भगवान् और महात्माओं की स्मृति से लाभ
व्यवहार तो अपने स्वरूप के अनुसार ही होता है, भाव सामने वाले को देखकर होता है।
सबसे ऊँची दृष्टि- सबको भगवान् समझकर व्यवहार करना।
नम्बर २ - सबमें भगवान् समझकर व्यवहार करना।
नम्बर ३ - सब भगवान् की सन्तान हैं, उनकी सेवा से भगवान् राजी होते हैं- ऐसा समझकर व्यवहार करना ।
चूरू में गरीब बस्ती में घास-फूस के झोंपड़ों के जल जाने पर वापस झोंपड़े बनाने की बात- बार-बार झोंपड़े जल गए और बार-बार बनवाए गए। (श्रद्धेय श्रीसेठजी के पैतृक गाँव चूरू में एक बार गरीब बस्ती वालों के घास-फूस के झोंपड़े जल गए थे, तब श्रद्धेय श्रीसेठजी के द्वारा उनको बनवाया गया था। झोंपड़े पुनः जल गए और पुनः बनवाए गए। झोंपड़े पुनः जल गए और पुनः बनवाए गए।) अग्निदेव का काम आग लगाने का और हमारा काम झोंपड़े बनवाने का। उनके झोंपड़े क्यों जले, यह हमें सोचने की आवश्यकता नहीं है। भगवान् की आज्ञा समझकर काम करने वाले के लिये कोई भी काम ऊँचा-नीचा नहीं होता है; जैसे सत्संग करवाना ऊँचा काम दिखता है और कमरा साफ करना नीचा काम दिखता है, परन्तु भगवत्प्राप्ति के लिये काम करने वाले के लिये सभी काम समान होते हैं। सभी काम एक ही उद्देश्य की प्राप्ति के लिये हैं।
एन्फ्लुएन्जा (एक प्रकार का बुखार) की बीमारी चूरू में मेरे (अर्थात् श्रीसेठजी के) तथा हरिकिशन (श्रीसेठजी के छोटे भाई) के थी। दोनों आपस में मिलना चाहते थे; हवेली में ऊपर-नीचे रहते थे, परन्तु शरीर में कमजोरी होने कारण मिलने की हिम्मत नहीं थी। हरिकिशन दवाईखाने (चूरू में स्थित निःशुल्क औषधालय) का काम देखा करता था, उसमें डॉक्टरी (अंग्रेजी) दवाइयाँ भी दी जाती थी, तो हरिकिशन के बीमार अवस्था में भी उन दवाइयों का चिन्तन होता था। जो आदमी डॉक्टरी दवा नहीं लेता था, उसकी यह हालत थी ! जो लेते हैं, उनकी तो बात ही क्या है ! इसलिये अंग्रेजी दवाई का सेवन तो करना ही नहीं चाहिए और अस्पताल आदि का संसर्ग भी नहीं रखना चाहिए। फिर भी अंग्रेजी दवाई शरीर पर लगाने का काम तो पड़ता ही है, उसके लिए शास्त्रों में छूट दी गई है, परन्तु उसके कारण से पाप आ जाता है (अंग्रेजी दवाइयों में अशुद्ध वस्तुओं का प्रयोग होने से पाप आ जाता है)। यदि शास्त्रों में दी गई छूट का आसरा नहीं लेवें तो हमारे में पाप आने की गुंजाइश नहीं है (अशुद्ध दवाइयों में जीव हिंसा होने के कारण उनका पाप दवाई काम में लेने वाले को भी लगता है)।
हमको तो महात्माओं की स्मृति से लाभ हुआ है, फिर भगवान् के गुण, आचरण आदि की स्मृति से लाभ हो तो इसमें कहना ही क्या है ! इसलिए ईश्वर और महात्मा ही श्रेष्ठ हैं- यह हमारा सिद्धान्त है। ईश्वर और महात्मा का उपदेश तो लेना ही चाहिए और उनके आचरण का भी अनुकरण करना चाहिए; किन्तु आपके अच्छे और बुरे का विभाग है, तब अच्छे आचरणों का अनुकरण करना चाहिए। जहाँ उनके आचरण शास्त्र के विरुद्ध दिखाई दें तो यह मानकर छोड़ दें कि उनका यह आचरण हम समझे नहीं। अपने तो उनके आचरणों का थोड़ा भी अनुकरण कर लें तो बेड़ा