पाप कर्म होने में प्रारब्ध हेतु नहीं होता है
प्रश्न १– निरन्तर स्वरूप की स्थिति रहने पर शरीर आदि अन्तःकरण में दूसरा काम हो सकता है या नहीं ? होवे, तो उस काल में, उतने काल के लिए स्वरूप का विस्मरण होवे कि नहीं ? स्वरूप विस्मरण भी नहीं होवे एवं दूसरे काम भी यथावत् होते रहें, सो किस प्रकार होते रहते हैं ?
उत्तर– निरन्तर भगवत्स्वरूप में (अर्थात् व्यष्टि चेतन की समष्टि चेतन में एकीभाव से) स्थिति रहते हुए भी अन्त:करण और इन्द्रियों द्वारा कर्तव्य कार्य होने में कोई आपत्ति नहीं पड़ती है और उस काल में भगवत्स्वरूप में स्थिति रहते हुए पुरुष की स्थिति में किञ्चित् भी अन्तराय आने का कोई हेतु नहीं है, क्योंकि परमात्मा को प्राप्त हुए पुरुष का अन्तःकरण से कुछ भी सम्बन्ध नहीं रहता है, केवल लोक-दृष्टि से उसके अन्तःकरण और इन्द्रियों द्वारा सब कार्य होते हुए प्रतीत होते हैं, सो समष्टि चेतन की सत्ता से, बिना कर्तृत्व-अभिमान के, पूर्व अभ्यास से होते हैं–
यस्य सर्वे समारम्भाः कामसङ्कल्पवर्जिताः।
ज्ञानाग्निदग्धकर्माणं तमाहुः पण्डितं बुधाः॥
(गीता ४/१९)
हे अर्जुन ! जिसके सम्पूर्ण कार्य कामना और संकल्प से रहित हैं, ऐसे उस ज्ञानरूप अग्नि द्वारा भस्म हुए कर्मों वाले पुरुष को ज्ञानीजन भी पण्डित कहते हैं।
सर्वकर्माणि मनसा सन्न्यस्यास्ते सुखं वशी।
नवद्वारे पुरे देही नैव कुर्वन्न कारयन्॥
(गीता ५/१३)
हे अर्जुन ! वश में है अन्तःकरण जिसके, ऐसा सांख्ययोग का आचरण करने वाला पुरुष निःसन्देह न करता हुआ और न करवाता हुआ ही नव-द्वारों वाले शरीररूप घर में सब कर्मों को मन से त्यागकर आनन्दपूर्वक सच्चिदानन्दघन परमात्मा के स्वरूप में स्थित रहता है।
प्रश्न २– परमात्मा की प्राप्ति के बाद काम-क्रोधादि होवे कि नहीं ? यदि नहीं होवे, तो महर्षि लोमश ने काकभुशुण्डी को शाप दिया, वह किस प्रकार दिया ? भगवान् शंकर कामदेव के वश में होकर मोहिनी के पीछे लगे; और भी कई उदाहरण देखे हैं, उसका क्या उत्तर है ? उन लोगों का कहना है कि काम-क्रोध के रहने मात्र से ही स्वरूप की स्थिति में कुछ बाधा नहीं आ सकती है।
उत्तर– श्रीपरमात्मा की प्राप्ति के बाद अहंकार-रहित अन्तःकरण में काम-क्रोधादि दुर्गुणों की उत्पत्ति का कोई हेतु नहीं रहता है। महर्षि लोमश को यदि वास्तव में क्रोध नहीं हुआ हो और केवल शास्त्रानुसार किसी के लाभार्थ बर्ताव किया गया होवे, तो कोई हानि नहीं है, परन्तु यदि वास्तव में उनको क्रोध हुआ माना जाए, तो समझना चाहिए कि तब तक उनको परमात्मा की प्राप्ति नहीं हुई थी। इस विषय को लेकर ही श्रीभुशुण्डिजी ने कहा है कि–
क्रोध कि द्वैत बुद्धि बिनु द्वैत कि बिनु अज्ञान।
माया बस परिछिन्न जड़ जीव कि ईस समान॥
श्रीशंकर भगवान् कामदेव के वश में होने के विषय में पूछा सो श्रीविष्णु और श्रीशंकर, जो साक्षात् ईश्वर हैं, उनके कर्मों का मर्म समझना मनुष्य की बुद्धि से बाहर है। ईश्वर की लीला को समझने की शक्ति मनुष्य की नहीं है; और उन लोगों का जो यह कथन है कि– ‘काम-क्रोधादि के रहने मात्र से ही स्वरूप की स्थिति में कोई बाधा नहीं आ सकती है’, सो ऐसा कहना बन नहीं सकता है, क्योंकि इसमें कोई प्राचीन महर्षियों के वचनों का प्रमाण होना चाहिए। इसके विरुद्ध में तो बहुत-से प्रमाण हैं– गीता अध्याय ३ श्लोक ३२ से ४३ तक और गीता अध्याय १६ श्लोक २१-२२; तथा और भी यथायोग्य स्थानों में देखना चाहिए।
