Seeker of Truth
॥ श्रीहरिः ॥

रामायण में प्रेम रस

दिनांक ३१-३-१९३६ (राम नवमी), ९ से १० बजे तक

रामायण में भरतजी का प्रेम-ही-प्रेम है। अहा ! भरतजी का नाम उच्चारण-मात्र से रोमाञ्च हो जाता है। यदि हम भरतजी के दास भी बन जायँ, तो बेड़ा पार है। भरतजी रामायण में एक पात्र हैं। यदि रामायण में से उनका नाम निकाल दिया जाय, तो रामायण में प्रेमरस ही नहीं रहता।

वाल्‍मीकि रामायण में भी भरतजी का वर्णन अच्छा है। ऐसा कौन होगा, जिसके भरतजी की कथा पर अश्रुपात न हो ? प्रेम तो भरतजी सरीखा ही करना चाहिए।

राम के वन जाने के बाद भरतजी जब नाना के यहाँ से आए, तब देखा कि शहर सुनसान है; बड़े विस्मित हुए। बस, सीधे एकदम माता कैकेई के महल में आए, क्‍योंकि उनको भरोसा था कि पिताजी यहीं मिलेंगे।

आते ही पिताजी को न देखकर पूछा कि– ‘माताजी ! पिताश्री जी कहाँ हैं ?’

माताजी ने कहा कि– ‘जिसको बड़े-बड़े योगी लोग तपस्या से पाते हैं, ऐसे परमधाम को पधार गए हैं।’

भरतजी एकदम व्याकुल हो गए; रोने लगे और कहा कि– ‘अहा पिताजी ! जाते समय आप हमको जेष्ठ भ्राताजी को भी सौंपकर नहीं गए ! माताजी ! पिताजी हमको क्‍या कह गए हैं ?’

कैकेई बोली कि– ‘जब तुम्हारे पिता सिधारने लगे, तो ‘हे राम’, ‘हे सीता’, ‘हे लक्ष्मण’ – ऐसा कहते-कहते प्राण छोड़कर सिधार गए।’ 

भरतजी बोले कि– ‘माताजी ! क्‍या वे (रामजी, सीताजी, लक्ष्मण) यहाँ नहीं थे ?’

कैकेई ने कहा कि– ‘वे वन को गए हैं और तुमको चौदह वर्ष का राज्य दिया है।’

भरतजी कहते हैं कि– ‘माता ! मुझे रामजी त्याग देंगे, नहीं तो मैं तुम्हारा सिर उतार लेता ! अब तुम मेरी आँखों के सामने से चली जाओ।’

ऐसा कहकर भरतजी कौशल्याजी के महल में गए। कौशल्या ने भरत को देखकर दौड़कर गले से लगा लिया और फिर कहा कि– ‘बेटा भरत ! माता कैकेई के द्वारा तुमने सब समाचार सुने ही होंगे ?’

भरतजी ने कहा– ‘माँ !  राम के वन जाने में मेरी सम्मति नहीं थी। यदि मेरी सम्मति हो, तो मुझे वह पाप लगे, जो वसिष्ठजी को मारने का होता है।’

कौशल्याजी कहती हैं– ‘बेटा ! धन्य है तुम्हारे पिताजी को, जो उन्होंने प्राण त्याग दिए। बेटा ! मैं नहीं त्याग सकी; क्‍या करूँ ?’

भरतजी रोते-रोते कहते हैं– ‘माताजी ! यदि मैं पैदा नहीं होता, तो आज रामचन्द्रजी को क्‍यों वनवास होता ? क्‍या अच्छा होता, यदि माता कैकेई मुझे होते ही मार डालती !’

फिर भरतजी ने पिता की प्रेत-क्रिया की। फिर सब बैठे, तब वसिष्ठजी ने कहा कि– ‘भरत ! अब पिताजी की आज्ञा मानकर राज्य स्वीकार करो। राज्याभिषक की सब सामग्री तैयार है।’

भरतजी कहते हैं कि– ‘मैं आपकी आज्ञापालन करने में विवश हूँ। भला बड़े भाई के रहते हुए मैं कैसे राज्य ले सकता हूँ ?’

