Seeker of Truth
॥ श्रीहरिः ॥

श्रद्धा और विश्वास

आषाढ़ कृष्ण पक्ष ३, सम्वत् १९९३, दिनांक ०८-०६-१९३६, सोमवार, प्रात:स्वर्गाश्रम

कल्याण श्रद्धा से होता है। बरेली से रामकिशनजी बड़े उत्साह में आए और उनका शरीर शान्त हो गया। यह तो साधारण श्रद्धा की बात है। कन्हैयालालजी का शरीर यहाँ मरता है, यह तो साधारण श्रद्धा की बात है। ज्यादा श्रद्धा हो, तो और विशेष बात होवे। जैसे करने वाले का कल्याण तो हो जावे, पर ज्यादा श्रद्धा हो, तो उसके पास रहने वालों का भी कल्याण हो सकता है।

यह विशेष बात है कि परमात्मा की प्राप्‍ति हुई। यह बात कन्हैयालालजी से पूछी गयी, तब उन्होंने कहा कि– ‘मेरे को भगवान् दिख रहे हैं’, पर हम लोगों को तो नहीं दिखे; हम लोगों को दिखने की गुंजाइश तो थी। इससे यह बात नहीं कही जा सकती कि इससे बढ़कर बात नहीं है।

अपने को इतनी श्रद्धा बढ़ानी चाहिए कि मरते समय भगवान् के साकार दर्शन हो जायँ। इससे भी और विशेष श्रद्धा हो, तो विशेष बात हो, भगवान् एकदम सबके सामने प्रकट होकर सबको दर्शन दे दें, चाहे दो मिनट ही दें। अपने पास इससे परे की बातों को नापने के लिए गज नहीं है। इससे उत्तम भी तीसरी बात है; फिर लाखों आदमी परमात्मा की तरफ लग जाएँ।

अभी तो आप लोग यही बात कहते हो कि रामकिशनजी और कन्हैयालालजी सरीखी हमारी मृत्यु हो; तथा प्रभु दर्शन दें तो सबको दें। इससे भी बढ़कर यह भाव है कि– ‘मैं तो पास में रहने वाले सबको दर्शन कराकर ही जाऊँगा’ – यह उससे ऊँची बात है। राजा हरिश्चन्द्र ने भगवान् से प्रार्थना की और कहा कि– ‘मेरी सारी नगरी का उद्धार कर दो’ तो भगवान् ने उसकी सारी नगरी का उद्धार कर दिया तथा सारी नगरी वैकुण्ठ में चली गयी।

यह सुनी हुई बात है कि प्रह्लाद ने भगवान् से सारी दुनिया का उद्धार होने के लिए वरदान माँगा। संसार में कोई असम्‍भव बात माननी ही नहीं। सभी भगवान् के अंश हैं। जो बहुत भारी श्रद्धा, प्रेम, भक्ति करे, वह कारक पुरुष के माफिक काम कर सकता है। मनुष्य यदि अपनी उन्नति करना चाहे, तो वह लाखों-करोड़ों मनुष्यों का उद्धार कर सकता है। भगवान् ने भक्त प्रह्लाद को यह वरदान दिया था कि सारी दुनिया का उद्धार तो नहीं हो सकता है, पर जो तुम्हारे भाषण को सुनेगा (तुमसे बातचीत करेगा) और तुम्हारा संग करेगा, उसका उद्धार हो जायेगा; परन्तु इसमें घूमना बहुत पड़ता है।

संसार में एक ऐसे पुरुष होते हैं, जिनमें श्रद्धा-विश्वास होते ही कल्याण हो जाए। ऐसे आदमी बहुत होते हुए आए हैं, पर हमें मालूम नहीं, जिनका श्रद्धा से दर्शन करते ही उद्धार हो जाय। ऐसे पुरुषों के होने से संसार का कुछ काम चल जाय, जैसे चैतन्य महाप्रभु ने जगाई-मधाई का उद्धार किया। वे महा-दुराचारी और पापी थे। चैतन्य महाप्रभु जब कीर्तन करते थे, तब नास्तिक भी, जिनकी भगवान् में श्रद्धा और भक्ति नहीं थी, वे भी नाचने लग जाते थे; जो मनुष्य उस रास्ते से निकलता, वह भी पागल के माफिक बन जाता था। अपने को भी ऐसा बनने की कोशिश करनी चाहिए। ‘मनुष्य उन्नति करते-करते बन तो सकता है’ – यह विश्वास करना चाहिए।

