बड़ी है. उसकी निगाह करनी चाहिए। भगवान् का काम है- यह तो गलत बात है नहीं, हमारे मानने में ही गलती है। मानने की कमी के कारण लाभ से वंचित क्यों रहें ? चीज तो भगवान् की ही है।

भगवान् का काम करने का मौका मिला ! घर से रुपये खर्च करके भी ऐसा काम नहीं मिल सकता है ! इस संस्था के खड़े होने का कारण गीताजी के दो श्लोक (१८/६८-६९) हैं।

य इमं परमं गुह्यं मद्भक्तेष्वभिधास्यति ।
भक्तिं मयि परां कृत्वा मामेवैष्यत्यसंशयः ॥

अर्थात- जो पुरुष मेरे में परम प्रेम करके इस परम रहस्ययुक्त गीताशास्त्र को मेरे भक्तों में कहेगा अर्थात् निष्कामभाव से प्रेमपूर्वक मेरे भक्तों को पढ़ावेगा या अर्थ की व्याख्या द्वारा इसका प्रचार करेगा, वह निःसन्देह मेरे को ही प्राप्त होगा।

न च तस्मान्मनुष्येषु कश्चिन्मे प्रियकृत्तमः ।
भविता न च मे तस्मादन्यः प्रियतरो भुवि ॥

अर्थात्- और न तो उससे बढ़कर मेरा अतिशय प्रिय कार्य करने वाला मनुष्यों में कोई है और न उससे बढ़कर मेरा अत्यन्त प्यारा पृथ्वी में भविष्य में दूसरा कोई होवेगा ।

भाई हरिकृष्ण से गीताजी की चर्चा करने में ४८ घंटे बीत गए। भोजन, शौच-स्नान, सन्ध्या-गायत्री- ये काम तो किए; और दूसरा कोई काम नहीं किया। ५४ दिन में गीताजी पर अर्थ लिखा- नाहरमल शिवबक्स के यहाँ पर। पं. ज्येष्ठारामजी संस्कृत से अनुवाद बोलते थे, हरिकृष्ण लिख लेता था। सवेरे ७ बजे से रात के १० बजे तक काम चलता था। इस प्रकार से लिखकर भाषानुवाद सहित गीता कलकत्ता में वणिक् प्रेस में छपी। बाद में गोरखपुर में गीताप्रेस की स्थापना हुई।

हमारी साधन प्रणाली- मैं भगवान् का, और भगवान् मेरे। 

भगवान् को सब जगह देखें; हर वक्त देख-देखकर मुग्ध होना चाहिए। 

मूँदड़ा (श्रीरामेश्वरजी मूँदड़ा, जो कि श्रद्धेय श्रीसेठजी की व्यक्तिगत सेवा किया करते थे) से काम कराने में संकोच नहीं है। और जितने आप लोग बैठे हो, सबसे संकोच होता है।

भगवान् की बड़ी कृपा से हम लोगों को यह काम मिला है। इस काम में उत्साह होना चाहिए और इससे शान्ति मिलनी चाहिए।

साधन अवस्था- आरम्भ अवस्था ।

बाद की अवस्था परिपक्व अवस्था ।

शुरू की अवस्था में प्रफुल्लता आदि ज्यादा होती है। परिपक्व होने के बाद नित्य शान्ति प्राप्त हो जाती है। जैसे कड़ाही में कचौरी पड़ी रहती है, वह जब तक कच्ची होती है, तब तक उसमें क्रिया होती है; पकने के बाद क्रिया नहीं होती है।

किसी आदमी को भगवान् का काम मिल जावे तो उसे बड़ी प्रसन्नता मिलनी चाहिए। वह अपने को कृतकृत्य मान ले यहाँ तक गुंजाइश है ! मानना अपने हाथ की बात है; आप लोगों के लाभ की बात है। भगवान् की अपने ऊपर जितनी कृपा है. उसका सौवाँ हिस्सा (१%) भी नहीं मानते हो। भगवान् की जितनी कृपा है, वह मान लेओ तो शान्ति, आनन्द समावे नहीं: हँसते-हँसते पागल हो जाओ ! क्षत्रिय बालक का दृष्टान्त- युवराज पद दे दिया। (भगवान् की जितनी कृपा है, उसको जो मान लेता है, उसके प्रसन्नता का ठिकाना नहीं रहता है), जिस तरह उस क्षत्रिय बालक ने अफसरों की बात मान ली थी।

