Seeker of Truth
॥ श्रीहरिः ॥

भगवान् तो अपात्र, कुपात्र को भी दर्शन दे सकते हैं

प्रवचन सं. १२
दि. १-११-१९५७, प्रातः ८.३० बजे

जसीडीह (यह स्थान बिहार के वैद्यनाथ धाम के पास है, जहाँ श्रीभाईजी को श्रीसेठजी ने भगवान् के पहली बार दर्शन करवाये थे) की घटना की जो बात है, भाईजी ने जो हमारे विषय की बात कही, वह हमारे में तो घटती नहीं है और हम भाईजी को झूठा बताते नहीं हैं, तो इस विषय में क्या कहें ? उनकी धारणा एवं श्रद्धा से भी हो सकती है। शास्त्रों में सभी तरह की बातें आती हैं। भगवान् के समान कोई भी नहीं है। भगवान् भक्त के पराधीन हैं। भक्त भगवान् से बढ़कर है। भगवान् तो बड़े दयालु हैं; तो कुपात्र का भी उद्धार कर देते हैं, अपात्र की तो बात ही क्या है ! भरतजी भी कहते हैं-

कपटी कुटिल नाथ मोहि चीन्हा । तातें नाथ संग नहीं लीन्हा ॥
(रामचरितमानस उत्तरकाण्ड १/४)

जो पात्र होता है, वह तो साधन के बल पर दर्शन करता है, किन्तु वे (भगवान्) तो अपात्र, कुपात्र को भी दर्शन दे सकते हैं- यह बात हम लोगों को मान तो लेनी ही चाहिए। 

मुझे सूर्य भगवान् से बहुत लाभ हुआ। मैं सूर्य भगवान् के दर्शन करके ही भोजन करता; नहीं तो कुछ नहीं लेता। यह लगभग ६० वर्ष पहले की बात है। यह नियम लगभग १० वर्ष तक रहा। मैं सूर्य भगवान् के उसी स्तोत्र का पाठ किया करता था, जिसका पाठ युधिष्ठिर महाराज ने किया था, जिससे उनको भोजन कराने के उस अक्षय पात्र (टोकणी) की प्राप्ति हुई थी। यह कथा महाभारत के वनपर्व में आई है।

सत्संग के अमूल्य वचन-

एक सेवा होती है और एक परम सेवा होती है। लाखों की लौकिक सेवा से बढ़कर एक की परम सेवा है।

परोपकार में तन, मन, धन लगा देना, किसी पीड़ित को अन्न, वस्त्र और औषध आदि देना सेवा है। किसी को प्रभु के मार्ग में लगा देना, उसके भजन-साधन में सहायक होना, सत्संग में लगा देना, प्रभु की चर्चा के द्वारा किसी की उन्नति में हेतु बनना, कोई मर रहा हो, उसे गीता, रामायण और प्रभु का नाम सुना देना, सब जीवों के कल्याण के लिये भगवान् से प्रार्थना करना - यह सब परम सेवा है।

हम मनुष्य शरीर में आये हैं- भगवान् की प्राप्ति के लिये और लग गये- विषयों को बटोरने में। हिरण्यकशिपु और रावण को देखिये- सारे संसार का वैभव उन्हें प्राप्त था, परन्तु अन्त में उन्हें खाली हाथ जाना पड़ा ! फिर हम किस वैभव के लिये इच्छा करें ? मनुष्य को केवल भगवान् की इच्छा करनी चाहिये। केवल भगवान् के भजन- ध्यान में निरन्तर लगा रहे इसी में जीवन की सार्थकता है।

लोगों में गीताजी का अधिक-से-अधिक प्रचार करना चाहिए।