यह बात माननी चाहिए कि आज तक जितने महान् पुरुष हुए हैं, मैं उनसे भी ऊँचे दर्जे का बन सकता हूँ।

वेदान्त तो कहता है कि– ‘मनुष्य ब्रह्म बन सकता है’, परन्तु भगवान् तो भगवान् ही हैं। हम लोग खूब ऊँचे बन सकते हैं। दोनों मार्ग खुले हैं– चाहे भगवान् बनें, चाहे ऊँचे भक्त बनें। फर्क इतना है कि ज्ञान में विज्ञानानन्दघन, ज्ञानमय, आनन्द-स्वरूप बन जाता है और भक्ति के मार्ग में साक्षात् पूर्ण ब्रह्म, जो ज्ञान के पुँज हैं, उनके आनन्द का भोक्ता हो जाता है। ज्ञानमार्ग में तो भगवान् का स्वरूप बन जाय यानी भगवान् का स्वरूप बनना हो तो ज्ञान मार्ग खुला है; और प्रभु के पास रहकर, उनको देख-देखकर मुग्ध होना हो, तो भक्ति का मार्ग खुला है– आनन्द-स्वरूप और आनन्द का भोक्ता। वह आनन्द ऐसा है कि उससे सारे ब्रह्माण्‍डों का पालन होता है और वह कम होता नहीं।

एक आदमी सारी दुनिया को सदावर्त बाँट रहा है, तो क्‍या वह भूखा रह सकता है ? यह बात समझ में नहीं आती। यदि कोई सारे ब्रह्माण्ड को आनन्द देता है तो ऐसा नहीं हो सकता कि वह आनन्दमय नहीं है।

वहाँ का अनुभव इससे विलक्षण है। यहाँ पर ज्ञाता और ज्ञेय– दो बात हैं, वहाँ ज्ञाता-ज्ञेय एक ही है। वहाँ वाणी और मन की गम (पहुँच) नहीं है। मन से मनन करके ही वाणी बतला सकती है। यदि बतलावेगी, तो यही कहेगी कि– ‘यह विलक्षण है; यह तो जानने से ही मालूम हो सकता है।’ दृश्य तो सदा जड़ होता ही है, वह चिन्‍मय-स्वरूप है, अनुभवरूप है। ब्रह्म सत्य है, ज्ञान है, अनन्त है, जिसका काल (समय) व देश (विस्तार, लम्बाई-चौड़ाई) करके अन्त नहीं है। आकाश की तो सीमा है, परमात्मा की सीमा नहीं है। उसका कभी अन्त नहीं आता है।

भक्ति के मार्ग से जाकर तो अलग अनुभव करता है, पर ज्ञान के मार्ग से तो खुद अनुभव-स्वरूप हो जाता है। वह परमात्मा सुखमय है, सत्य है, नित्य है। वहाँ देश और काल का भी अत्यन्त अभाव है; जो परमात्मा को प्राप्त होता है, वही जानता है। ये सारी बातें यहाँ समझाने के लिए हैं; वह पुरुष वहाँ की अलौकिकता कैसे बतलायेगा? आखिर में वह कहेगा कि इससे भी वह विलक्षण है।

परमात्मा को प्राप्त होने पर मुर्दे की तरह उसका हृदय विचलित नहीं होता है, जैसे मुर्दे में मान-अपमान आदि किसी भी तरह का विकार नहीं है। वह लोगों की दृष्टि में तो जीवित है, परन्तु वह जीवन्मुक्त है। मान-अपमान, शीत-उष्ण, हर्ष-शोक की समता हर-एक में देखने में नहीं आती है। आश्चर्यवत् ही उसका देखना और समझना है; वाणी से बताया नहीं जाता है। जहाँ तक बताया जाता है, वह कम ही है; वह तो इससे विलक्षण है।

