Seeker of Truth
॥ श्रीहरिः ॥

जीवन्मुक्त में काम-क्रोध नहीं होते हैं

चैत्र शुक्ल १ सम्वत् १९९३ (दिनांक २३-३-१९३६), दोपहर २ से ४ तकस्वर्गाश्रम

ध्यान नहीं लगे, तो वह हमारा (अर्थात् ध्यान लगाने वाले का) कसूर है। प्रभु की दया तो है और इसीलिए ध्यान होना भी चाहिए। अब प्रातःकाल प्रयत्‍न करेंगे, तो अवश्य होगा। क्रोध, विघ्‍न, दोष जो हैं, ये बाधा डालते हैं। समझो, ये बाधक अवश्य हैं, जरा-सा (काम-क्रोध) होने से ध्यान नहीं होता है, परन्तु ऐसा मत समझो कि ध्यान क्रोध कम होने पर लगेगा। नहीं भी लगे; अनेकों विघ्‍नों के बीच यह भी एक विघ्‍न है। ध्यान रखो– वह धारणा उत्तम है कि क्रोध छोड़ने से छूटता है या कम होता है। स्वतः को तो भावना ही नहीं होनी चाहिए कि हमारे में क्रोध नहीं है। यदि क्रोध नहीं आया, तो यह मत समझो कि हम अक्रोधी हैं।

मनुष्य जीवन में एक उदाहरण– एक विरक्त ब्रह्मचारी था और अधिक श्रेष्ठ था। लोगों में ख्याति थी कि वह ब्रह्मचारी है। एक वेश्या ने भी सुना तो वह बोली कि– ‘मैं उसका ब्रह्मचर्य बिगाड़ूँगी।’ एक दिन उस वेश्या ने पूछा कि– ‘महाराज ! क्‍या आपने काम को जीत लिया है ?’ ब्रह्मचारी बोला– ‘लोग कहते हैं; मैं नहीं कहता। क्‍या भरोसा (कि जीत लिया) ?’

कुछ दिन बाद वह वेश्या फिर बोली कि– ‘आपकी वृत्ति तो अच्छी है। अब कह दो कि काम को जीत लिया।’ ब्रह्मचारी बोला– ‘शरीर रहते तो मैं नहीं कह सकता। मौका आयेगा तो कह दूँगा।’ एक दिन ब्रह्मचारी की मृत्यु हो गई और ब्रह्माण्ड (ब्रह्म-रन्ध्र) से प्राण गए। वेश्या बोली– ‘कहो, क्‍या काम को जीत लिया ? अब भी मेरा उत्तर दो।’ तब वह आकाश से बोला कि– ‘अब कहूँगा कि मैंने काम को जीत लिया है।’

मनुष्य को चाहिए कि लोग कुछ भी कहें; लोग मुझे योगी, भक्त आदि कहते हैं; यदि मैं अपने को मान लूँ तो समझो कि मैं कुछ नहीं हूँ।

शंका– प्रभु प्राप्‍ति के बाद मान लें तो क्‍या हुआ ? 

समाधान– मानने वाला रहता ही नहीं। सिद्धान्त यही है कि मानता नहीं है; जीवन्मुक्त में भी नहीं माना जाता। देखो, मैं पेशाब करके आया कि लोग मेरे लिए हाथ धोने के लिए पानी ले आए। मैं अपने लिए क्‍या कहूँ ? मुझ को अनुकूल नहीं पड़ती है, फिर मैं सेवा क्‍यों कराता हूँ ? मैं कहता हूँ कि– ‘जैसे तुम मेरे लिए तैयार रहते हो, इसी प्रकार यदि तुम सबकी सेवा करने को तैयार हो जाते, तो तुम्हारा कल्याण है।’ एक की सेवा से जो लाभ होता है, सौ की सेवा से अधिक होगा, इसलिए परमात्म-प्राप्‍ति वाले को सबकी अभेद (भेदभाव से रहित) सेवा करनी चाहिए। सेवा का क्रम तो सबको मालूम है ही– जैसा मेरे लिए, ऐसा सब के लिए। यदि कहो कि– ‘तुम्हारी सेवा महापुरुष समझकर करते हैं’ तो मैं महापुरुष नहीं हूँ, मैं तो साधारण मनुष्य हूँ। यदि मैं महापुरुष होऊँ, तो मेरी स्थिति ऐसी क्‍यों होवे ? और यदि महापुरुष मानो, तो एक ही शरीर से मानना मूर्खता है। महापुरुष सर्वत्र हैं, सो सबकी सेवा करना चाहिए; व्यक्तिगत सेवा से अल्प फल है। अधिक-से-अधिक आवश्यकीय कार्य सेवा का होवे, तो सत्संग छोड़ दो। भगवान ने कहा है– सर्वभूतहिते रताः (गीता ५/२५, १२/४)– सारे भूतों के हित में रत होना ही गीता की आज्ञा का पालन करना है। एक तो हम रोज सुनें और करें नहीं; दूसरा व्यक्ति सुने और करे, तो वह उत्तम है। (जो सुना, उसके) अनुकूल क्रिया करना ही सत्‍संग है और सत्‍संग की शिक्षा का पालन करना है।

