Seeker of Truth
॥ श्रीहरिः ॥

शीघ्र कल्याण के उपाय

आषाढ़ बदी ३, सम्वत् १९९३, दिनांक ८-६-१९३६, सोमवार, रात्रिरानी की कोठी, स्वर्गाश्रम

एक तो सबसे बढ़कर मार्के की बात यह है कि बर्ताव सबसे बहुत उत्तम होना चाहिए। सेवाभाव सबके साथ होना चाहिए यानी दूसरे को आराम पहुँचाना चाहिए। सेवाभाव हम लोगों में बहुत कम है। सेवा ही असली धन है। दूसरे को आराम पहुँचाना– इसकी हम लोगों में बहुत कमी है।

प्रायः लोग अपने-अपने घर जाकर दूसरे-दूसरे कामों में फँस जाते हैं। ऐसा न करके जो कुछ भी साधन यहाँ करते हैं, उसके अनुसार घर पर भी साधन करना चाहिए। यहाँ दो महीने रहकर जो कुछ साधन किया, उसके लिए फिर प्रयत्‍न करना चाहिए। सत्संग में जो बातें सुनी गई, एकान्त में १० महीने रहकर उसी का साधन करना चाहिए। जैसे पढ़ने वाला एक घंटा पढ़कर तीन-चार घंटे उसका मनन करता है, उसी प्रकार सीखकर दस महीने साधन करना चाहिए। जिस काम के लिए हम लोगों का जन्‍म हुआ है, उस काम को एक साल के भीतर ही पूरा करने के लिए प्राण-पर्यन्त चेष्टा करने की कोशिश करनी चाहिए। यह सोचना चाहिए कि परमेश्वर का मेरे सिर पर हाथ है, इसलिए उसको करने के लिए परमेश्वर पर उम्मीद करनी चाहिए। परमेश्वर की मदद पाकर विशेष सफल होना चाहिए। मालिक की दया है, फिर क्‍या चिन्ता है ? निर्भय होकर तत्परता के साथ साधन करना चाहिए। परमेश्वर के बल का आश्रय लेकर जो संसार में विचरण करता है, उसके कार्य की सिद्धि बहुत जल्दी होती है। हमें ईश्वर के बल पर प्रयत्‍नशील होना चाहिए। साधन में गीताजी के मुख्य दो श्लोक हैं–

मच्चित्ता मद्‍गतप्राणा बोधयन्तः परस्परम्।
कथयन्तश्च मां नित्यं तुष्यन्ति च रमन्ति च॥
तेषां  सततयुक्तानां  भजतां  प्रीतिपूर्वकम्।
ददामि बुद्धियोगं तं  येन  मामुपयान्‍ति ते ॥
(गीता अ॰ १०/९-१०)

अर्थात्‌‌‌– और वे निरन्तर मेरे में मन लगाने वाले और मेरे में ही प्राणों को अर्पण करने वाले भक्‍तजन सदा ही मेरी भक्ति की चर्चा के द्वारा आपस में मेरे प्रभाव को जनाते हुए तथा गुण और प्रभावसहित मेरा कथन करते हुए ही संतुष्ट होते हैं और मुझ वासुदेव में ही निरन्तर रमण करते हैं। उन निरन्तर मेरे ध्यान में लगे हुए और प्रेमपूर्वक भजनेवाले भक्तों को, मैं वह तत्त्वज्ञानरूप योग देता हूँ कि जिससे वे मेरे को ही प्राप्त होते हैं।

भगवान् में हमारा दृढ़ प्रेम होने का सबसे बढ़कर यही उपाय है कि संसार में जो हमारा प्रेम बँटा हुआ है, वह सब प्रेम भगवान् में हो। या सबसे भगवान् के लिए प्रेम करें– हरि ब्यापक सर्वत्र समाना। प्रेम तें प्रगट होहिं मैं जाना॥ द्रौपदी, गोपियाँ, ध्रुव, प्रह्लाद शबरी, तुलसीदास, सूरदास– सबको भगवान् प्रेम से ही मिले हैं। भगवान् के मिलने के लिए सबसे बढ़कर साक्षात् उपाय भक्ति कहो या प्रेम कहो– दोनों एक ही हैं।