फिर भरतजी सबसे प्रार्थना करते हैं कि– ‘आप सब लोग प्रातःकाल रामजी के पास चलो, ताकि उनको अवध ले आवें।’ 

सबने उनकी सम्मति मान ली और प्रातःकाल चल दिए। अहा ! भरतजी राह चलते हैं, तो अश्रुओं से पूर्ण आँखें लेकर चित्रकूट जा रहे हैं।

सब पैदल चल रहे हैं। किसी की भी हिम्मत नहीं होती है कि भरतजी से सवारी के लिए प्रार्थना करे। सबने सोचा कि भरतजी कौशल्याजी का कहना मानेंगे। तब माता कौशल्या ने कहा कि– ‘बेटा ! तुम्हारे कारण सबको पैदल चलना पड़ता है; सो तुम सवारी पर बैठकर चलो, तो अच्छा हो।’

भरतजी कहते हैं कि– ‘जननी ! जब रामचन्द्रजी पैदल गए हैं, तो हमको तो सिर के बल चलकर जाना चाहिए था, किन्तु आपकी आज्ञापालन करना भी मेरा धर्म होता है।’ – ऐसा कहकर माता कौशल्या की आज्ञा मानकर भरतजी सवारी पर बैठ गए और सब साथ वाले भी सवारी पर चलने लगे।

आगे शृंगवेरपुर में पहुँचे तो गुह ने सोचा कि– ‘भरत के मन में पाप नहीं होता, तो साथ में सेना क्‍यों लाते ?’ सो गुह विचार करते हैं कि– ‘यदि इन सबके मन में पाप होगा, तो सबको डुबा देऊँगा; और पाप नहीं हुआ, तो पार कर दूँगा।’

गुह ने भरतजी की परीक्षा के लिए प्रयत्‍न किया, किन्तु गुह को देखते ही भरतजी रो पड़े और कहा कि– ‘गुह भैया ! यदि मैं पैदा ही नहीं होता, तो रामजी वन क्‍यों जाते ? भाई गुह ! रामजी कौन-से वृक्ष की छाया में बैठे थे ? कहाँ शयन किया था ?’

गुह ने वृक्ष बतलाया, तो देखते ही भरतजी रो पड़े और कहते हैं कि– ‘अहा ! जिन सीताजी ने राजमहलों में शयन किया था, उन सीताजी को पत्तों पर सोना पड़ा !’ और फिर बिलख-बिलखकर रोने लगे।

आगे चलते-चलते भरद्वाज के आश्रम में पहुँचे। ऋषि ने पूछा कि– ‘आप कैसे आए ?’

भरतजी कहते हैं कि– ‘क्‍या आपको भी शंका होती है ?’

ऋषि बोले– ‘बेटा ! मैं योगबल से जानता हूँ कि तुम राम को लेने आए हो।’

ऋषि ने भरतजी का सत्कार किया तो बड़ी मुश्‍किल से सत्कार स्वीकार किया। ऋषि बोले– ‘भैया भरत ! रामजी ने यहाँ एक रात्रि विश्राम किया था; तुम भी करो।’ और कहा कि– ‘बेटा भरत ! रामजी ने रात-भर तुम्हारी याद की थी। अहा ! रामजी को सारा ब्रह्माण्ड याद करता है और रामजी तुमको याद करते हैं ! धन्य हो भरतजी ! तुम उनसे भी अधिक हो।’

प्रातःकाल होते ही फिर सब चित्रकूट की तरफ चल दिए। वहाँ रामचन्द्रजी को खोजते हैं और नहीं मिलने पर रो पड़ते हैं। भगवान् की ओर देखते हैं तो पाँव आगे बढ़ते हैं; अपनी तरफ देखते हैं तो रुक जाते हैं और माता की करतूति पर देखते हैं, तो पैर पीछे पड़ते हैं। भरतजी बिलखते-बिलखते कहते हैं कि– ‘अहा ! रामजी जब सुनेंगे कि कैकेई का पुत्र आया है, तब तो वे मुझे देखना भी नहीं चाहेंगे; वन त्यागकर चले जायेंगे, क्‍योंकि माता की और मेरी करनी नीच है।’ ऐसा सोचते-सोचते आगे चले जा रहे हैं। इतने में भगवान् के चरण-चिह्न मिले; बस, एकदम प्रसन्न होकर चरण-धूलि उठाकर सिर पर चढ़ा लेते हैं। अहा ! परम श्रद्धा यही है। रामजी की चरण-धूलि धारण करके अपनी सुध भूल गए। चलते-चलते उनके प्रेम की दशा में वृक्ष भी मुग्ध हो गए।