पार हो जावे। भगवान् ने गीता के बारहवें अध्याय में श्लोक १३ से १९ तक पाँच बार विभिन्न लक्षणों से युक्त अपने भक्तों को प्रिय बतलाया है। उनमें से एक भी भक्त के लक्षण को काम में ले आवें तो हमारा काम हो जावे। शास्त्र और महापुरुषों के वचनों में विरोध-सा दिखे तो विरोधाभास छोड़ दे। तैत्तिरीय उपनिषद् में गुरु ने शिष्य के प्रति कहा भी है- 'मेरे में अच्छी बातों का अनुकरण करना।' यह उपदेश शिष्य की दृष्टि से है। उसको शायद दोष दिखलाई पड़ा हो, क्योंकि वह पास में रहा है। जहाँ अच्छी और बुरी दो दृष्टि है, वहीं ऐसा उपदेश है। ईश्वर के जितने भी अवतार हुए, उनमें आचरणों की दृष्टि से भगवान् श्रीराम का सबसे उत्तम हुआ। उन्होंने मर्यादा पुरुषोत्तम का व्यवहार किया। उनके सभी आचरण अनुकरणीय हैं।
मेरे द्वारा जो कुछ भी कहा जाता है- वह आपको विनय, प्रार्थना के रूप में कहा जाता है। शास्त्र की बात है तो शिक्षा का रूप भी दे सकते हैं। मैं दावे के साथ कह सकता हूँ कि उनका यदि मैं सेवन करूँ तो मेरा, और आप सेवन करें तो आपका कल्याण हो सकता है, क्योंकि ये बातें मेरी नहीं हैं, अपितु शास्त्र की हैं, किन्तु मेरे आचरणों के अनुकरण के लिए मैं नहीं कह सकता। शास्त्र की बात तो साधारण आदमी भी कह सकता है। अनुकरण की बात तो जोखिम की बात है, शोभा नहीं देती है, उचित भी नहीं है। 'मेरा सब प्रकार से अनुकरण करो' - यह कहना तो अपने को महात्मा बतलाना है। व्यक्तिगत बात कैसे कही जावे ? 'मेरे शरीर की सेवा करे तो उसका कल्याण हो जावे' - यह नहीं कही जा सकती है। उस सेवा करने वाले का मैं ऋणी तो हूँ और आभारी भी हूँ। पूर्व में बहुत-से सिद्ध महात्मा हुए हैं, उनके उपदेश कल्याण करने वाले हैं। मंगलनाथजी महाराज की स्मृति से मन में वैराग्य, उपरति होती है। उनके व्यवहार की अच्छी बातें सामने आ जाती हैं।
इसी प्रकार भगवान् श्रीराम का चरित्र है। उन्होंने सबके साथ में स्वार्थ-त्याग का व्यवहार किया। सीता को उन्होंने उनके आग्रह करने पर ही वन में साथ लिया। लक्ष्मण को घर पर रखने की चेष्टा की। अपने आराम के लिए उनको साथ में ले जाने का उनका मन नहीं था, किन्तु उनके विशेष आग्रह के कारण ही उनको साथ में लेना पड़ा। वे समुद्र-तट पर अपने मित्र सुग्रीव से पूछ रहे हैं- 'विभीषण आया है, क्या करना चाहिए ?' उनकी सम्मति का आदर किया, किन्तु बर्ताव अपने स्वभाव के अनुसार ही किया। भाईजी (श्रीहनुमानप्रसादजी पोद्दार) का विनययुक्त व्यवहार लेना; हरिकृष्ण का धर्मपालन में स्थिरता, सरलता आदि तो लेना, किन्तु वाणी की कठोरता नहीं लेनी। आत्मारामजी की सरलता लेनी, बद्रीदासजी लोहिया का विनयभाव लेना। शिवकृष्णजी डागा का बीमार व्यक्ति की टट्टी-पेशाब उठाने का सेवाभाव लेना। लच्छीरामजी मुरोदिया अपना काम छोड़कर दूसरे के काम में लग जाते हैं, यह सेवाभाव लेना। इसी प्रकार अच्छे आचरण ले लेने चाहिएँ। एक स्थान पर नहीं मिलते हों तो सब स्थान से चुनकर ले लेवें। (नोट- उपर दिये गये नाम श्रद्धेय श्रीसेठजी के सत्संगियों के हैं।)