भगवान् याद आने पर उनके गुण अपने में आने चाहिएँ
गीताप्रेस के रुपये संसार के हित के लिए लगें, वह तो ठीक है; व्यक्तिगत काम में लगाना ही चोरी है।
समय की चोरी- २४ घण्टे काम करें। आप १८ घण्टे लगाओगे तो बाकी ६ घण्टे आप ही लगेंगे। (जिस भगवत्-सम्बन्धी काम में १८ घंटे लगते हैं, सोते समय ६ घंटे भी स्वतः उसी काम का चिन्तन होता है, अतः वह सोना भी उसी काम में गिना जाता है।) गीताप्रेस का काम प्रकाश (प्रत्यक्ष में) और अप्रकाश (अप्रत्यक्ष में)- दोनों ही में भगवान् का काम है। शरीर की रक्षा करनी चाहिए, ताकि शरीर बीमार नहीं पड़े; बस, फिर शरीर को कसकर काम में लाना चाहिए। हमारा समय दामी (मूल्यवान्) काम में नहीं लगता है, यह भगवान् की वंचना (छलपूर्वक उगने या धोखा देने का भाव) ही तो है।
महाभारत ग्रन्थ को तो १५,००० आदमी पढ़ते हैं, 'कल्याण' मासिक पत्रिका को एक लाख आदमी पढ़ते हैं तो 'कल्याण' को एक करोड़ आदमी पढ़ें- हम लोग ऐसा प्रयास करें। सत्संग में १०० भाइयों को ही क्यों सुनावें ? १,००० हों या फिर १०,००० हों तो सुनावें, जिससे कि अधिक-से-अधिक लोगों को लाभ हो। सत्संग में आदमी कम आवें तो हमारा कसूर (दोष) है, क्योंकि सुनने वालों की हमारे प्रति श्रद्धा कम है; तो उनकी श्रद्धा ज्यादा होवे, ऐसा हमको बनना चाहिए। हम सत्संग सुनने वालों को दोष क्यों देवें ? हम तो अपना ही दोष मानते हैं। हमें यह बात बुद्धि से खूब निगह करनी चाहिए। हमारे में प्रभाव नहीं है तो हमें प्रभावशाली बनना चाहिए।
भगवान् अपने गुणों को भक्तों को दे देते हैं; परन्तु यदि हम उसके लायक नहीं हैं, तब नहीं देते हैं। यदि हमारे मन में किसी के प्रति स्फुरणा (याद) आवे तो हमने उसका क्या लाभ किया ? सांसारिक आदमी भी किसी को याद करता है तो उसे लाभ हो जाता है; वह उसको रुपया भी कमा कर दे देता है। हमने किसी व्यक्ति को याद करके उसका क्या लाभ किया ? पहली बात तो परमात्मा के सिवाय और कोई याद ही क्यों आवे ? याद तो प्रीति के कारण आती है। हमारी किसी के साथ मित्रता है, वह मित्र कहता है कि- 'मेरे को याद रखना' तो मैं कहता हूँ कि 'भई ! हम याद तो भगवान् को ही करने की चेष्टा करते हैं। अपने-आप ही किसी की याद आ जावे तो अलग बात है।' दूसरी बात अगर याद आती है तो भगवान् के प्रेम में कमी है। किन्तु अपने में यदि कमी है तो भी अगले (जिसकी हमें याद आई, उस) को तो लाभ होना चाहिए। भगवान् याद आने पर यदि उनके गुण अपने में आवें तो लाभदायक है, नहीं तो क्या लाभ हुआ ? दुनियाँ का लाभ है, वह हमारा लाभ है; इसलिए हम कहते हैं कि हमारा समय ठीक नहीं बीतता है। आप लोगों ने लाभ उठा लिया, तब तो हमारा समय ठीक बीता।
(यहाँ श्रद्धेय श्रीसेठजी के कहने का भाव यह प्रतीत होता है कि मेरे द्वारा आप लोगों का स्मरण किए जाने पर अथवा आप लोगों के द्वारा मेरा स्मरण किए जाने पर यदि आप लोगों को आध्यात्मिक लाभ होता है, तब 'मैं मानूँ कि मेरा समय ठीक बीता, अन्यथा कहीं-न-कहीं मेरे में कमी है, जिसकी वजह से आप लोगों को लाभ नहीं हुआ ।)
सब रुपये भगवान् के हैं। ये भगवान् के काम में नहीं लगें तो यह रुपयों की चोरी हुई। रेल में फर्स्ट क्लास में क्यों जावें, थर्ड में क्यों नहीं जावें ? (उस समय रेल में थर्ड क्लास भी हुआ करती थी।) थर्ड में जाने से बीमार थोड़े ही पड़ जायेंगे !
