भगवान् की प्रसन्नता में ही जिसकी प्रसन्नता है, वह भगवान् को प्राणों से भी प्यारा है
जैसे अपनी दुकान में रोज १०००/-, २०००/-, ४०००/- रुपये बढ़ते देखकर किसी लोभी व्यक्ति के मन में प्रसन्नता होती है, वैसे ही मालिक की उन्नति से सच्चे नौकर के भी प्रसन्नता होती है। जो नौकर रोटी, कपड़ा के सिवाय कुछ नहीं लेता है। और मालिक की उन्नति देखकर प्रसन्न होता है, वह नौकर मालिक को प्राणों से भी प्यारा लगता है।
जिसे मान, बड़ाई, शरीर की परवाह आदि की चाहना नहीं भगवान् की प्रसन्नता में ही जिसकी प्रसन्नता है, वह भगवान् है. को प्राणों से भी प्यारा है। उसको भगवान् से बढ़कर कहा जाय तो अत्युक्ति नहीं है-
मोरें मन प्रभु अस बिस्वासा ।
राम तें अधिक राम कर दासा ॥
(श्रीरामचरितमानस ७/१२०/१६)
बादल यद्यपि समुद्र से ही जल लेता है, किन्तु उसके संसर्ग से समुद्र का जल मीठा हो जाता है, इसी प्रकार निर्गुण-निराकार का साधन बहुत कड़ा है, किन्तु महापुरुषों के मुखारविन्द से गुण, प्रभाव, तत्त्व, रहस्य की बातें सुनकर साधक मुग्ध हो जाते हैं।
संसार में गीता, रामायण, भागवत आदि पुस्तकें हैं, गीताप्रेस छापती है। जिस प्रकार रुपयों की टकसाल रुपये छापती है, उसी प्रकार यह मुक्ति की टकसाल है। जैसे कागजों से पुस्तकें बन जाती हैं, ऐसे ही हम लोग साधारण मनुष्य से जीवन्मुक्त बन सकते हैं; पशु, पक्षी, कीट, पतंग- ये जीवन्मुक्त नहीं बन सकते। रुपये चाँदी के बनते हैं, मिट्टी के नहीं (नोट- उन दिनों चाँदी के रुपये चला करते थे)। हम लोग मनुष्य हैं ही।
जीवन्मुक्त कैसे बन जावें ? गीता, रामायण, महापुरुषों के ग्रन्थ जो छपते हैं, उनको यदि धारण कर लेवें तो हम जीवन्मुक्त बन सकते हैं। यह ज्यादा ऊँचे दर्जे की चीज हो जावे। जैसे मेरे सामने काम तो बहुत रहते हैं, मैं सब काम नहीं कर पाता हूँ. छूटने वाले काम छूट जाते हैं, उसी प्रकार प्रेस जो पुस्तकें छापती है, बाहर की पुस्तकें छापनी तो बन्द है, जो मुक्ति देने वाली पुस्तकें हैं, उनकी माँग ज्यादा हो जाए: वे ही ज्यादा छपनी लग जाएँ। उनमें भी फिर छँटाई हो जावे; उसमें भी और छँटाई हो जावे।
जैसे रामायण है, वैसे सब ही उत्तम है, किन्तु सब पढ़ने की फुरसत नहीं है तो उसमें से छँटाई होवे; जैसे बालकाण्ड में नाम-माहात्म्य, अयोध्याकाण्ड में रामजी-भरतजी का चरित्र, अरण्यकाण्ड में सुतीक्ष्ण आदि का प्रसंग, किष्किन्धाकाण्ड में हनुमान्जी और रामजी की बातचीत, थोड़ा सुग्रीव का, थोड़ा बालि का प्रसंग, सुन्दरकाण्ड में सीताजी के साथ हनुमान् का मिलन, हनुमान् के साथ रामजी का मिलन, लंकाकाण्ड में थोड़ा भक्ति का प्रसंग, उत्तरकाण्ड में भरत का विलाप, राम-भरत का मिलन, रामजी का प्रजा को उपदेश, काकभुशुण्डि-गरुड़ के प्रश्नोत्तर आदि छाँट लें। इसी प्रकार 'कल्याण' की छँटाई हो ।