(गीताप्रेस से प्रकाशित पुस्तक 'उपदेशप्रद कहानियाँ' कोड़ नं ६८० में ‘भगवदर्थ कर्म और भगवान् की दया का रहस्य' शीर्षक के अन्तर्गत क्षत्रिय बालक की कहानी)

मेरे कहने से ही मान लो कि भगवान् की आप लोगों पर बड़ी कृपा है। हम झूठी तो कहते नहीं हैं। भगवान् की दया का दिग्दर्शन कर लो कि आपको भगवान् का काम मिल रहा है ! यदि १०० आदमी और आ जावें तो उनको काम कहाँ से देवें ? हम लोग भगवान् की कृपा थोड़ी मानते हैं; है बहुत ज्यादा। पूरी कृपा मान लेने पर काम खत्म हो जाए (अर्थात् भगवत्प्राप्ति हो जाए)। भगवान् की तरफ तो रुकावट है नहीं। आप लोगों को भगवान् की कृपा नहीं भी प्रतीत होवे, तो भी मान लो। यह बात मानी जावे, तो यह सब बातों को मानने का फल है; साधन की सम्पूर्ण बातों का फल है। इसके पेट में सब है।

भगवान् की कृपा से ही सब कुछ होता है। साधन करना प्रयत्न-साध्य है और प्रयत्न भगवत्कृपा से होता है, जिस तरह से भगवान् ने अर्जुन से कहा है कि- 'निमित्तमात्रं भव सव्यसाचिन्' (गीता ११ / ३३)। हम जो साधन-भजन करते हैं, वह तो एक प्रकार से नेगचार की तरह है। नेगचार करना हमारा कर्तव्य है। यह नेगचार भी भगवान् की कृपा से ही होता है।

बड़े स्वार्थ (भगवत्प्राप्ति) का नाम परमार्थ है। यह परमार्थ की बात है। परमार्थ है, वह सच्चा पैसा (सच्चा लाभ) है।

किसी महात्मा की सेवा करते हैं तो प्रसन्नता होती है न ! जितनी प्रसन्नता होनी चाहिए, उसका अनुभव नहीं है, क्योंकि आप मुँह से महात्मा मानते हो, असल में नहीं मानते हो। यदि असल में मानो तो प्रसन्नता का ठिकाना नहीं रहे। उसकी कैसी स्थिति हो जाती है- आँखें डबडबा जाती हैं, अश्रुपात होते रहते हैं, प्रसन्नता का ठिकाना नहीं रहता। अनुभव तब होगा, जब कभी काम पड़ेगा। महात्मा की सेवा मिल जाएगी, तब महात्मा मानकर सेवा करने से क्या परिवर्तन होते हैं, कैसी अवस्था हो जाती है, तब मालूम पड़ेगा।

इसी प्रकार ईश्वर के विषय की बात है। गीताप्रेस के काम को ईश्वर का काम समझकर करने से ईश्वर की सेवा हुई। मेरा काम करो तो मेरी सेवा हुई।

सबमें ईश्वर देखें- 'यो मां पश्यति सर्वत्र' (गीता ६/३०); श्लोक का एक ही चरण । भगवान् एक श्लोक में कितनी ही बात कह देते हैं। 'उसके लिए मैं 'न प्रणश्यामि' (गीता ६/३०) - 'अदृश्य नहीं होता हूँ।' फल तो हाथ की बात नहीं है, साध न तो हाथ की बात है।

यो मां पश्यति सर्वत्र सर्व च मयि पश्यति । 
तस्याहं न प्रणश्यामि स च मे न प्रणश्यति ॥
(गीता ६/३०) 

अर्थात्- जो पुरुष सम्पूर्ण भूतों में सबके आत्मरूप मुझ वासुदेव को ही व्यापक देखता है और सम्पूर्ण भूतों को मुझ वासुदेव के अन्तर्गत देखता है, उसके लिये मैं अदृश्य नहीं होता हूँ और वह मेरे लिये अदृश्य नहीं होता है।

