भगवान् का काम प्रसन्नता से करे तो उत्साह रहता है
यहाँ जो झूठ, कपट है, वह भगवान् की चोरी है। भगवान् का काम प्रसन्नता से करे तो उत्साह रहता है। जब एक महात्मा के काम में ही उत्साह होता है, तो भगवान् का काम तो उत्साह से होगा ही। सात्त्विक कर्ता के लक्षण-
मुक्तसङ्गोऽनहंवादी धृत्युत्साहसमन्वितः ।
सिद्ध्यसिद्ध्योर्निर्विकारः कर्ता सात्त्विक उच्यते ॥
(गीता १८/२६)
अर्थात्- (जो) कर्ता संगरहित, अहंकार के वचन न बोलनेवाला, धैर्य और उत्साह से युक्त तथा कार्य के सिद्ध होने और न होने में हर्ष - शोकादि विकारों से रहित है- वह सात्त्विक कहा जाता है।
आलस्य, अकर्मण्यता दूर से ही भाग जावे। पद के अभिमान दूर रहना चाहिए। वह चाहे व्यवहार में अपना पद माने, किन्तु से अपने मन में पद का अभिमान नहीं आना चाहिए। अभिमान को पास में ही नहीं आने देना चाहिए।
नारायण सरावगी की अच्छी बातें लेनी चाहिएँ- (१) उसका परिश्रम सराहनीय है। (२) कोई प्रेस से धक्का देवे तो भी नहीं जावे। गीताप्रेस को छोडने की बात उसके मन में भी आ जावे तो उसको वह पाप समझता है। (३) उसमें श्रद्धा की बात भी विशेष है।
भाव से करने वाली चीज रुपयों से नहीं होती है। हमारे घर के पैसे अमृत नहीं हैं। शुकदेवजी, गंगाबाबू प्रेस में भोजन करते हैं, वह अमृत है। (नोट- ये दोनों गीताप्रेस से केवल भोजन और वस्त्र ही लेते थे, वेतन नहीं लेते थे)। हम तो हँसी में यही कहते हैं कि यह हमारे भाग्य में नहीं है, क्योंकि हम प्रेस से किसी भी प्रकार से कुछ लें, तो वह हमारे लिए कलंक है।
आपका श्रद्धा, प्रेम मैं कम क्यों मानूँ ? और ज्यादा बढ़ाने की आवश्यकता है। 'हजारों से ज्यादा है' यह कहने से अभिमान की गुंजाइश है। व्यापार करते समय में तुलाधार का ध्यान रखें; भगवान् उनके घर पर ब्राह्मण का रूप धरकर हर वक्त रहते थे और वह त्रिकालज्ञ भी थे। त्रिकालज्ञ होना तो लौकिक लाभ है। पारलौकिक लाभ- भगवान् उनके घर पर रहते थे और उन्होंने अपने व्यवहार के द्वारा परमात्मा की प्राप्ति कर ली थी; किन्तु कोई चाहे तो तुलाधार से भी ज्यादा बन सकता है। व्यवहार को ऊँचा उठाना चाहिए।
साधन में सन्तोष नहीं करना, साधन को बढ़ाना और तीनों काल के समय को साधन बनाना चाहिए। कोई भी काम करने के समय- 'भगवान् श्रीराम होते तो यह काम किस तरह करते' यह याद कर लेवें। इससे भगवान् की स्मृति हुई और उनका चरित्र याद आता है- ऐसा करने से ये दो लाभ हुए। मैं तो व्याख्यान देता हूँ, तब कई बार मंगलनाथजी महाराज को याद कर लेता हूँ।
तत्पर होकर स्वभाव का सुधार करने से स्वभाव का सुधार हो सकता है। क्या ऐसा करना कठिन है ? स्वभाव के दोष के कारण चेष्टा की कमी हो रही है। शयनकाल के समय को भी साधन बनाने के लिए आप लोगों को कई बार कहा जाता है।
मेरी ७३ वर्ष की उम्र हो गई है। आप भी गीता पाठ करते हो और मैं भी करता हूँ तो मेरे उसकी स्मृति ज्यादा क्यों है ? अच्छा, मेरी बात छोड़ो; घनश्याम की बेटी नारायणी तो महात्मा नहीं है, वह भी आप लोगों से ज्यादा गीता की बातें बता सकती है। यदि उसमें श्रद्धा ज्यादा है तो आप भी श्रद्धा करो।
छः बातों के साथ साधन करो- श्रद्धा-प्रेम से, निष्कामभाव से, अर्थ और भाव समझकर, गुप्त रखकर, आदरबुद्धि से और निरन्तर करना।
व्यवहार में श्रीरामचन्द्रजी को याद करने से व्यवहार में सुधार हो जाता है।
अर्थ और भाव का लक्ष्य रखकर गीताजी का पाठ करो।
सत्संग के अमूल्य वचन-
साधक को अपने भजन को छोड़कर और काम करने की फुरसत ही नहीं रहे। केवल भगवान् के भजन में लगा रहे।
भगवान् के बल पर ही भगवान् को पाने की इच्छा करनी चाहिये। उन्हीं के बल पर हम उन्हें प्राप्त कर सकते हैं।
मनुष्य का शरीर आत्मा के कल्याण के लिये मिला है. भोग भोगने के लिये नहीं मिला है। यदि कोई मनुष्य का शरीर पाकर भी भोग भोगने में ही लगा रहा, तो वह घाटे में है।
ईश्वरके सिवाय तुम जो कुछ जानते हो, उसे भूल जाओ। इधर-उधरकी और बातें जाननेके लिये समय व्यर्थ मत करो। केवल ईश्वरमें लीन रहो. उसीके रंग में रँग जाओ।