हम अपने घर में अभी छँटाई करके धारण कर लेवें तो कौन रोकता है ? वह भी कर सकते हो, लाभ है। इसी प्रकार गीताप्रेस में मनुष्यों की छँटाई हो जावे। गीताप्रेस में ऐसे ही आदमी भर्ती हो जावें कि 'घर के खर्चे से काम करेंगे, चाहे २-४ घंटा ही करें।' ऐसे हजारों आदमियों का आवेदन-पत्र हो, उनमें से ३००-४०० आदमी ही रहें। फिर यह होवे कि पैसे देकर काम करने का नियम खत्म कर दिया। कहें कि 'भोजन तो देंगे।' फिर भोजन का भी नियम खत्म कर दिया। फिर रामसुखदासजी महाराज जैसे आवें कि- 'भिक्षा माँगकर खा लेंगे; गीताप्रेस का काम करेंगे।' फिर यहाँ के प्रबन्धक कहें कि 'अब तो आपकी पारी आयेगी, तब रखेंगे।' फिर रोने लग गए तो रोने वालों की पारी आई। फिर दूसरे आदमी भी जगह पावें। एक रुपया छप गया, फिर दूसरा रुपया छपा। अभी तो हमारे १०० आदमियों में से एक भी नहीं बना। फिर वह तो काशी से भी बढ़कर मुक्ति का केन्द्र बन जावे, क्योंकि काशी में तो मरने से मुक्ति है, किन्तु क्या सबूत है कि मुक्ति हो गई ? खबर तो आई नहीं; विश्वास करते हैं; किन्तु भोजन किया, भूख मिट गई; पानी पिया, प्यास मिट गई; फिर और इच्छा नहीं है- इस प्रकार की स्थिति जीवन्मुक्त अवस्था है। चीज तो यह ऐसी है। उस समय आनन्द, प्रेम में सब मूच्छित हो जावें ।
भगवान् जब खुद गाते, बजाते थे तो गोपियाँ नाचती थी; प्रेम में बेहोश हो जाती थी; वे जीवन्मुक्ति को भी कुछ नहीं समझती थी। उनके मन में आई कि- 'हमारे समान कोई नहीं है।' यह अभिमान आने पर उसी समय भगवान् एकदम छिप गए। फिर विरह की व्याकुलता में मरने की तैयारी हो गई, तब भगवान् फिर प्रकट हो गए। तब गोपियों ने पूछा कि 'आप कहाँ चले गए थे ? क्यों चले गए थे ? तीन श्रेणी के मनुष्य होते हैं, उनमें से आप कैसे हैं ?'
भगवान् ने कहा- 'तुम्हारा प्रेम बढ़ाने के लिए छिप गया था।'
(नोट- यह प्रसंग श्रीमद्भागवत में रास पंचाध्यायी के अन्तर्गत आता है।)
ज्ञान में ऊँची स्थिति- जीवन्मुक्ति ।
भक्ति में- प्रेम बढ़ाना। साधन अवस्था में जो ज्ञान के मार्ग में चलता है, उसमें प्रसन्नता, शान्ति, आनन्द की बाहुल्यता इतनी बढ़ जाती है कि वह अपने को जीवन्मुक्त मान लेता है, वह अपना कुछ भी कर्तव्य नहीं मानता है। अपूर्ण को पूर्ण मान लेता है, वह अटक जाता है, आगे नहीं बढ़ पाता है। भगवान् कहते हैं- सुखसङ्गेन बध्नाति ज्ञानसङ्गेन चानघ (गीता १४/६) - 'सत्त्वगुण सुख के सम्बन्ध से और ज्ञान के सम्बन्ध से अर्थात् उसके अभिमान से बाँधता है।'
रजोगुण, तमोगुण तो नीचे दर्जे के हैं, सतोगुण ही बाँध लेता है। आनन्द, शान्ति में तन्मय होना ही अटक जाना है।
- 'किसके आधार पर कहते हो- पुस्तक के आधार पर या अपने अनुभव के आधार पर ?'
- ‘इसकी झलक पड़ने पर मालूम पड़ जाता है। लोग आकर बताते हैं कि हमारे को हमारी गलती मालूम दी ।'
- 'कैसे दी ?'