भक्‍त्‍या त्वनन्यया शक्‍य अहमेवंविधोऽर्जुन। 
ज्ञातुं  द्रष्टुं  च  तत्त्वेन  प्रवेष्टुं  च  परन्तप॥
(गीता अ॰ ११/५४)

परन्तु हे श्रेष्ठ तप वाले अर्जुन ! अनन्यभक्ति करके तो इस प्रकार चतुर्भुजरूप वाला मैं प्रत्यक्ष देखने के लिए और तत्त्व से जानने के लिए तथा प्रवेश करने के लिए अर्थात् एकीभाव से प्राप्त होने के लिए भी शक्‍य हूँ।

‘भगवान् को छोड़ करके और किसी में भक्ति न हो’ – वह अनन्य भक्ति है। अनन्य भक्ति होने के लिए सत्संग और भगवन्नाम का जप करना चाहिए। भगवान् के नाम का जप कलिकाल में बहुत श्रेष्ठ है। भगवान् में प्रेम उत्पन्न होने के लिए भजन, ध्यान, सत्संग करना चाहिए– इन्हीं से भगवान् में प्रेम होता है।

एक बात बहुत महत्त्व की याद आई है कि हम लोगों को हर-एक मनुष्य को भगवान् में लगाने की चेष्टा करनी चाहिए। हमने एक को भी भगवान् की भक्ति में लगा दिया तो बड़ी भारी दलाली का काम कर लिया। दलाली का फल भगवान् ही हैं। हर-एक मनुष्य को लोभ देकर या उनकी सेवा करके भगवान् की भक्ति में लगावें। भगवान् की भक्ति में वही पुरुष दूसरों को लगा सकता है, जिसके आचरण अच्छे हों और जो स्वयं भक्ति करता हो। लोग-दिखाऊ भक्ति करने से आचरण का सुधार नहीं होता है।

अपनी योग्यता साधारण हो, तो अपनी योग्यता के अनुसार ही दूसरे को भक्ति में लगाने की चेष्टा करें। एक स्‍त्री या पुरुष ने किसी को भगवान् की भक्ति में लगा दिया तो तीर्थ में लाख रुपए दान देने से भी उसका महत्त्व बढ़कर है।

एक आदमी माला फेरता है, परन्तु झूठ बोलता है, कपट करता है, गाली देता है तो उससे विशेष क्‍या फायदा है ?

एक स्‍त्री घर वालों से लड़ाई करती है, वस्‍त्र और गहनों के लिए पति को तंग करती है, ऐसी स्‍त्री घोर नरकों में जाती है। स्‍त्री यदि पति को परमेश्वर समझकर सेवा करे, तो उसका बहुत जल्दी कल्याण हो जाता है; उसी स्‍त्री की बात दूसरी स्‍त्री सुनती भी है, जैसे संसार में जो खुद नहीं करते और दूसरों को केवल सुनाते-सुनाते ही हैं, उनका उपदेश दूसरों को नहीं लगता है। जिसमें त्याग, सदाचार, भक्ति नहीं होती है, उसका असर दूसरे पर नहीं पड़ता है। जिस स्‍त्री की खाने-पहनने में आसक्ति हो, उसका असर दूसरी स्‍त्री पर नहीं पड़ता है। जिसके भोजन और कपड़ों में सादगी आ गई, तो समझना चाहिए कि वह साधन की ओर बढ़ रही है। भोजन और वस्‍त्र की सादगी परमात्मा की प्राप्‍ति का पहला चिह्न है। यह तो मामूली त्याग है। वैराग्य से रहने के लिए निश्चय करना चाहिए।

जमीन पर सोया तो क्‍या, खटिया पर सोया तो क्‍या ! मिष्टान्न खाया तो क्‍या, सूखी रोटी खाई तो क्‍या !