होत न भूतल भाउ भरत को। अचर सचर चर अचर करत को॥

चलते-चलते महाराज के पास पहुँचे। बस, दूर से ही प्रणाम किया और गिर पड़े चरणों में; किन्तु रामजी भरतजी को नहीं पहचान सके। भगवान् को मालूम भी नहीं हुआ कि भरतजी आए हैं; तब लक्ष्मणजी से नहीं रहा गया और रामचन्द्रजी से कहा कि– ‘आपको भरतजी प्रणाम कर रहे हैं !’

अहा ! रामजी ‘भरत’ नाम सुनते ही बिना देखे रो पड़े; अपने कपड़ों की भी सुधि नहीं रही और एकदम हृदय से लगा लिया !

राम ने कहा– ‘भैया ! कैसे आए ?’

भरत ने कहा कि– ‘हम(अर्थात् हमारे साथ में आए हुए पूज्य गुरुदेव, सभी माताएँ और पुरवासी जन) दल सहित तीन मील की दूरी पर बैठे हैं।’ फिर पिताजी की बात सुनाई। पिताजी की बात सुनकर रामजी रो पड़े। फिर सबने पिता के नाम से स्‍नान किया और उस दिन निघोट (निर्जल) व्रत किया।

तब फिर भरतजी बोले– ‘प्रभु ! अब आप अवध को पधारिए।’

रामजी ने कहा– ‘भैया ! पिताजी की आज्ञा पालन करना अपना धर्म है।’

भरतजी बोले– ‘प्रभु ! यदि पिताजी ने स्‍त्री के वश होकर आपको वन दिया है, तो आप माता सहित मुझे क्षमा कीजिए।’

रामजी बोले– ‘भैया ! पिताजी ने प्राण जाते हुए भी अपना प्रण और धर्म निबाहा, तो उनकी आज्ञा का पालन करना हमारा धर्म है।’

भरतजी ने कहा कि– ‘मैं वन में जाता हूँ और आप राज्य कीजिए।’ किन्तु रामजी ने स्वीकार नहीं किया।

तब भरतजी बोले कि– ‘यदि आप नहीं चलोगे, तो मैं भी नहीं जाऊँगा।’ तब गुरु वसिष्ठजी ने समझाया कि– ‘बड़े की आज्ञा पालन करना अपना धर्म है, इसलिए ऐसा करो कि चौदह वर्ष की अवधि के लिए रामजी से कुछ ले लो।’ तब भरतजी ने चरण-पादुकाएँ माँगी और रामजी ने उन्हें दे दी। भरतजी खड़ाऊँ मस्तक पर धारण कर बोले– ‘यदि आप चौदह वर्ष के अन्त में नहीं आए, तो मैं पन्द्रहवें वर्ष के पहले दिन प्रातःकाल ही अग्‍नि में प्रवेश कर जाऊँगा; अपने प्राण नहीं रखूँगा।’

तब भरतजी (अयोध्या) वापस आए और रामजी की चरण-पादुकाएँ गद्दी पर रखकर आप नन्दीग्राम में रहने लगे और अपना जीवन भी फलाहारी रहकर रामजी की तरह से रहने लगे। यदि राज्य-कार्य कुछ आता, तो चरण-पादुकाओं को सुना देते और उनकी प्रेरणा से जो होता, वह कर देते थे।

आज चौदहवें वर्ष का एक दिन शेष रहा है। भरतजी सोच रहे हैं कि– ‘क्‍या रामजी ने मुझे कुटिल जानकर छोड़ दिया है ? अहा लक्ष्मण ! तुमको धन्य है। तुम्हारा रामजी में पूर्ण अनुराग है। मुझको कुटिल जानकर रामजी ने साथ नहीं लिया, किन्तु– 