- 'कि वह अवस्था बाद में नहीं रही। शास्त्रों में कहा गया है कि वह मिटती नहीं है और वह मिट गई। '
परमात्मा की प्राप्ति के बाद अवस्था नहीं होती है. क्योंकि अवस्था, लक्षण, धर्म किसका ? ब्रह्म की प्राप्ति होने पर कौन किसकी परीक्षा करे, क्यों करे ? कर्तव्य नहीं है।
- किसको नहीं है ? क्यों नहीं है ?
नीची अवस्था होने पर राग-द्वेष भी होने लगते हैं, जैसे ज्वर के जोर में अन्न अच्छा नहीं लगता है-
तुलसी हरि की भक्ति में, ये पाँचों न सुहात ।
विषयभोग, निद्रा, हँसी, जगत प्रीति, बहु बात ।।
तुलसी पिछले पाप तें, हरि चर्चा न सुहाय ।
जैसे ज्वर के जोर में, भूख विदा हो जाय ॥
शुरू में स्वयं तो व्यर्थ बात करता है, किन्तु यदि कोई दूसरा करता है तो सुहाती नहीं है। कहता है कि- 'यह फालतू बात करता है।' स्वयं करता है ! दूसरों में पाँचों दोष देखते हैं। यह हमारी उदारता नहीं है कि दूसरों की उन्नति देखना चाहते हैं; यह तो परदोष-दर्शन है। फिर जितने विषयभोग हैं, वे हमको बुरे मालूम देने लगेंगे। अपने भजन- ध्यान आदि में कोई बात आई तो वह खराब मालूम देने लगेगी। उसमें भी हम निज में फालतू बात करने लगे, विघ्न डालने लगे, वह बुरा नहीं मालूम देता। इसके बाद अपना करना भी बुरा लगता है, पश्चात्ताप होता है, ग्लानि होती है।
वैराग्य- बाहर का तो संयम हो गया, किन्तु भीतर में स्फुरणा होती है; इन्द्रियों पर विजय पाई; मन, बुद्धि पर नहीं। फिर स्फुरणा भी होनी बन्द होती है, मन का संयम होता है- वशीकारसंज्ञा वैराग्यम् (पातञ्जल योग दर्शन, समाधिपाद सूत्र १५)। फालतू स्फुरणा बन्द । तीव्र वैराग्य, तीव्रतर वैराग्य, तीव्रतम वैराग्य ।
तीव्र वैराग्य- इसके बाद संसार के पदार्थ याद ही नहीं आते।
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तीव्रतर वैराग्य- तीव्र वैराग्य में जाग्रत में तो कन्ट्रोल है, स्वप्न में नहीं; जाग्रत में तो नहीं आते हैं, स्वप्न में आते हैं; परन्तु तीव्रतर वैराग्य होने पर स्वप्न में भी नहीं आते हैं।
- 'स्वप्न में क्या आता है ?'
- भगवान् का जप कर रहे हैं- आदि आते हैं। स्त्री बात करती है तो उधर ताकता ही नहीं।
तीव्रतम वैराग्य- जब वैराग्य तीव्रतम हो जाता है तो सुषुप्ति हो जाती है; तब संसार दिखता ही नहीं।
- तो वह (निद्राकाल में - (सुषुप्ति में) तो दूसरों के भी होता है ?
- वह होता है अज्ञान से; इसके ज्ञान से होता है।
- फर्क क्या है ?
- परमात्मा के स्वरूप में अटल स्थिति हो जाती है। सुषुप्ति से जागता है तो कहता है कि सुख से सोया - यह सुषुप्ति का सुख है।
समाधि अवस्था- समाधि में परमात्मा का ज्ञान रहता है, जिस तरह से सुषुप्ति वाले को सुख से सोने का ज्ञान रहता है। यह एक अवस्था है। परमात्मा की प्राप्ति होने पर वहाँ अवस्था नहीं है; वहाँ देह का कोई मालिक नहीं है। उसमें संसार में कोई आसक्ति, कामना का सम्बन्ध नहीं है।
- काम कैसे चलता है ?
