श्रद्धा और विश्वास से भगवत्प्राप्ति
गंगाजी में, भगवान् के नाम में और रूप में विश्वास हो जाये तो उद्धार होने में कोई शंका नहीं है– यह शास्त्र और युक्ति से प्रमाणित बात है। विश्वास होने पर ही बात काम में लायी जाती है। बात जितनी काम में लायी जाती है, उतना ही विश्वास हुआ है। आप गीता का अभ्यास करते हैं। हम लोगों को निष्काम कर्म और सद्गुणों का जितना मालूम है, उसमें विश्वास कर लें। विश्वास उसी का नाम है, जो काम में लाया जाय। भगवान् में श्रद्धा और विश्वास होने से आचरण-हीन, महा-पतित का भी उद्धार हो सकता है– यह भी शास्त्र में प्रमाणित है। ये सभी बातें जोरों के साथ काम में लानी चाहिएँ। वीरता-धीरता से डटा रहे, कभी छोड़े नहीं; चाहे सिर कटा लेवे, पर डटा रहे। जैसे– महाराज युधिष्ठिर धर्म से हटते ही नहीं थे, वैसे ही हम लोगों को डटे रहना चाहिये; उनका ध्यान करने से आत्मा पवित्र होती है।
हम भी बचे हुए जीवन को इतना पवित्र बना सकते हैं– युधिष्ठिरजी से भी अधिक !
मनुष्य दुःख को भी आनन्द समझे। हम लोगों को वीरता, धीरता, गम्भीरता और जोश के साथ साधन करना चाहिये।
हम लोग निष्काम-कर्मयोग का खूब पालन कर सकते हैं; इससे हमारा अन्न पवित्र हो जाता है; इससे हमारे घर में अलौकिक पवित्रता आ सकती है; हमारा घर एक प्रकार से ऐसा बन सकता है, जैसा राजा जनक का था ! यह सोचकर हमें राजा जनक और तुलाधार वैश्य के माफिक अपना जीवन बिताना चाहिये। समलोष्टाश्मकाञ्चनः – पत्थर में, सोने में और मिट्टी में कोई भेद नहीं है– इस बात को ध्यान में रखकर चलें। एक स्वार्थ को छोड़ दें–
यतः प्रवृत्तिर्भूतानां येन सर्वमिदं ततम्।
स्वकर्मणा तमभ्यर्च्य सिद्धिं विन्दति मानवः॥
(गीता 18/46)
भगवान् को निमित्त कारण मानकर सबकी सेवा करना, सबको आराम पहुँचाना ही भगवान् को आराम पहुँचाना है– यही परम धन है। इसे एक साल पालन करके देखो।
गोपियाँ अपने घर का काम कर रही हैं और मुँह से भगवान् के नाम का जप हो रहा है, मन से भगवान् का ध्यान हो रहा है; कोई स्मरण कर रही है, कोई भगवान् के मुखारविन्द को देखकर मुग्ध हो रही है, कोई गद्गद भाव से रो रही है ! कैसी आनन्द की कथाएँ हैं !
हम लोग भी अपनी ऐसी दशा बनाकर, जो व्यापार करना हो, वह करें, तो बहुत जल्दी ही आत्मा पवित्र हो सकती है। साधन है, यह तो अमृत है; रुपया है, सो धूल के समान है– विश्वास होना चाहिए।
नर तनु पाइ विषयँ मन देहीं। पलटि सुधा ते सठ विष लेहीं ॥
परमात्मा का भजन-ध्यान और साधन अमृत हैं, संसार के पदार्थ विष हैं।
ताहि कबहुँ भल कहइ न कोई। गुंजा ग्रहइ परस मनि खोई॥
उसको कोई श्रेष्ठ नहीं कहता, जो पारस देकर चिरमी को लेता है। परमात्म-विषयक साधन पारस है, यह सोचकर तत्पर होना चाहिये, नहीं तो तुलसीदासजी ने कहा है, वही दशा होगी-
सो परत्र दुख पावइ, सिर धुनि धुनि पछिताय।
कालहि कर्महि ईश्वरहि, मिथ्या दोस लगाय॥
इस उपाय को जो नहीं मानता है, वह अन्तकाल में सिर धुन-धुनकर पछताता है तथा काल, कर्म और ईश्वर पर मिथ्या दोष लगाता है।
इस समय काल भी बड़ा अच्छा है–
कलिजुग सम जुग आन नहिं, जौं नर कर बिस्वास।
गाइ राम गुन गन बिमल, भव तर बिनहिं प्रयास॥
कलियुग के समान युग आ नहीं सकता, सिर्फ विश्वास की जरूरत है। यह काल बहुत अच्छा है। पहले के जमाने में लोगों की ध्यान, भजन, सेवा में बहुत अच्छी श्रद्धा हुआ करती थी, इसी से उनका कल्याण हुआ करता था; जैसे शुकदेवजी ने राजा परीक्षित को भागवत सुनाई, उसमें कथा तो हजारों मनुष्यों ने सुनी, पर कल्याण तो राजा परीक्षित का ही हुआ।
जितनी श्रद्धा होती है, उतना ही प्रयत्न होता है। श्रद्धा अपने-आप ही क्रिया करा लेती है, जैसे व्यापार में धन के लिये, स्त्री-पुत्रादि के लिये श्रद्धा होने पर क्रिया अपने-आप ही हो जाती है। संसार में एक-एक ऐसी चीज है, जो अलभ्य लाभ दे सकती है। एक दरिद्र के पास पारस है, वह उसे पत्थर समझता था, पर पारस का मालूम पड़ने के साथ ही उसकी सब क्रियाएँ पारस के माफिक होने लग गई।
मनुष्य की जितनी श्रद्धा होती है, उतना ही उसे लाभ होगा। मनुष्य की जितनी श्रद्धा होती है, उतना ही प्रेम होता है; इससे यही बात सिद्ध हुई कि मनुष्य को श्रद्धा बढ़ानी चाहिये।