प्रेम का विषय
प्रेम का विषय तो बहुत ही उत्तम है, परन्तु मेरी तरफ देखने से साहस नहीं होता है। प्रत्यक्ष देखिये, जहाँ प्रेम है, वहाँ आनन्द है। प्रेम का दर्शन सुन्दरदासजी ने कैसा किया है –
न लाज तीन लोक की, न वेद को कह्यो करै।
न शंक भूत प्रेत की, न देव जच्छ तें डरै॥
सुनै न कान और की, द्रसै न और इच्छना।
कहे न मुख और बात, भक्ति प्रेम लच्छना॥
ऐसा प्रेम होता है, तब तीनों लोकों की लज्जा नहीं रहती है। वह तीनों लोकों की लज्जा छोड़ता नहीं है, परन्तु वह प्रेम में रहती नहीं है। प्रेम में भरतजी की कैसी दशा हुई थी ! उद्धव की कैसी दशा हुई !
रामचन्द्रजी वन से लौटकर आये और भरत से मिले, उस समय सुग्रीव और विभीषण रोने लगे और बोले कि– ये भी भाई हैं और हम लोग भी भाई थे !
एक मनुष्य का स्त्री से प्रेम होने पर जो आनन्द आता है, उससे भी बढ़कर कंगाल को राजा के साथ प्रेम होने पर आता है। यदि उस कंगाल का लाट साहब से प्रेम हो जाय, तो उसे इतना आनन्द आता है कि वह समाता ही नहीं है। यदि इन्द्र से प्रेम हो जाय तो उसे कितना आनन्द होता होगा, उसका तो हम लोग अन्दाज ही नहीं कर सकते। इन लोगों से प्रेम होना तो अपने अखत्यार (अधिकार) की बात नहीं है, परमेश्वर से प्रेम करना तो अपने अखत्यार की बात है। तिस पर परमेश्वर भी प्रेम करने को तैयार हैं ! ऐसे परम सुहृद् साक्षात् परमेश्वर के प्रेम को छोड़कर हम लोग विषय-भोगों में फँसे रहें, तो हम लोगों की नीचता की तो हद हो गयी !
भगवान् पुकारकर कह रहे हैं –
पत्रं पुष्पं फलं तोयं यो मे भक्त्या प्रयच्छति।
तदहं भक्त्युपहृतमश्नामि प्रयतात्मनः॥
(गीता 9/26)
भक्तों के दिये हुए पत्र-पुष्प को मैं साक्षात् प्रकट होकर खाता हूँ।
तथा महात्मा और शास्त्र कह रहे हैं कि वह परमेश्वर अवतार लेते हैं। उनके हाथ से मरने पर भी जीव मुक्त हो जाते हैं। उनके संहार में भी अपार दया है।
परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम्।
धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे॥
(गीता 4/8)
साधु पुरुषों का उद्धार करने के लिये और दूषित कर्म करने वालों का नाश करने के लिये तथा धर्म-स्थापन करने के लिये युग-युग में प्रकट होता हूँ।
भक्ति करके मिलने की इच्छा हो, तो साधु होना चाहिये। केवल कपड़े रंगने से ही साधु नहीं समझना चाहिये, साधु के माफिक जिनकी क्रियाएँ हैं, वे ही साधु हैं। गीता में भी बतलाया गया है कि दैवी सम्पदा का आश्रय लेकर मुझे भजने वाले ही साधु हैं।
अभयं सत्त्वसंशुद्धिर्ज्ञानयोगव्यवस्थितिः।
दानं दमश्च यज्ञश्च स्वाध्यायस्तप आर्जवम्॥
अहिंसा सत्यमक्रोधस्त्यागः शान्तिरपैशुनम्।
दया भूतेष्वलोलुप्त्वं मार्दवं ह्रीरचापलम्॥
तेजः क्षमा धृतिः शौचमद्रोहो नातिमानिता।
भवन्ति सम्पदं दैवीमभिजातस्य भारत॥
(गीता 16/1-3)
हे अर्जुन ! दैवी सम्पदा जिन पुरुषों को प्राप्त है तथा जिनको आसुरी सम्पदा प्राप्त है, उनके लक्षण पृथक्-पृथक् कहता हूँ, उनमें से सर्वथा भय का अभाव, अन्तःकरण की अच्छी प्रकार से स्वच्छता, तत्त्वज्ञान के लिये ध्यानयोग में निरन्तर दृढ़ स्थिति और सात्त्विक दान तथा इन्द्रियों का दमन, भगवत्-पूजा और अग्निहोत्रादि उत्तम कर्मों का आचरण एवं वेद-शास्त्रों के पठन-पाठनपूर्वक, भगवान् के नाम और गुणों का कीर्तन तथा स्वधर्म-पालन के लिये कष्ट सहन करना एवं शरीर और इन्द्रियों के सहित अन्तःकरण की सरलता तथा मन, वाणी और शरीर से किसी प्रकार भी किसी को कष्ट न देना तथा यथार्थ और प्रिय भाषण, अपना अपकार करने वाले पर भी क्रोध न होना, कर्मों में कर्तापन के