गीता कहती है-
यस्य सर्वे समारम्भाः कामसङ्कल्पवर्जिताः ।
ज्ञानाग्निदग्धकर्माणं तमाहुः पण्डितं बुधाः ॥
(गीता ४/१९)
अर्थात्- जिसके सम्पूर्ण शास्त्रसम्मत कर्म बिना कामना और संकल्प के होते हैं तथा जिसके समस्त कर्म ज्ञानरूप अग्नि के द्वारा भस्म हो गए हैं, उस महापुरुष को ज्ञानीजन भी पण्डित कहते हैं।
ऐसी उन्नति हो सकती है। रुपयों की टकसाल बहुत कम हैं। मुक्ति की टकसाल तो (गीताप्रेस को छोड़कर) और है ही नहीं।
- कैसे होवे ?
- हम कार्यकर्ता लोग वैसे बनें। वह ताकत आ जावे, जो तीर्थों में नहीं है; लोग दर्शन करने के लिए आवें; तीर्थों से बढ़कर हो। हमारे देखने में तीर्थों में जाने वाले लोगों में परिवर्तन नहीं है, परन्तु शास्त्रों के अनुसार मानना चाहिए; किन्तु यहाँ आने वाले मुक्त हो जायँ, दर्शन करने वाला मुक्त हो जाय !
- कैसे ?
- स्वर्गाश्रम गए। जाने के समय, सत्संग सुनने के समय और नहीं सुनने के समय कुछ फर्क मालूम होता है ? सत्संग करने में लाभ मालूम होता है ?
- सत्संग के समय क्रोध हो जाय, स्त्रियों को देखने पर काम-विकार हो, तो दूसरे समय या इस समय एक-सा होता है क्या ?
- थोड़ा होता है। फर्क पड़ता है।
- जहाँ थोड़ा होता है, वहाँ ज्यादा भी हो सकता है। '
- क्यों होता है ?
- उनकी श्रद्धा के अनुसार। ऐसी बात तो शास्त्रों में भी आती है-
जिन्ह के रही भावना जैसी ।
प्रभु मूरति तिन्ह देखी तैसी ॥
(रा.च.मा. बालकाण्ड २४१/४)
संसार में एक स्त्री भी भिन्न-भिन्न दिखती है। इसी प्रकार लोग भावना लेकर आते हैं कि गीताप्रेस का दर्शन करें, वहाँ के काम करने वालों का दर्शन करते हैं। वे लोग आकर देखते हैं, उनकी श्रद्धा वहीं घट जाती है कि व्यवहार ठीक नहीं है। लोग कहते हैं कि- 'आपका प्रबन्ध ठीक नहीं है, व्यवहार ठीक नहीं है।' हम कहते हैं कि- 'अच्छे लोग मिले नहीं।' आप अच्छे हो जाओ। आप कृपा करो। सुधार करना हो तो आप अपने जिम्मे लो। हम तो जानते हैं कि बहुत कमी है। यदि कमी नहीं होती। तो आने वाले सब जीवन्मुक्त बन जाते। उन (आने वालों) को कमी थोड़ी मालूम देती है, लेकिन हमको तो बहुत ज्यादा लगती है। भरतजी क्या कहते हैं-
कपटी कुटिल मोहि प्रभु चीन्हा ।
ताते नाथ संग नहिं लीन्हा ॥
(रा.च.मा. उत्तर. १/४)
तो हम तो सोचते हैं कि इसको भगवत्प्राप्ति नहीं हुई, तो हमारे में कमी है। हमसे मिलने के लिए आता है तो उसका भाव पहले से तेज होना चाहिए। भाव पहले से भी गिर जाए मिलना हानिकर हो जावे; न मिलना ही अच्छा था। गोविन्द् तो भवन, गीताप्रेस, स्वर्गाश्रम जाने से उसका भाव बढ़े, तब तो अच्छा है। ऐसा व्यवहार हो कि वह शिक्षा लेकर जाए। स्वर्गाश्रम में जाते हैं तो शिक्षा लेकर आते हैं। गीताप्रेस तो केन्द्र है, यहाँ से तो स्वर्गाश्रम की अपेक्षा अधिक शिक्षा लेकर जाए; नहीं तो हमारे सब के लिए कलंक है। तो हम तो ऐसा व्यवहार चाहते हैं।