कपड़ा खूब मोटा पहिने, जिससे स्वाभाविक वैराग्य हो। केवल सुने ही सुने, धारण नहीं करे, तो मुक्ति नहीं होती है। शौकीनाई का नाम-निशान नहीं रहने दे। भोग, आराम, स्वाद– इन सबको विष के समान समझे; भगवान् के ध्यान के आनन्द के सामने ये मल-मूत्र के समान भी नहीं हैं। भगवान की ओर ध्यान लगाया तो आत्मा गद्गद हो जाती है। जिस शरीर से परमेश्वर की प्राप्‍ति हो सकती है, उससे भोग-विलास आदि में प्रेम करना मल-मूत्र के साथ प्रेम करना है। उसका तो जन्‍म ही व्यर्थ गया, जिसने भोगों के साथ प्रेम किया। आनन्द-सागर से दोस्ती छोड़कर इन भोगों से दोस्ती करना महा-मूर्खता है।

हरेक भाई को यह बात सोचनी चाहिए कि इस जन्‍म में कार्य की सिद्धि नहीं हुई (अर्थात् परमात्मा की प्राप्ति नहीं हुई) तो मरने पर क्‍या पता, क्‍या होगा ? पश्चात्ताप करके सुधार करना चाहिए और साधन में जोश लाना चाहिए।

खान-पान में सादगी का होना– यह तो मामूली बात है। कंचन-कामिनी का, सांसारिक कार्यों का और विषय-भोग का त्याग करना चाहिए। मनुष्य को खयाल रखना चाहिए कि स्‍त्री के दर्शन न हो जायँ– यह साधन में बड़ी ही बाधक है। उसी तरह स्‍त्री को भी दूसरे पुरुषों (पर-पुरुषों) का देखना बाधक है। स्‍त्री-पुरुष का जो मेल है, वह विषय-वासना को तैयार करके (साधक को) डुबो देता है, इसलिए इससे बहुत बचना चाहिए; यह आपस का सम्बन्ध गिराने वाला है। ऐसा लेशमात्र का सम्‍बन्‍ध भी साधन में बड़ा विघ्‍न है, मृत्यु से बढ़कर हानिकारक है, धर्म को डुबाने वाला है। इससे बचे, तो समझना चाहिए कि एक बड़ी आपत्ति से बच गए, यानी गड्ढ़े में गिरने से बच गए।

ब्रह्मचर्य का भाव बहुत उत्तम है। जो आदमी मन, वाणी, शरीर से ब्रह्मचर्य का पालन करता हुआ बे-दाग रहता है, उसमें सारी बातें उत्तम हो जाती हैं; उसका साधन बहुत अच्छा हो सकता है। वह केवल ब्रह्मचर्य के बल से जल्दी ही भगवान् को प्राप्त कर सकता है। इसके उदाहरण के लिए भीष्म को याद कर लेना चाहिए।

यदि किसी से पहले कुछ बुरा काम बन गया हो, तो उसकी चिन्ता नहीं करनी चाहिए; और भगवान् के आगे प्रार्थना करने से भगवान् उसे माफ कर देते हैं। आगे के लिए मन में दृढ़ प्रतिज्ञा करनी चाहिए कि इस प्रकार का दोष नहीं घटे। यदि घट जाय, तो मन को धिक्कार देना चाहिए; तथा पश्चात्ताप करके उपवास करना चाहिए। पुरुष की नजर स्‍त्री की तरफ जाय तो मन को धिक्कारना चाहिए, रोना चाहिए और परमात्मा से प्रार्थना करना चाहिए कि अब ऐसा कार्य न करूँ। खूब सावधान रहना चाहिए। करो तो सूकर-कूकर का काम और चाहो भगवान् की प्राप्‍ति– यह बात कैसे हो सकती है ? कहाँ तो परमात्मा का दिव्य स्वरूप और कहाँ विष्ठा-मूत्र की थैली से प्रेम ! परमेश्वर खयाल करेगा, तो कहेगा कि तू मेरा कुछ भी प्रभाव नहीं जानता ? कहाँ मल-मूत्ररूप सांसारिक विषयभोग और कहाँ परमात्म-सुख !