अभिमान का त्याग एवं अन्तःकरण की उपरामता अर्थात् चित्त की चंचलता का अभाव और किसी की भी निन्दादि न करना तथा सब भूत प्राणियों में हेतु-रहित दया, इन्द्रियों का विषयों के साथ संयोग होने पर भी आसक्ति का न होना और कोमलता तथा लोक और शास्त्र से विरुद्ध आचरण में लज्जा और व्यर्थ चेष्टाओं का अभाव तथा तेज, क्षमा, धैर्य और बाहर-भीतर की शुद्धि एवं किसी में भी शत्रुभाव का न होना और अपने में पूज्यता के अभिमान का अभाव– यह सब तो हे अर्जुन ! दैवी सम्पदा को प्राप्त हुए पुरुष के लक्षण हैं।
जिनमें ये लक्षण हैं, वे ही साधु हैं।
इससे भी बढ़कर परमात्मा के प्रकट होने का उपाय है– प्रेम। शिवजी कहते हैं-
हरि ब्यापक सर्वत्र समाना। प्रेम तें प्रगट होहिं मैं जाना॥
मैं जानता हूँ कि हरि सबमें व्यापक हैं और वे प्रेम से ही प्रकट होते हैं, जैसे दियासलाई से आग।
हरि विशेष रूप से कहाँ रहते हैं ? – हृदय में। उनके नाम और गुणों का संघर्षण करना चाहिये; इस रगड़ के लगते ही भगवान् प्रकट हो जाते हैं,
भगवान् को सच्चे दिल से पुकारने पर भगवान् जरूर आते हैं। जैसे बच्चे के असली रोने पर माता आ जाती है, वैसे ही सच्चे दिल से रोने पर भगवान् के आने में विलम्ब नहीं होता है। जब यह विश्वास हो जाता है कि भगवान् हैं और वे मिलने के लिये तैयार हैं, तब फिर मनुष्य भगवान् से मिले बिना कैसे जी सकता है ?
विश्वास होने पर उससे पाप हो ही नहीं सकते। हम लोग भगवान् को धोखा भी नहीं दे सकते, क्योंकि वे सब जगह मौजूद हैं।
भगवान् के सब अंग सब जगह हैं।
भगवान् कहते हैं कि– मैं मेरे भक्तों का दिया हुआ खाता हूँ।
जब तक मनुष्य से पाप होते हैं, तब तक वह प्रभु के रहस्य को नहीं जानता है।
हम लोगों को भगवान् में प्रेम बढ़ाना चाहिये– विशुद्ध प्रेम।
स्वारथ मीत सकल जग माहीं। सपनेहुँ प्रभु परमारथ नाहीं॥
सुर नर मुनि सब कै यह रीती। स्वारथ लागि करहिं सब प्रीती॥
हेतु रहित जग जुग उपकारी। तुम्ह तुम्हार सेवक असुरारी॥
बिना प्रयोजन प्रेम करने वाले दो ही हैं– एक तो आप और एक आपके सेवक।
दूसरे मनुष्य का उपकार करने से ही प्रेम होता है, इसीलिये यहाँ उपकार शब्द दिया है। सारी दुनिया को नारायण-रूप समझकर उपकार करना– यही भगवान् से प्रेम करने का उपाय है। किसी को तकलीफ पहुँचाना भगवान् को तकलीफ पहुँचाना है। सारी दुनिया की सेवा करें– यह भगवान् से प्रेम करने का उपाय है।
भाई लोग कहते हैं कि– ‘हम भगवान् से मिलना चाहते हैं, पर हमको किसी की गर्ज नहीं’– यह उनकी भूल है। हम प्रभु को चाहते ही नहीं। हमारा शरीर और रुपयों में जितना प्रेम है, उतना भी प्रेम भगवान् में नहीं है, तब हमारा भगवान् में प्रेम कहाँ ? चाह कहाँ ? हम लोग तो लोभी की तरह हाय धन ! हाय धन ! करते हुए मरते हैं। इसी प्रकार हाय प्रभु ! हाय प्रभु ! करते हुए मरना चाहिये। हमारी इच्छा है, वैसी करनी नहीं है। हम लोगों की कैसी इच्छा होनी चाहिये-
लगन लगन सब कोई कहै, लगन कहावै सोय।
नारायण जा लगन में, तन मन दीजै खोय॥
जिस लगन में तन, मन, धन खो बैठते हैं, वही असली लगन है।
हम लोगों का मन विषयों की तरफ जाता है, प्रभु की तरफ तो जाता ही नहीं है। भगवान् की, तत्त्व की बातें हो रही हैं और यदि वर्षा आ गई, तो उठ गए। हम लोगों का कहाँ प्रेम ? और कहाँ श्रद्धा ? यदि यमदूत आवें, तो कौन कह सकता है कि– ‘मैं अभी नहीं चलूँगा’ इसलिये इस जोखिम को बेच देना चाहिये। राम नाम रूपी सिक्के से यह जोखिम बिक सकती है।
कबिरा सब जग निर्धना, धनवंता नहिं कोय।
धनवंता सोई जानिये, जाके राम नाम धन होय॥