हमारे मन में ३ बातें थी। तीन श्रेणी के लोग हमारे सत्संग में से निकलें। हमको बतलाना नहीं पड़े, दूसरे ही अन्दाजा कर लें। हमने कहा- तीन श्रेणी छोड़ो, एक तो रखो। गीताप्रेस केन्द्र है। प्रधान जगह तो आशातीत होनी चाहिए। हम लोगों को लेकर ही है। गीताप्रेस का फाटक (गेट) अच्छा बना दिया तो उससे मुक्ति नहीं है, उसके भीतर रहने वाले भाई उच्च कोटि के बनने चाहिएँ। खास-खास बनेंगे, तभी तो सब अच्छे बनेंगे। यही तो क्रम से होना चाहिए। हम लोगों को केवल अपनी आत्मा के कल्याण का ही लक्ष्य रखना चाहिए। पुस्तकों में पढ़ते हैं कि जिसके संग से पशु, पक्षी, मनुष्य आदि सबका कल्याण हो जाय - ऐसे भी तो थे ! हम भी बन सकते हैं, क्योंकि पुस्तकों में है। आज तुलसीदासजी नहीं हैं, किन्तु उनके ग्रन्थों में ऐसी शक्ति है कि दूसरों का कल्याण कर दे। हमको तो ऐसा बनना चाहिए कि हम मर भी जावें तो हमारे पीछे से जो सामग्री बचे, वह कल्याण करने वाली हो। हमको तो तुलसीदासजी से भी ज्यादा बनना चाहिए। सबकी मुक्ति, सबका कल्याण होना चाहिए। ऐसे कीर्तिमान, नारद आदि भक्त हो गए हैं। भगवान् कहते हैं कि ऐसा भक्त अति प्यारा है-
ये तु धर्म्यामृतमिदं यथोक्तं पर्युपासते ।
श्रद्दधाना मत्परमा भक्तास्तेऽतीव मे प्रियाः ॥
(गीता १२/२०)
अर्थात् - परन्तु जो श्रद्धायुक्त पुरुष मेरे परायण होकर इस ऊपर कहे हुए धर्ममय अमृत को निष्काम प्रेमभाव से सेवन करते हैं, वे भक्त मुझ को अतिशय प्रिय हैं।
हम लोगों को तो अति प्यारा भक्त बनने के मार्ग पर चलना है।
महात्मा बनने की बात - कागज अपनी ओर से किंचिन्मात्र भी संकोच नहीं करता है कि मुझ को पुस्तक मत बनाओ, इसी प्रकार आप भी अपनी बात छोड़ दो। चाहे मारो, पीटो, छायो, काटो, मोड़ो, तब कागज रुपये का नोट बन जाता है; इसी प्रकार भगवान् की शरण हो जाना चाहिए। एक दिन तो इस शरीर को छोड़ना ही पड़ेगा; पहले ही इसे सौंप दें तो अच्छा है। पंचभूतों की चीज उनको सँभलानी ही पड़ेगी और दण्ड भी होगा कि इस पर कब्जा क्यों जमाया ? खुशी से छोड़ दोगे तो पंचभूत राजी होंगे, कोर्ट में नालिश (दावा) नहीं करेंगे। घर वालों को कह दें कि- 'हम तो मर गए।' मरे हुए भी गीताप्रेस का काम करेंगे।
सत्संग के अमूल्य वचन-
जिसके हृदय में भगवान् की भक्ति बस जाती है, उसके नजदीक काम, क्रोध आदि माया की सेना नहीं आती।
आप जल्दी-से-जल्दी परमात्मा से मिलना चाहते हैं तो दुखियों के दुःख को दूर करो।
दो बात बतला देवें, जिनको काम में लेने से परमात्मा की प्राप्ति हो जाए- (१) परमात्मा को हर समय याद रखना। (२) सब के हित में रत रहना ।
यह अभ्यास डाल लो कि हर समय प्रसन्न रहें। अभ्यास डालने से सदा के लिये प्रसन्नता हो जायेगी।