प्रेम से, प्रसन्नता से अश्रुपात, रोमाञ्च होने लगें; करुणाभाव से नहीं।

आप विश्वास कर लो तो भी बहुत लाभ हो; नुकसान की कोई बात नहीं है।

परिस्थिति की बात कही, वह केवल शास्त्रों के आधार पर ही नहीं, बल्कि दूसरों के बीती हुई, आँखों से देखी हुई कहता हूँ. इसलिए ज्यादा विश्वास की बात है। आप लोग इस बात को लक्ष्य रखकर करो। न तो कोई नया काम शुरू करना है और न ही परिवर्तन करना है। स्वामीजी ने दो बातें कही- 'जो काम करो, उस काम को भगवान् का काम मान लो।' इस पर कहता हूँ- 'भगवान् का काम भगवान् की मर्जी से करते हैं।' 'भगवान् सबमें विराजमान हैं, उनको सर्वोपरि मानें।' क्रिया बदलने की नहीं कहता हूँ, भाव बदलने की कहता हूँ। भाव बदलना कठिन नहीं है और समझना भी कठिन नहीं है; कही, और मानी। बाँकुड़ा में सावित्री से बात हुई। उसको कही और उसने मान ली; तो मानने से हो गई, कोई कठिनता नहीं हुई। बड़ी-से-बड़ी क्रिया भाव की कमी से उतनी फलदायक नहीं होती है। भाव ऊँचा होने से क्रिया ऊँची हो जाती है।

२० वर्ष, ५० वर्ष तक उत्तम क्रिया करे; भाव बदले तो एक मिनट में बदल जाता है, तो भगवान् की कृपा है। जो कोई आदमी जिस प्रकार से काम करता है, वह कहीं जाता नहीं है, संग्रह होता रहता है। फल नहीं देखकर भी करते हुए चला जाय, वह ज्यादा ऊँचे दर्जे का है। फल की तरफ दृष्टि जाने से, फल नहीं दिखने से निराशा पैदा होती है। गीता २/४७ में ४ सूत्र हैं। जो समय गया, वह तो चला गया। जो बचा हुआ है, उसकी रक्षा करो। गया हुआ समय भी अच्छा ही बीता है, किन्तु भावसहित करना और ज्यादा मूल्यवान् है।

महात्मापने का भाव उच्च कोटि का है और परमात्मापने का भाव सबसे उच्च कोटि का है। भगवान् सब जगह, समभाव से, सदा ही स्थित हैं। नहीं दिखें, तो भी मान लेवें; मानने से दिखने लग जाते हैं। पहले सुने, फिर माने, फिर अनुभव में आते हैं, फिर परमात्मा प्रत्यक्ष हो जाते हैं।

अनुभव की एक बात और है। रात्रि का जो समय परमात्मा के तत्त्व, रहस्य के विषय में बीतता है, वहाँ नींद का असर नहीं रहता है। यह बात कई बार अनुभव की हुई है।

परमात्मा के सगुण-निर्गुण स्वरूप, साकार-निराकार स्वरूप- सब एक ही तत्त्व हैं। किसी भी स्वरूप का लक्ष्य करो, एक ही हैं।

५० वर्ष पहले या इससे ज्यादा भले ही हो सकते है, मैं साकार की उपासना को तो साधन समझता और निराकार की उपासना उसका फल समझता था। पहले के संस्कार से अब भी निराकार के उपासक के लिए इसे भले ही विशेष कह दूँ, किन्तु भगवान् के किसी भी स्वरूप का ध्यान एक ही वैल्यू (कीमत) रखता है। ५० वर्ष पहले भगवान् की कृपा से यह अनुभव हुआ कि दोनों तत्त्व समान हैं; कैसी भी उपासना करो। अधिकारी-भेद से भेद है। इन ५० वर्ष में परिवर्तन नहीं हुआ। यह बात युक्ति से, शास्त्र से- सब प्रकार से है। साधक किसी भी साकार स्वरूप का ध्यान करता है, उसके लिए शास्त्र, महापुरुषों के वचन और चित्र ही आधार हैं। अपनी दृष्टि से बढ़िया-से-बढ़िया स्वरूप का ध्यान करे, उसको सर्वोपरि माने और निष्कामभाव से करे। सूक्ष्म-से-सूक्ष्म निराकार का वर्णन किया जाता है, उससे यह विलक्षण है। साकार के स्वरूप को श्रेष्ठ माने, परन्तु उससे भी असली स्वरूप विलक्षण है। साधन अवस्था में निर्गुण-निराकार, सगुण-साकार - दोनों ही माने हुए (कल्पना किए हुए) हैं। जो असली स्वरूप है, वह फल है; वह एक ही है-