ये चार साक्षात् महान् मृत्यु-रूप शत्रु हैं– (1) आलस्य, (2) प्रमाद, (3) भोग और (4) पाप।

प्रमाद और पाप तो घोर नरक में ले जाने वाले हैं ही, आलस्य और भोग भी पाप कराकर नरक में ले जाने वाले हैं। भोग में त्यागने योग्य‌‌‌– कंचन, कामिनी, शरीर का आराम, मान और बड़ाई– ये पाँच बातें हैं। ये पाँचों जिसमें नहीं हैं, वह सारी दुनिया का वन्दनीय है।

इनमें सबसे बढ़कर बलवान् बड़ाई है। किसी में मान का दोष, किसी में कामिनी का दोष, किसी में कंचन का दोष और किसी में आराम का दोष है। स्‍त्री के विषय का दोष मालूम नहीं पड़ सकता है (मन में छिपा हुआ रहता है)। इन दोषों को पार लाँघ जाय, वह सारी दुनिया को जीत सकता है।

भोग की व्याख्या–  स्वाद अर्थात् जिह्वा के भोग में नहीं फँसना चाहिए। आराम भी भोग का अंग है। रुपए, धन आदि इकट्ठे करना भी भोग की सामग्री है।

शौक– किसी चीज को देखने-सुनने की इच्छा रखना– यह भी विषय-भोग का एक अंग है।

विलासिता– सांसारिक भोगों का एक मोटा रूप है।

ये सारे भोगों के अंग हैं। इनको पाप में हेतु समझें। ये पाप-कर्म में पटकते हैं। इन सब बातों को सोचकर सावधान होना चाहिए। एक आदमी भजन-ध्यान भी करता है और उसमें दोष भी हैं, तो समझना चाहिए कि उसका भजन-ध्यान दामी (मूल्यवान्) नहीं है; वह दोषों के कारण आगे नहीं बढ़ रहा है। हम लोगों के लिए जो यह विलम्व हो रहा है, इसमें संसार की आसक्ति ही कारण है। जैसे वृक्ष में पानी सींचा जाय और वह वृक्ष न बढ़े, तो अनुमान कर लेना चाहिए कि उसमें दीमक लगी हुई है। काम, क्रोध, लोभ, निद्रा, आलस्य– इन सब दीमकों को निकालना चाहिए। साधन तेज हो, तो अन्तःकरण साफ होकर ऊँची स्थिति हो। बीमारी तो शरीरिक रोग है और काम, क्रोध, लोभ, आलस्य, प्रमाद– ये सब मानसिक रोग हैं, मनुष्य को नष्ट कर डालते हैं। इनको नाश करने के लिए भजन, ध्यान, सत्संग करना चाहिए।

जैसे किसी पर फाँसी का मुकदमा लग जाय तो वह उससे छूटने के लिए कितनी कोशिश करता है, कितनी खुशामद करता है और हर समय वकीलों से कानून की पुस्तकें दिखाने की चेष्टा करता है, ऐसे ही हमको संसारसे मुक्त होने के लिए चेष्टा करनी चाहिए। हम लोगों पर भी यमराज का मामला है; इसकी पैरवी करनी चाहिए। इस शरीर का नाश होना ही फाँसी है। भविष्य में जन्‍म न हो, दुःखालय संसार में दुख के भाजन न बनें। जन्‍ममृत्युजराव्याधिदुःखदोषानुदर्शनम् (गीता १३/८) – ऐसा समझकर इसके लिए खूब खुशामद और पैरवी करने की आवश्यकता है। किसी को छः महीने की जेल हो जावे, उससे उसकी भूख और नींद उड़ जाती है, वह उसके छूटने के लिए कितना प्रयत्‍न करता है, उतना प्रयत्‍न यदि चौरासी लाख योनियों से छूटने के लिए करे तो सम्भव है कि छूट जाय। ऐसा मौका पाकर कल्याण नहीं हुआ, तो अपने (मनुष्य शरीर में) आने में लज्जा की बात है। मनुष्य का जन्‍म पाकर जो नाना प्रकार के पाप करें, उनसे तो कुत्ते भी अच्छे ! उन्हें अपनी आत्माको धिक्कार देना चाहिए। उनके माता-पिता को भी धिक्कार है कि संसार में ऐसी सन्तान पैदाकर कलंक लगाया। मनुष्य का जीवन पाकर कुत्तों की मौत मरे– यह बहुत लज्जा की बात है। माता-पिता कोई पत्थर पटकते, तो वह भी कुछ काम तो आता ! 