जिनके दर्शन, स्पर्श से ही कल्याण हो जावे, उन पुरुषों के आचरण तो महात्मा पुरुषों जैसे ही होते हैं। ऐसा होने में गुंजाइश तो है (ऐसा बना तो जा सकता है)। जिनके द्वारा एक का उद्धार होगा, तो उस हिसाब से उनके द्वारा लाखों का कल्याण भी हो सकता है। जिनके श्रद्धा और विश्वास है, उनका उद्धार होने में कोई बड़ी बात नहीं है; जिनके श्रद्धा और विश्वास नहीं है, उनका भी उद्धार हो सकता है। पापी-से-पापी मनुष्य का भी भगवान् की दया से उद्धार हो जाता है। यह तो भगवान् की विशेष दया है कि भगवान् के हाथ से जिनकी मृत्यु होगी, उसको भगवान् का स्मरण होगा ही। यदि स्मरण न भी हो, तो भी कल्याण होगा– यह भगवान् की विशेष आज्ञा है।

उत्तंक की भगवान् पर श्रद्धा नहीं थी, तो भी भगवान् ने उसे अपना प्रभाव दिखाया और कहा कि– ‘तेरी गुरु-सेवा देखकर मुझे दया आती है। तू मेरे प्रभाव को नहीं जानता है। यदि जानता, तो मुझे शाप देने को तैयार नहीं होता।’ भगवान् ने दया करके उसे अपना विश्वरूप दिखाया। भगवान् में उसकी श्रद्धा न होते हुए भी उसका कल्याण किया।

भगवान् दर्शन देने पर उसका कल्याण किए बिना छोड़ते ही नहीं। महात्मा के संग को लोग छोड़ दें, तो महात्मा इसमें समर्थ नहीं है, पर भगवान् तो सर्व-सामर्थ्यवान् हैं। भगवान् ने उत्तंक को गुरु-सेवा का फल दिया। उत्तंक, उपमन्यु, साकल्य, सत्यकाम आदि ने गुरु की खूब सेवा की थी।

उपाय तो एक ही है कि मन में यह ही प्रबल इच्छा करे कि– ‘मैं चाहे नरक में रहूँ, पर सारी दुनिया का कल्याण हो जाय।’ जब तक सबका कल्याण नहीं हो जाता है, तब तक ऐसी कृपा किसी पर नहीं हुई। आपका कल्याण सबके पीछे चाहे। भगवान् पूछें कि– ‘वरदान माँग !’ तो यही वरदान माँगे कि– ‘सबका उद्धार हो जाय’; नहीं तो– ‘मैं नरक में रहूँ’ और जो कोई नरक में आवे, उसका ही उद्धार करता जाय। अपना माँगने का काम है; देना, न देना उसकी इच्‍छा। नरक सदा के वास्ते ही माँगे। लोग दुनिया में सबसे खराब जगह नरक को ही मानते हैं, वही अपने लिए माँगे।

काशी में शिवजी मुक्ति देते हैं। वह नरक तो काशी से भी बढ़कर बन जाय। संसार में जितने दयालु हुए हैं, वह तो सबसे बढ़कर दयालु है।

‘बिना श्रद्धा ही दर्शन-उपदर्शन से उद्धार हो’ – ऐसा कैसे बनूँ ?

जिसको भगवान् यह वरदान दे देवें कि– ‘जहाँ दुःखी बहुत हैं, वहाँ जाकर रह।’ ऐसा भाव जिनका है, वही पुरुष वैसा बनने लायक हो सकता है। वहाँ कमजोर का काम नहीं है। उसी को वरदान मिल सकता है। सगुण-साकार के दर्शन वालों के ही ये भाव हो सकते हैं।