ध्यानेनात्मनि पश्यन्ति केचिदात्मानमात्मना ।
अन्ये साङ्ख्येन योगेन कर्मयोगेन चापरे ॥
(गीता १३/२४)

अर्थात्- हे अर्जुन ! उस परम पुरुष परमात्मा को कितने ही मनुष्य तो शुद्ध हुई सूक्ष्मबुद्धि से ध्यान के द्वारा हृदय में देखते हैं, अन्य कितने ही ज्ञानयोग के द्वारा और दूसरे कितने ही कर्मयोग के द्वारा देखते हैं अर्थात् प्राप्त करते हैं।

शास्त्र का प्रमाण श्रद्धा, रुचि बढ़ाने के लिए दिया जाता है; शास्त्र को आदर देने के लिए भी देते हैं। फल असली होने से असली है। श्रद्धा की कसौटी पर तो असली है, तर्क की दृष्टि से नकली है; इसलिए साधन सच्चा है- यह मानना ही श्रद्धा है। कुतर्क के लिए 'फल विलक्षण है' - यह कहना है। साधक को तो असली नकली का पता नहीं है, इसलिए भगवान् इसको असली मानते हैं; अपने को भी असली ही मानना चाहिए। जो सिद्धान्त की बात शास्त्र, तर्क और अनुभव से सिद्ध हो जाती है, अकाट्य हो जाती है, वही सिद्धान्त है। वह तो एक ही है, मान्यताएँ अनेक हो जाती हैं। सिद्धान्त की शाखाएँ तो हैं; 'ईश्वर का स्वरूप कैसा है' - यह अपनी-अपनी मान्यता के अनुसार है। 'ईश्वर हैं' - यह सिद्धान्त है। 'ईश्वर की प्राप्ति सभी देश, काल में होती है' यह सिद्धान्त है। 'ईश्वर की प्राप्ति में कोई भी, किसी को बाधा नहीं पहुँचा सकता है' - यह सिद्धान्त है। आपने स्वयं ने ही रुकावट लगा रखी है। परमात्मा की प्राप्ति में वर्ण, आश्रम भी बाधक नहीं हैं। जल, स्थल, हवा में भी प्राप्ति हो सकती है। सिद्धान्त तो अकाट्य है ही। मानने वाले के जिस प्रकार सुगम रहे और जो मानने में आ सके, उस मान्यता को भी अकाट्य मान लें तो काम बन जावे।

भगवद्-विषय में कर्मों का स्वतः होना ऊँचे दर्जे का है। भजन होता है- यह तो समझाने के लिए है, उसकी स्थिति हट नहीं सकती है। यह भजन-ध्यान से भी परे की चीज है, छूट नहीं सकता है। यह क्रिया नहीं है, भाव है- स्थायी रूप से।

दूसरी बात यह है कि उसमें- 'होता है', 'करता है' - ये शब्द गलत हैं, समझाने के लिए हैं। क्या शब्द कहूँ- मिला नहीं। कह नहीं सकता हूँ।

गीता में भक्त और गुणातीत के लक्षण बतलाए हैं, वहाँ यही कहा है कि- ये स्वाभाविक हैं।