खयाल करो– लोग तीर्थों में जाते हैं। किसी ने चारों धाम कर लिए, किसी ने तीन धाम कर लिए. तब भी उनके आचरण और स्वभाव वैसे ही रहते हैं तो लोग उन्हें धिक्कार देते हैं, सो ठीक ही है, क्‍योंकि तीर्थ गए और आचरण ठीक नहीं हुए। आजकल तो लोग केवल भागते ही रहते हैं (तीर्थ-दर्शन के लिए जाते हैं और १-२ दिन में ही चल देते हैं)। पहले तो लोग तीर्थों में जाते थे और ८-१० दिन ठहरकर भजन, ध्यान, सत्संग, व्रत, दान करते थे, इसी से वे पवित्र होते थे। आजकल तो हाय-हाय करके भागते ही रहते हैं, इससे उनके आचरण ठीक नहीं होते हैं; हम लोग उन्हें धिक्कार देते हैं।

इसी प्रकार हम लोगों का स्वभाव भी वैसा ही बना रहा, तो हमें भी वे लोग ऐसे ही कहेंगे कि– इतने वर्षों से ऋषिकेश सत्संग में जाते हैं, भजन करते हैं, इन लोगों को क्‍या फायदा हुआ ? हमारे आचरण देखकर उन लोगों में ढिलाई आती है और इससे उन लोगों को नुकसान होता है; जो लोग भजन-ध्यान की ओर आगे बढ़ना चाहते थे, वे रुक जाते हैं। वे लोग भजन-ध्यान करके मुक्त हो सकते थे, उनमें हमारे ही कारण रुकावट पड़ रही है; इसलिए ऐसा समझकर हमें अपना सुधार शीघ्र करना चाहिए।

शरीर-मन-बुद्धि हमारी हैं, उन्हें भगवान् की तरफ लगाने में क्‍या कठिन बात है ? अपने एक-एक क्षण का हिसाब रखना चाहिए, एक क्षण भी व्यर्थ नहीं खोना चाहिए। कौड़ियों के बदले में ऐसे अमूल्य जीवन को खोएँ, तो कैसी मूर्खता है ! मनुष्य जीवन पाकर यदि शरीर का निर्वाह-मात्र ही किया तो पशु-पक्षी और मनुष्यों में क्‍या फर्क है ? इसलिए भोगों को लात मारकर, ऋषि-मुनि पहले जिस काम में लगे थे, उसी काम में लगना चाहिए। यह कार्य तत्पर होने से ही हो सकता है।