शरीर से खूब काम करें। शरीर की रक्षा तो करनी चाहिए. किन्तु (शरीर को) खर्च भी तो करना चाहिए (अर्थात् उससे खटकर काम भी तो लेना चाहिए)। इसी प्रकार रुपयों की केवल रक्षा ही नहीं करनी, उसे खर्च भी तो करना चाहिए।
गीताप्रेस के रुपये बाद में अच्छे काम में लगेंगे- यह विश्वास हो तो रुपये बढ़ाओ, नहीं तो क्यों बढ़ाओ हो ? पूँजी बढ़ाओ मत, घटाते जाओ। पुस्तकों का खूब प्रचार करो। घाटे की तरफ खयाल मत करो। आप तो हमारा काम करो। हमारे कभी भी कमी नहीं आई, घाटा नहीं पड़ा; काम नहीं अटका । हमें किसी को भी रुपये कहाँ से आते हैं- यह भेद बताना नहीं है। हमारे तो रुपये आप ही आ जाते हैं। जितने घटते हैं, वे गोविन्द भवन से लग जाते हैं। चूरू में अकाल राहत की सेवा के काम में साढ़े तीन लाख रुपये लगे, जिसमें से तीन लाख रुपये आ गए, बाकी के रुपये गोविन्द भवन से लग गए। बड़ा खजाना गोविन्द का भवन है। वहाँ क्या घाटा है ? (नोट- गीताप्रेस, गीताभवन, गीताप्रेस वस्त्र विभाग एवं ऋषिकुल, चूरू आदि संस्थाएँ गोविन्द भवन कार्यालय के अन्तर्गत हैं, जो कि कोलकाता में स्थित है।)
सोचते रहना चाहिए कि हम भगवान् के मन-माफिक किस तरह से बनें। अपनी उन्नति में कमी मानते ही रहें। जिस दिन कोई आदमी अपने-आपको कर्तव्य-शेष मान लेता है (अर्थात् यह मान लेता है कि अब मेरे लिए कोई कर्तव्य बाकी नहीं है), तो वहीं से उसकी अवनति शुरु हो जाती है; इसलिए उन्नति करते ही रहना चाहिए। मुक्त पुरुष भी उन्नति करता ही रहे। एक की (अर्थात् उसकी स्वयं की) मुक्ति हो गई; परन्तु संसार में असंख्य जीवों की मुक्ति तो बाकी है ! ऐसे विचार और सोच वाले को भगवान् पॉवर देकर भेजते हैं। जिसके मन में ऐसा भाव रहता है कि संसार के सभी प्राणियों के पाप मुझे भुगताओ, अन्य सभी प्राणियों को मुक्त कर दो ऐसे व्यक्ति को ही भगवान् पॉवर (यानी दूसरे प्राणियों के कल्याण करने की शक्ति) देते हैं। तत्परता के साथ काम करने वाले को ही भगवान् पॉवर देते हैं। भगवान् पॉवर देते हैं तो हमारे में पॉवर की कमी है, तभी तो भगवान् पॉवर देते हैं; नहीं तो भगवान् को पॉवर क्यों देनी पड़े। अपने में कमी मानता ही रहे। हमें भरतजी की बात याद आती है कि-
कपटी कुटिल नाथ मोहि चीन्हा । तेहिं तें नाथ संग नहिं लीन्हा ॥
- तो हर समय अपने में कमी मानता ही रहे। भगवान् की प्राप्ति हो, तो अपने लिए (भगवान् की प्राप्ति) पीछे रखे; पहले औरों को (भगवत्प्राप्ति) होने दे।
लोक-संग्रह की इच्छा से कर्म करना चाहिए। लोग चारों ओर बिखरे पड़े हैं (यहाँ श्रद्धेय श्रीसेठजी का तात्पर्य यह प्रतीत होता है कि लोगों की चित्त-वृत्ति कई प्रकार के सांसारिक कार्यों और भोग-संग्रह में बिखरी हुई है), उनको परमात्मा में इकट्ठा कर देवे (अर्थात् उनकी चित्त-वृत्ति को परमात्मा में इकट्ठी कर देवे, उनको परमात्मा में लगा देवे) - यही लोकसंग्रह है। भगवत्प्राप्ति वाले की निश्चयात्मिका एक ही बुद्धि है (गीता २/४१) । अव्यवसायी बुद्धि वालों को एक जगह इकट्ठा करें (अर्थात् उनकी चित्त-वृत्ति को परमात्मा में इकट्ठी करें), तो सबका उद्धार होवे; तब (उस मुक्त पुरुष का) काम खत्म होवे । भगवान् की प्राप्ति के लिए प्रयत्न का काम भी करता रहे और प्राप्ति होने के बाद फिर भगवान् जिस दृष्टि से करते हैं (अर्थात् भगवान् का संसार के जीवों के प्रति जैसा भाव रहता है), उस दृष्टि से करे। साधक होवे तो सिद्ध बनने के लिए प्रयत्न करे; सिद्ध होवे तो भगवान् की दृष्टि से करे, यानी सबके परम हित के लिये करे।
सत्संग के अमूल्य वचन-
प्रभु से मिलने की उत्कट इच्छा प्रभु से मिला देती है। प्रभु कैसे मिलें- यह धुन लग जाय तो प्रभु बिना मिले नहीं रह सकते।
मनुष्य की मान्यता फलती है। जो जैसा मानता है, उसे वैसा ही फल मिलता है, अतः अच्छी भावना करनी चाहिये । भावना में कृपणता क्यों की जाय ? मान्यता के अनुसार अनुभव हो जाता है और अनुभव होने के बाद वैसी ही स्थिति हो जाती है।