अपने तो सब आदमी यह बात ख्याल रखो कि यदि किसी को भगवान् मिलें, तो उनसे यह माँगे कि– ‘वे सबका उद्धार कर दें।’ यह इच्छा सबसे उत्तम है। मनुष्य जो भी क्रिया करे, वह किसी के अर्पण तो करता ही है। कोई तो फल-आसक्ति त्यागकर कर्म करता है, कोई कृष्णार्पण कर्म करता है, कोई प्रकृति के अर्पण करता है, कोई ‘गुणा गुणेषु वर्तन्तः’ – इस भाव से कर्म करता है। अपने तो कर्म का यदि कोई फल होता हो, तो यही माँगे कि– ‘इससे सारी दुनिया का कल्याण हो।’ इस त्याग का जो फल हो, उसका फल भी यही माँगे कि– ‘सब दुनिया का कल्याण हो।’ दुनिया का कल्याण माँगने वाले का यह भाव नहीं होना चाहिए कि मेरा भी कल्याण हो जाय।

प्रह्लाद की बात सुनी जाती है कि भगवान् ने कहा– ‘वरदान माँगो।’ तब उसने कहा कि– ‘सारी दुनिया का कल्याण कर दो।’ तब भगवान् ने कहा कि– ‘इनके पापों को कौन भोगेगा ?’ तब प्रह्लाद ने कहा कि– ‘मैं भोगूँगा। आप उन्हें मुझ से भुगताओ।’ तब भगवान् ने कहा कि– ‘ऐसा तो नहीं हो सकता है, पर जिसका तुम्हारे से भाषण, दर्शन, स्पर्श आदि हो जायेगा, उन सबका कल्याण हो जायेगा।’ ऐसा वरदान माँगना भगवान् के पास रहने से बढ़कर है। अपना भले ही वियोग रहे, परन्तु सब जीव भगवान्  के पास पहुँच जायँ।

भगवान् की दया का सहारा लेकर अपने में से जितने आदमी बैठे हैं, इनमें नीचे-से-नीचा जीव भी इसी जन्‍म में ऊँचे-से-ऊँचा बन सकता है। भगवान् की दया के सहारे प्रयत्‍न करे तो पापी-से-पापी भी जन्‍म के थोड़े ही काल में ऊँचे-से-ऊँचा हो सकता है। परमात्मा का आश्रय लेकर प्रयत्‍नशील हो; लगन लगावे–

लगन लगन सब कोई कहे, लगन कहावे सोय।
नारायण जा लगन में, तन मन दीजे खोय॥

सबसे बढ़ करके बनना पारस से भी दामी चीज है। यदि कोई कहे कि– ‘इस पहाड़ पर उस जगह पारस पड़ा है; जो पहले पहुँचेगा, उसे ही मिलेगा।’ तो सब बड़े उत्साह से भागेंगे। वैसा उत्साह हो, तो जो आदमी सबसे पीछे है, वह भी सबसे आगे पहुँच जायेगा। उससे भी कई गुना अधिक उत्साह भगवत्प्राप्‍ति के लिए करना चाहिए। परम श्रद्धा से भगवान् की प्राप्‍ति बहुत जल्दी हो सकती है। श्रद्धा से भी विलम्ब से हो जाती है, फिर जैसा होना होगा, वैसा अपने-आप ही हो जायेगा।

यदि स्‍त्री अपने पति को परमात्मा मान ले, तो परमात्मा मानने पर स्‍त्री की स्थिति वैसी ही हो जायेगी, जैसी परमात्मा-प्राप्‍ति वाले की हो जाती है। 

ज्ञानमार्ग में तो एक विज्ञानानन्दघन के सिवाय और कोई है ही नहीं। वहाँ किसका उद्धार ? वहाँ तो अपने कल्याण से ही सबका कल्याण है। प्रार्थना तो भक्तिमार्ग वाले कर सकते हैं।

दुनिया में बहुत से ज्ञानमार्ग से चलनेवाले भक्ति की तरफ से नाक सिकोड़ते हैं और भक्तिमार्ग वाले ज्ञान की तरफ से। ऐसा जो करते हैं, वे एक-दूसरे के तत्त्व को नहीं समझते। उनकी (ज्ञानमार्ग वालों की) दूसरी मौज है और उनकी (भक्तिमार्ग वालों की) दूसरी मौज है। दोनों मार्ग अलग-अलग हैं; दोनों ही ठीक हैं।