अपने को ईश्वर का चपरासी मानना चाहिए। हम लोग ईश्वर के चपरासी बन जायँ, तो जल्दी ही हमारा कल्याण हो सकता है। ईश्वर का चपरासी कौन है, जो भगवान् का भक्त है। भक्त ही चपरासी है। जो थोड़ी भी भगवान् की भक्ति करता है, वह भी भगवान् का भक्त है, इसलिए हरेक को अपने-आपको भगवान् का चपरासी समझना चाहिए। हम नाम-मात्र के तो ईश्वर के चपरासी हो ही गए, इसलिए हम काम-क्रोधादि को ईश्वर की राजधानी में रहकर जल्दी मार सकते हैं। गवर्नमेन्ट का दस-पन्द्रह रुपए मासिक का चपरासी भी करोड़पति को हथकड़ी-बेड़ी डालकर ला सकता है, इसलिए जब हम ईश्वर के घर के नाम-मात्र के सिपाही हो गए, तब हम इन काम-क्रोधादि को जान से मार सकते हैं। हमारा इतना पावर और हुक्‍म है, तिस पर भी हम इतना डरते हैं ! इनको हथकड़ी डालकर वश में कर लेना चाहिए; मालिक की आज्ञा का, ईश्वर का अपने सिर पर हाथ मानकर इन काम-क्रोधादि पर विजय करनी चाहिए। भगवान् के राज्य में रहकर, यदि हम इन्हें नहीं मार सकेंगे तो भगवान् कहेंगे कि– ‘यह हमारे राज्य में सिपाही रहने के लायक भी नहीं है’; इसलिए वीरता के साथ इनको मार हटाना चाहिए।

संसार में महात्मा का सहारा मिलने पर व्यक्ति चाहे सो काम कर सकता है, महान् बन सकता है, फिर परमेश्वर का सहारा पाकर डरे, तो वह भगवान् के चपरासी को कलंक ही लगाता है ! भगवान् के राज्य में रहते हुए भी यदि काम, क्रोध, लोभ, मोह आदि हमें जूता मारते हैं तो हम भगवान् को ही (जूता) लगाते हैं, क्‍योंकि हम भगवान् के चपरासी हैं। जब तुम काम, क्रोध आदि से पीटे जाओ, तब तुम भगवान् को खबर कर दो, तो भगवान् तुमको फौज देकर इन्हें नष्ट कर देंगे। परमात्मा राजा हैं, हम लोग उनके चपरासी हैं। हम लोग चपरासी होते हुए यदि काम-क्रोधादि से पीटे जाते हैं, तो कितनी लज्जा की बात है ! जैसे वाइसराय को यह मालूम हो गया कि अमुक थानेदार चोर-डाकुओं द्वारा पीटा गया तो क्‍या वह फौज भेजकर चोर-डाकुओं का दमन नहीं करेगा ?

परमात्मा की दया मानकर, उसके बल पर काम-क्रोधादि शत्रुओं को पराजित करना चाहिए और परमपद का सरल मार्ग तय कर लेना चाहिए।

भगवान् का भजन, ध्यान, सत्संग तीनों प्रत्यक्ष आनन्द-दायक हैं। भगवान् के प्रभाव, रहस्य, गुण को स्‍मरण कर चलते, उठते, बैठते उनकी दया और प्रेम को याद कर-करके मुग्ध होवे। भगवान् के प्रेम को याद कर-करके मुग्ध होना चाहिए। ‘अपना मार्ग तय हो सकता है’ – ऐसा मानकर मुग्ध होना चाहिए। परमेश्वर मेरे पर बहुत खुश हैं। प्रभु थोड़ा मौका मिलते ही मिलने को तैयार हैं। मैं आनन्द, निराकार स्वरूप में ही चल रहा हूँ। ज्ञान, आनन्द में मस्त होकर विचरे। 

भगवान् के नाम-उच्चारण के साथ ही उनकी माधुरी मूर्ति का लक्ष्य करे। भगवान् को अपने नेत्रों के सामने से बिसारे नहीं; उनके प्रभाव, गुण, दया को देखकर मुग्ध होवे; शोक, चिन्ता, भय पास नहीं आने दे; हर समय आनन्द में मग्‍न रहे– इसमें कठिनता क्‍या है ? – यह मन को समझावे। भजन, ध्यान, सत्संग– ये बड़े सुगम हैं। बुरी आदत छुड़ाकर उस परमात्‍मा में मग्न होकर माधुरी मूर्ति को देख-देखकर जीवन बितावे, नहीं तो जन्‍म-जन्‍मान्तर तक पछताना पड़ेगा; इसलिए एकदम साधन में संलग्‍न होकर भगवान् का साक्षात्कार कर मनुष्य जीवन को सफल बना लेना चाहिए।