नारायण नारायण नारायण श्रीमन्नारायण नारायण नारायण

व्याख्यानदाता को लाभ भी है, परन्तु निम्नलिखित नुकसान भी हैं-

(१) मैं श्रेष्ठ हूँ।

(२) लोग श्रेष्ठ मानें।

(३) आदमी ज्यादा आवें।

(४) मेरा व्याख्यान अच्छा है।

(५) व्याख्यान में आसक्ति ।

नयी बात - एक आदमी भगवान् के निर्गुण-निराकार स्वरूप का नीचा दर्जा और सगुण-साकार का ऊँचा दर्जा माने: और दूसरा आदमी निर्गुण-निराकार का ऊँचा दर्जा और सगुण-साकार का नीचा दर्जा माने तो वह साधनकाल में मान सकता है, पर परमात्मा की प्राप्ति के बाद रास्ता नहीं है (ऐसा कहना ठीक नहीं है)। वे लोग समझे नहीं हैं। उनको साधन करना चाहिए, उनके लिए साधन करना कर्तव्य है। परमात्मा की प्राप्ति हो जाने के बाद कहने वाला कौन रहा ? परमात्मा को प्राप्त हो जाने के बाद कौन किस साधन की निन्दा करे ? पहुँचने के बाद छोटा, बड़ा कौन ? यह बहुत ऊँचे दर्जे का सिद्धान्त है।

ईश्वर को ईश्वर मान लेने से ईश्वर बन जाता है। महात्मा का तत्त्व जान लेने से महात्मा बन जाता है।

श्रद्धापूर्वक मान्यता बहुत ऊँचे दर्जे की चीज है; लोगों ने इसको समझा नहीं है। कोई व्यक्ति यह मान्यता कर लेवे कि आज भगवान् मिल जायेंगे तो उसे मिल ही जायेंगे। थोड़ा भी सन्देह होवे तो नहीं मिलेंगे। खूब निश्चय होना चाहिए कि भगवान् अवश्य मिलेंगे ही।

यह निश्चय हो जावे कि महात्मा के दर्शन से ही कल्याण हो जायेगा, तो हो ही जायेगा। श्रद्धा में जितनी पॉवर भर देते हैं, उतना ही लाभ हो जाता है। मान्यता से संसार को जैसा मानो, वैसा ही दिखता है।

भगवान् कैसे ? - मानें जैसे। ऐसे ही हमें मान लो। कोई महात्मा राख की एक चुटकी दे देता है तो कल्याण हो जाता है तो उसकी (चुटकी लेने वाले की ) मान्यता से कल्याण हो जाता है। पत्थर में शंकर की भावना करके पूजा करते हैं और भगवान् शंकर की प्राप्ति हो जाती है, तो मनुष्य को शंकर क्यों नहीं मानें ? मनुष्य पत्थर से भी खराब है क्या ? मान्यता पर निर्भर है। पति को ईश्वर मानने पर ही स्त्री को परमात्मा की प्राप्ति होती है। शास्त्र कहते हैं- 'मातृ देवो भव । पितृ देवो भव । आचार्य, अतिथि देवो भव।' कितना सरल रास्ता है ! (मोरध्वज की कथा सुनाई।)

विश्वास और श्रद्धा- इन दोनों से काम होता है। गीता ६/४७ में कहा है- 'मद्गतेनान्तरात्मना; श्रद्धावान् भजते यो माम्।' श्रद्धावान् की शर्त लगा दी।

गौडीय सम्प्रदाय में तो यहाँ तक लिख दिया है कि- 'किसी महात्मा की चरण-धूलि में स्नान कर ले तो मुक्त हो जावे; संग का असर हो जावे।'

ऋषि अगस्त्यजी की स्त्री लोपामुद्रा पर रानियों के कुसंग का प्रभाव पड़ गया। उनकी भी रानियों की तरह सोने के गहने पहनने की इच्छा हो गई। अगस्त्य ऋषि राजाओंके पास सोना माँगने गए। राजा देने लगे, तब ऋषि ने कहा- 'राज्यकार्य के आय-व्यय के हिसाब में जो अतिरिक्त बचे, वह ले सकता हूँ।' किसी राजा के पास नहीं मिला। राक्षस के पास मिला तो राक्षस से ले लिया। ऋषि ने अपनी स्त्री को पूरी बात बतलाई तो स्त्री ने गहनों के लिए मना कर दिया। तब राक्षस को सोना वापस लौटा दिया।