जन अवगुन प्रभु मान न काऊ। दीन बंधु अति मृदुल सुभाऊ॥
बीतें अवधि रहहिं जौं प्राना।  अधम कवन जग मोहि समाना॥

इस प्रकार विलाप कर रहे थे, इतने में हनुमान् जी आ गए और खबर सुनाई कि– ‘भरतजी ! तुम जिनकी याद कर रहे हो, वे रामजी सीता, लक्ष्मण सहित आ पहुँचे हैं।’

ऐसा सुनते ही भरतजी एकदम प्रसन्न हो गए, मुग्ध हो गए और पूछा कि– ‘भैया ! तुम कौन हो ? तुम्हें मैं क्‍या दूँ, जिससे तुम्हारे ऋण से उऋण हो जाऊँ ?’ अहा ! हनुमान् जी उनकी दशा देखकर मुग्ध हो गए और कहा कि– ‘धन्य हो भरतजी ! श्रीरामजी का भाई ऐसा क्‍यों न हो ! ऐसा ही होना चाहिए।’

रामचन्द्रजी ने नगर में प्रवेश किया। भरतजी एकदम चरणों में गिर पड़े। रामजी सबसे उनकी इच्छानुकूल मिले। वहाँ सबने यही सोचा कि रामजी पहले मुझ से मिले। प्रभु अनेक रूप धारण करके एक क्षण में सबसे मिल लिए और यह मर्म किसी ने भी नहीं जाना। 

क्षण महँ सबहिं मिले भगवाना। उमा मरम यह काहु न जाना॥

फिर रामचन्द्रजी महल में जाकर माताओं से मिले, प्रणाम किया। अहा ! भरतजी का कितना आदर्श प्रेम है ! इनके समान कोई नहीं हुआ। रामजी ने कहा कि– ‘प्रेमी यदि कोई है, तो भरत ही है।’ वन में जाते समय भी राम ने कहा– ‘माता ! मैं वनवास भी तुम्हारी सम्मति से ही जाता हूँ और वह मेरे हित के लिए ही है।’ और कहते हैं कि– ‘माता ! मैं धन्य हूँ कि मेरे परम प्रिय भाई भरत को राज्य हो। इससे बढ़कर और क्‍या हो सकता है ?’ क्‍योंकि रामजी यह जानते हैं कि भरत कदापि राज्य नहीं करेंगे।

दशरथजी ने भी मरते समय कहा था कि– ‘दुष्टा कैकेयी ! भरत कदापि राज्य नहीं करेगा। मेरा मरण होगा और तुझे कलंक का टीका लगेगा।’ और आखिर हुआ भी यही।

अहा ! धन्य है भरतजी के प्रेम को, जिसको दशरथजी ने और रामजी तक ने सराहा। हम लोगों को भी भरतजी का आदर्श लेकर इतनी विह्वलता रखनी चाहिए कि उसी समय रामजी आवें, जैसे भरतजी के लिए आए। सोचो, यदि भगवान् की कृपा है तो वे अवश्य मिलेंगे। जब सबको मिले हैं, तो हमको भी मिलेंगे। बस, प्रतीक्षा करनी चाहिए कि अब आए, अभी आए, कब आए– ऐसी रटन लगाना चाहिए। विलम्ब में गद्गद वाणी से प्रार्थना करना चाहिए। प्रतीक्षा में भी नहीं आवें, तो ऐसी कल्पना करना चाहिए कि हम प्रार्थना कर रहे हैं और कह रहे हैं– ‘प्रभु ! क्‍यों नहीं आते ? शीघ्र आओ। हे नाथ ! हे नाथ ! शीघ्र पधारो।’

पवित्र स्थान, भगवत्-चर्चा, उत्तम काल, उत्तम योग पाकर भी यदि विलम्ब होता है, तो आश्चर्य है। हम लोगों को विश्वास नहीं होता है। विश्वास होवे, तो उनको आने में कोई देरी नहीं है।