ज्ञानमार्ग में साधक स्वयं परमात्मा का स्वरूप बन जाता है। वह आनन्दमय सारे संसार को आनन्द बाँटता रहे, तो भी वह आनन्द वैसा-का-वैसा ही रहता है, जैसे भगवान् सबका पालन-पोषण करते हुए खुद भी आनन्द में रहते हैं। वह पुरुष भगवत्-रूप हो जावे, सारी दुनिया उसकी उपासना करे; वह उपास्य है।

इसी प्रकार भक्ति के तत्त्व को नहीं समझने वाले कहते हैं कि– ‘यह तो विषयासक्ति है; इससे दूर रहो।’ जैसे गोपियों का भगवान् से विशुद्ध प्रेम था। जिस आनन्द में गोपियाँ मुग्ध थीं, उस प्रेम का आस्वादन, उस आनन्द के तत्त्व को ज्ञानमार्ग वाले छू भी नहीं सके। उन गोपियों के आनन्द को देखकर भगवान् मुग्ध हो जाते हैं। सारी दुनिया को तो भगवान् मुग्ध करते हैं और राधिकाजी भगवान् को मुग्ध करती हैं ! राधिकाजी भगवान् की प्रसन्नता में प्रसन्न होती हैं और भगवान् राधिकाजी की प्रसन्नता देखकर प्रसन्न होते हैं। सारी मुक्तियाँ भक्त की चरण-धूलि में रहती हैं, नित्य-नई मग्नता रहती है। मुक्ति तो उनके चरण की धूलि में लोटती है; मुक्ति तो उन भक्तों की चरण-रज से ही मिल जाती है। इतनी ऊँची स्थिति को ज्ञानमार्ग वाले जान ही नहीं सकते।

दोनों ही इसी तरह भूल में हैं। किसी मार्ग की भी निन्दा करनी भगवान् की निन्दा करनी है। परमात्मा की प्राप्‍ति वाला पुरुष तो किसी की भी निन्दा नहीं कर सकता। भगवान् के किसी भी मार्ग की निन्दा करे, वह परमात्मा की प्राप्‍तिवाला पुरुष नहीं है। परमात्‍मा की प्राप्‍तिवाला पुरुष तो किन्हीं भी भूतों से घृणा नहीं करता है। जो इन मार्गों में घृणा करे, वह तो द्वेषी है। परमात्मा की प्राप्‍ति वाला पुरुष तो मुसलमान, ईसाई के धर्म से भी घृणा नहीं करता है। जो इनसे भी घृणा करता है, वह भगवत्‍प्राप्‍ति वाला पुरुष नहीं है। जो पुरुष सब भूतों को अपनी आत्मा में और सब भूतों में अपनी आत्मा को देखता है, वह किसी से भी घृणा नहीं कर सकता है।

शास्‍त्र की मर्यादा रखने के लिए जो छूने योग्य नहीं हैं, उन्हें मत छूओ, परन्तु उनसे घृणा मत करो; किन्तु आपत्तिकाल में यह नियम लागू नहीं है। बीमार अवस्था में नीच की सेवा करना भी परम धर्म है; पश्चात् शास्‍त्र की मर्यादा के अनुसार स्‍नान कर ले। शास्‍त्र की मर्यादा क्रिया में रहनी चाहिए, हृदय से सबको साष्टांग प्रणाम करना चाहिए– यही भक्ति का मार्ग है।

ज्ञानमार्ग से परमेश्वर की प्राप्‍ति होने पर संसार स्वप्नवत् हो जाता है और सभी उसकी आत्मा बन जाते हैं, तो घृणा किससे करे। शरीर में जितनी गंदी चीजें हैं, उतनी गंदी चीजें संसार में कहीं नहीं मिलेंगी।

भक्ति के मार्ग में– ‘मैं सेवक सचराचर रूप राशि भगवंत’ है, फिर किससे घृणा करे ?

ज्ञान के मार्ग में अपनी आत्मा ही सबकी आत्मा है, तो किससे घृणा करे ?

साधक की बुद्धि में भ्रम न हो, इसलिए सिद्ध को शास्‍त्र के अनुसार चलना चाहिए।