सम्वत् १९५६ में सूर्य स्तोत्र का पाठ करना शुरु किया। १० वर्ष बाद छोड़ दिया।

भगवान् का काम नहीं समझने में श्रद्धा की कमी मालूम देती है। कुआँ खोदने में कई बार पत्थर निकलते हैं, तो शाबल (लोहे का मोटा नुकीला डंडा) जोर से मारते ही पानी निकल जाता है। परमात्मा की दया मानने से श्रद्धा बढ़ती है। परमात्मा की दया पूर्ण है। लाभ क्यों नहीं होता है ? हम मानते नहीं हैं, इसलिए लाभ से वंचित रहते हैं। मानने से ही हो जाता है तो मान लो। किसी आदमी को कह दें कि भगवान् आज ही मिल जायेंगे तो उसे विश्वास हो जायेगा। तो यह तो हम नहीं कहते हैं। कि भगवान् के दर्शन हो जायेंगे, लेकिन यह तो कहते ही हैं। कि भगवान् की पूर्ण दया है। यह बात युक्तिसंगत है, गीता ५/२९ में कहा है, विश्वास ही करना है। यह कहने में कोई अड़चन नहीं है, क्योंकि दया तो है ही; वर्तमान में भी है। 'दर्शन हो जायेंगे' यह भविष्यत् की क्रिया है।

कोई डॉक्टर हैजा, प्लेग, माता शीतला के रोगी को छूयेगा तो हाथ धोयेगा, क्योंकि छूत का परमाणु असर करता है; तो अच्छे परमाणु का असर क्यों नहीं होगा ? अधिकारी पुरुषों का विशेष असर पड़ता है। उनके नेत्रों की वृत्ति जितनी दूर जाती है. जिसको देखे, वहाँ वे परमाणु प्रवेश कर जाते हैं। कबीरदासजी को देखने वाले व्यक्ति के नेत्रों को धोकर पीने से उस पीने वाले व्यक्ति का भी कल्याण हो गया !

महापुरुष यदि किसी को याद कर लें तो उन (महापुरुष) का मन तो उसके पास पहुँच गया। एक बार शेषनागजी बीमार पड़ गए, उनको दवाई दी गई, असर नहीं होते। क्यों? उनके क्षेत्रों से विष निकलता था इसलिए उनकी आँख बाँधकर औषधि दो। जब नेत्रों से विष का असर होता है, तब महापुरुष के नेत्रों के परमाणुओं का असर नहीं होगा क्या ?

भगवान् की आज्ञा मानने से बहुत लाभ होता है। हर समय भगवान् की कृपा मानकर आनन्द में मुग्ध रहना चाहिए। बिजली को छूने से करन्ट दौड़ जाता है, वह तो घातक है; इसी प्रकार भगवान् को स्पर्श करने से भी करन्ट दौड़ जाता है, परन्तु वह आनन्ददायक है; उस करन्ट से पापों में आग लगकर पाप भस्म हो जाते हैं।

परमात्मा की प्राप्ति निश्चय ही होगी- यह विश्वास रखना चाहिए। हर समय आनन्द के सागर में डूबना चाहिए। सबमें समभाव, भगवद्भाव रखें। कहीं गलती होवे तो भगवान् ठीक कर लें। उनकी आज्ञा के अनुसार सबमें उनका स्वरूप, प्रेम और उनकी दया देख-देखकर खूब प्रसन्न होना चाहिए।

सत्संग के अमूल्य वचन-

सब जगह से प्रेम हटाकर एक भगवान् में ही लगाना चाहिये।

हम यह सब सामग्री पाकर भी भगवान् को प्राप्त नहीं कर सके तो हमारे समान मूर्ख कौन होगा ?

दिन-रात सत्संग सुनने को मिले। गीता, रामायण और गंगाजल (जो कि हमें पान करनेको मिलता है)- इनकी शास्त्रों में बहुत महिमा मिलती है। जो इनका सेवन करता है. उसकी यमराज के यहाँ चर्चा नहीं होती है।