Seeker of Truth
॥ श्रीहरिः ॥

आप लोग हमारे अनुभव से लाभ उठाओ

प्रवचन सं. ४२
दि. २७-१२-१९५६, गुरुवार, ५.३० बजे

आप लोग हमारे अनुभव से लाभ उठाओ; ७२ वर्ष का अनुभव है। रतनगढ़ के ऋषिकुल में रुपये नकद इकट्ठे होते। वे रुपये मेम्बर लोगों ने अपने पास लेने का विचार किया। हम लोगों ने देखा कि- 'यह ठीक नहीं है' तो हम लोगों ने इस्तीफा दे दिया- मैं, भाईजी आदि। पीछे माधवप्रसादजी ने चलाया। फिर कई वर्ष आज से २-३ वर्ष पहले, हम लोगों से कहा कि- 'आप बाद, चलाओ'। इससे हम लोगों को यह शिक्षा मिली कि चूरू ऋषिकुल में रुपये इकट्ठे मत करो; ४-५ हजार का घाटा रखो। अब घाटा कौन देवे ? तब कोई नजदीक नहीं आवे। इसलिए जिस संस्था में रुपये इकट्ठे हो जायेंगे, उसमें दलबन्दी हो जायेगी। हर साल रुपये कम रहें तो ऐसी संस्था में स्वार्थी आदमी कोई नहीं आवे ।

अब जिस तरह गीताप्रेस है, इसमें रुपये हैं तो इसमें शुरु से ही चुन-चुनकर आदमी भर्ती किए हैं, इसलिए कोई आपत्ति नहीं आती है; कोई हमारे से विरुद्ध नहीं जाता है। यदि काम अच्छा है तो रुपये की कभी कमी नहीं रहेगी। यदि काम खराब है, तब रुपये इकट्ठे करने की आवश्यकता नहीं है। जिस संस्था में स्वार्थी आदमी प्रवेश कर जाते हैं, तो वे नुकसान पहुँचा देते हैं। मुख्य आदमी स्वार्थी नहीं होना चाहिए। जिस खेत में रखवाला नहीं होगा तो उस खेत को गधे आदि खा जायेंगे। हरेक काम में शासन की बहुत ज्यादा आवश्यकता है। काशी में मारवाड़ी कॉलेज में मदनमोहनजी थे, तब तक ठीक रहा; किन्तु बाद में राममोहनजी ने सम्भाल की नहीं, तब प्रिन्सिपल वगैरह दूसरे धर्म के घुस गए। अब राममोहनजी को निकाल दिया है। उन्होंने प्रेस कॉन्फ्रेन्स की, उसमें भी वे सफल नहीं हुए; कारण- अकर्मण्यता। कल्याण मासिक पत्रिका में जो दोष हैं, वे निकालने चाहिएँ। केशवदेव का खर्चा घटाने आदि का काम तो सराहने लायक है। संस्था में रहकर जो स्वार्थ सिद्ध करने लगता है तो उसकी इज्जत नहीं रहती है। कहीं भी किसी ने स्वार्थ सिद्ध किया है, तो उसकी इज्जत नहीं रही। किसी भी आदमी के दोष बताते हैं तो उसको भारी लगता है।

हनुमान गोयन्दका (श्रद्धेय श्रीसेठजी के बचपन के मित्र) मेरे पीछे पड़ा रहता था। कहता कि- 'यदि ५०००/- रुपये हो जावें तो पीछे बैठकर भजन करूँ। ब्याज से काम चल जावेगा। तू कह देवे तो हमारे पैदा (कमाई) हो जावे।' मैंने कही- 'यह काम ठीक नहीं है।' पीछे बोला- 'कलकत्ता में सौदे (सट्टा) होते हैं। तू बतला दे कि मैं अमुक वस्तु खरीद लेऊँ कि बेच देऊँ ?' मैंने उसको बतला दिया; २-३ हजार रुपये आए। बाद में उसकी वृत्ति लोभ पर चली गई। बाद में उसने और पूछा तो मैंने बताया नहीं। फिर बोला कि 'मेरी बीमारी तू ले ले। तू तो तू सहन कर लेगा, मेरे से सहन नहीं होता।' एक-दो बार तो मैंने इस तरह से किया। उसके सकाम भाव बहुत था। पिताजी आर्य समाजी थे। 'हरे राम' की माला फेरने लगा और बद्रीनारायणजी, केदारनाथजी आदि की तीर्थ-यात्रा में भी गया था।