लखपति कंगाल हो जाता है और कंगाल लखपति हो जाता है। अब से यह नियम बना लो कि– ‘हम भगवान् का भजन ही करेंगे’ बस, उसकी जोखिम बिक गयी। दूसरे प्रकार की जोखिम बेचनी यह है–
हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे॥
इस मन्त्र का साढ़े तीन करोड़ जप करने से भगवान् के यहाँ जोखिम बिक जाती है; फिर कोई भय नहीं रहता है।
सदा की जोखिम तो हम उठा रहे हैं, पर थोड़ी देर की वर्षा तथा आँधी नहीं सही जाती; मृत्यु-रूपी आँधी से भय नहीं करते, पर इस तुच्छ आँधी और वर्षा से भय करते हैं ! हम लोगों में पैसे में जितना प्रेम है, उतना भी भगवान् के नाम में प्रेम नहीं है।
भगवान् गीता में कहते हैं–
तस्मात्सर्वेषु कालेषु मामनुस्मर युध्य च।
मय्यर्पितमनोबुद्धिर्मामेवैष्यस्यसंशयम् ॥
(गीता 8/7)
हे अर्जुन ! तू सब समय में निरन्तर मेरा स्मरण कर और युद्ध भी कर; इस प्रकार मेरे में अर्पण किये हुए मन, बुद्धि से युक्त हुआ निःसन्देह मेरे को ही प्राप्त होगा।
भगवान् कहते हैं कि– 'मेरा स्मरण कर और युद्ध भी कर।’ इसलिये किसी भी काम में भगवान् का स्मरण छोड़ने की आवश्यकता नहीं है। हरेक काम करते रहो और भगवान् का स्मरण करते रहो।
हर वक्त भगवत्-चर्चा होती रहने से और उसके अनुसार साधन करने से मनुष्य का शीघ्र कल्याण हो सकता है।
गृहस्थाश्रम में कल्याण नहीं होता– यह कहने वाले दुनिया में भ्रम फैलाते हैं।
संसार में यह वस्तु नहीं है– यह कहने का किसी का अधिकार नहीं है। हाँ, यह कह सकते हैं कि मैंने इस वस्तु को नहीं देखा है।
वर्ण, आश्रम, देश, काल—भगवद्दर्शन में ये कोई भी बाधक नहीं हैं। मुक्ति के अधिकारी हुए बिना मनुष्य शरीर ही नहीं मिलता है।
भगवान् कहते हैं कि– ‘तू इस शरीर को पाकर मेरा भजन कर।’
किं पुनर्ब्राह्मणाः पुण्या भक्ता राजर्षयस्तथा।
अनित्यमसुखं लोकमिमं प्राप्य भजस्व माम्॥
(गीता 9/33)
फिर क्या कहना है कि पुण्यशील ब्राह्मणजन तथा राजऋषि भक्तजन परमगति को प्राप्त होते हैं, इसलिये तू सुखरहित और क्षणभंगुर इस मनुष्य शरीर को प्राप्त होकर निरन्तर मेरा ही भजन कर अर्थात् मनुष्य शरीर बड़ा दुर्लभ है, परन्तु है नाशवान् और सुखरहित, इसलिये काल का भरोसा न कर तथा अज्ञान से सुखरूप भासने वाले विषय-भोगों में न फँसकर निरन्तर मेरा ही भजन कर।
भजन करने से मनुष्य परमगति को प्राप्त होता है।
फल को न चाहता हुआ कर्म करता है, वही सन्न्यासी है।
जिसकी इच्छा जिस मार्ग में साधन करने की है, उसके लिये वही मार्ग ठीक है।
वेष बदलना सन्न्यास नहीं है, सांख्ययोग और ज्ञानयोग का नाम सन्न्यास है। मेरी धारणा से सांख्यमार्ग के अनुसार साधन गृहस्थाश्रम में भी हो सकता है, आश्रम से कोई सम्बन्ध नहीं है। संन्यास आश्रम और गृहस्थाश्रम– दोनों में ही सांख्य का साधन हो सकता है। हाँ, इतना जरूर है कि संन्यास आश्रम में समय अधिक मिलता है।
इस घोर कलिकाल में सबके लिये भक्ति का मार्ग ही उत्तम है और ज्ञान के अधिकारियों के लिये वह (ज्ञानमार्ग) भी अच्छा है।
दूसरों के लिये अपने अपमान करने वालों को अच्छा कहा जायेगा, तो उनका साहस बढ़ जायेगा और वे ज्यादा गिर जायेंगे; उनके गिरने में हम ही कारण होंगे, इसलिये निन्दा और स्तुति को समान ही समझना चाहिये, न कि अधिक।
यदि हम यह समझें कि निन्दा करने वाले तो हमारा पाप घटाते हैं तो ऐसी नीयत भी ठीक नहीं है, क्योंकि इसमें दूसरों का अनिष्ट-चिन्तन होता है।
किसी-किसी स्थान में निन्दा करने वालों को मैं रोक भी देता हूँ; न रोकने से उनका उत्साह बढ़कर वे दूसरों को तकलीफ देंगे। रोकना, न रोकना– दोनों तरह का ही व्यवहार हो सकता है।