प्रश्न ३– परमात्मा की प्राप्ति तो है ही। अपने-आप में स्थिति तो कोई काल में हटी नहीं; सिर्फ भ्रम हो गया था, वह मिट गया। वहाँ का स्वप्न भंग हो गया, फिर जो कुछ था, वही रह गया; इसलिए प्राप्ति पहले नहीं थी, बाद में साधन से हुई– यह बात भी कहते बनती नहीं है।
उत्तर– यदि परमात्मा की अपने स्वरूप में एक-सी स्थिति बनी हुई है, इसलिए परमात्मा को प्राप्त हुए पुरुष का यह भाव भी नहीं रहता कि पहले मुझे अज्ञान था और अमुक साधन से, अमुक काल में ज्ञान हुआ है, तथापि जो अज्ञानी जीव हैं, उनको अपना अज्ञान नष्ट करने के लिए साधन की पूर्ण आवश्यकता है और जिन पुरुषों की अज्ञान-निद्रा नष्ट हो गयी है या संसार का स्वप्नवत् भाव हो गया है, उनके काम-क्रोधादि अवगुण कैसे रह सकते हैं ? वर्तमान में भी जो पुरुष निद्रा से जाग जाता है, क्या उसका स्वप्न से कोई सम्बन्ध रहता है ? क्या स्वप्नका अभाव होने से भी स्वप्न के काम-क्रोधादि का अभाव नहीं होता है इत्यादि।
प्रश्न ४– प्रारब्ध के अनुसार फल-भोग करना ही पड़ता है। प्रारब्ध भोगे बिना नाश होता ही नहीं। प्रारब्ध का भोग जीवन्मुक्त को भी करना पड़ता है, फिर प्रारब्ध का भोग यदि वह आदमी कोई बुरा कर्म नहीं करे, तो बुरा कर्म किस प्रकार लगे ? चाहे कामना, इच्छा नहीं हो, परन्तु प्रारब्ध की प्रबलता से बुरा कर्म करना पड़े– पराधीन की भाँति, केवल प्रारब्ध कर्म भोगने के लिए। इसमें ज्ञान की स्थिति अथवा स्वरूप की स्थिति में क्या बाधा आती है ?
उत्तर– वास्तव में जीवन्मुक्त पुरुष के लिए तो कोई भी कर्म शेष नहीं रहता है, क्योंकि उसकी दृष्टि में एक परमात्मा के सिवाय अन्य किसी का होनापना भी नहीं है, तब उसको किसी भी कर्म का भोग कैसे भोगना पड़े ? परन्तु शास्त्र-दृष्टि से और लोकदृष्टि के अनुसार उस अन्तःकरण और इन्द्रियों द्वारा प्रारब्ध भोग भोगे जाते हैं– यही ठीक है। इसलिए मानना चाहिए कि ऐसा प्रारब्ध नहीं बन सकता, जो कि बिना पाप कर्म किए बिना न भोगा जा सके। यदि कोई पाप कर्मों में प्रारब्ध को हेतु माने, तो उसमें यह तीन आपत्तियाँ आती हैं–
- विधि-निषेध को कथन करने वाले शास्त्र व्यर्थ होते हैं।
- ईश्वर की न्यायशीलता में दोष आता है, क्योंकि जब विधाता ने स्वयं ही उसके प्रारब्ध में पाप कर्म विधान नियत कर दिया, तब उसको पाप का दण्ड क्यों मिलना चाहिए ? तथा यह युक्ति-युक्त भी नहीं है कि अपराध के फल में पुनः अपराध करना ही नियत किया जाय। अतः पाप का फल दुःख ही होना चाहिए, न कि पाप कर्म।
- जिसके द्वारा चोरी, जारी आदि नीच कर्म बनते हैं, वह जो काम-क्रोधादि दुर्गुणों से युक्त है, उसको ज्ञानी कैसे माना जा सकता है ? उसको नीच ही मानना चाहिए, क्योंकि मल, विक्षेप और आवरण– इन तीन दोषों का अभाव होकर अन्तःकरण शुद्ध होने के उपरान्त ज्ञान की प्राप्ति होती है, फिर शुद्ध हुए अन्तःकरण में काम-क्रोधादि मल कैसे उत्पन्न हो सकते हैं ? अतः यह मानना कि परमात्मा की प्राप्ति होने के उपरान्त भी प्रारब्ध कर्म शेष रहने के कारण काम-क्रोधादि दुर्गुण और नीच आचरण शेष रहते हैं– सर्वथा भ्रममूलक है। काम-क्रोधादि की उत्पत्ति का कारण आसक्ति है– गीता अध्याय २ श्लोक ६२-६३ हैं; और आसक्ति का सर्वथा अभाव होने पर परमात्मा की प्राप्ति होती है– गीता अध्याय २ श्लोक ५९। जब कारण का अभाव हो गया, तो कार्य किससे उत्पन्न होगा ?