जो शरीर की सेवा चाहता है, अपना फोटो खिंचवाता है और चाहता है कि मरने के बाद मेरा मान हो, जो ऐसा चाहता है कि मेरी जीवनी का प्रचार हो, मेरी कीर्ति हो– यह मूढ़ता है। इसमें परमात्मा की प्राप्‍ति नहीं है। मान, बड़ाई, प्रतिष्ठा– तीनों ही कलंक लगाने वाले हैं। परमात्मा के तत्त्व का ज्ञान होने पर इनका निशान भी नहीं रहता है। संसार में जो नाम और रूप को पुजवाता है, मरने के बाद प्रतिष्ठा चाहता है, वह अधिकांश में अज्ञानी है; किन्तु महापुरुषों को नहीं कहा जा सकता है। जब वह प्रभु को प्राप्‍त हो गया, तब वह उनमें एकीभाव से तन्मय हो जाता है; प्रभु से अभिन्‍न रहता है, वह जीता हुआ या मरता हुआ अपने को कैसे पुजवा सकता है ? यदि लोकोपकार के लिए ऐसा है, तो भी उत्तम नहीं है। उसके अन्दर ऐसी बात का होना कि– मेरे नाम से, गुण की कीर्ति से लोक-कल्याण होगा– यह उसकी भूल है। इसमें भूल यह है कि वह उद्धारक हो गया, सो यह ठीक नहीं है।

महापुरुष शिक्षा देते हैं, किन्तु स्वतः को पूज्य मानकर शिक्षा नहीं देते। यदि वे ऐसा करें तो आपत्ति यह है कि नाम-रूप से कल्याण होवे, तो क्‍या नाम-रूप दूसरा नहीं है ? है, वह कौन-सा है ? सो यह, कि जिसकी भक्ति से अधिक लाभ होता हो। जितने महापुरुष हैं, वे प्रभु की आत्मा हैं। उनका ध्यान लाभदायक है, फिर अपना नाम क्‍यों करना ? यदि अपने को बड़ा माने, तो भी ऐसी चेष्टा करना चाहिए कि इसका प्रभाव दूसरों पर बुरा नहीं पड़े; और जितने महापुरुष हुए हैं, उन सबमें श्रेष्ठ हुआ, तो भी उससे अधिक और हुए हैं। जो परमात्मा को प्राप्‍त होता है, वह स्वतः परमात्मा ही है। राम की, कृष्ण की पूजा उसी की पूजा है, फिर भला उसको क्‍या आवश्यकता है कि स्वत: पुजवावे ? उसको उनकी ही पूजा माननी चाहिए। कोई भी नाम-रूप का, जीवनी का प्रचार करने वाला अज्ञान से ही है। मरने के बाद भी जीवनी का प्रचार नहीं करना चाहिए, किन्तु जो हो गए हैं, उनका आदर्श उत्तम पुरुष चलाते हैं।

माता-बहिनों के लिए चार बातें हैं

  1. यह तो सबके लिए है कि संसार से प्रेम हटाकर प्रभु में प्रेम करना– सुहागिन होवे, या विधवा, कोई भी हो। संसार में जो प्रेम है, सो प्रभु में करना; क्‍योंकि संसारी पदार्थ क्षणिक हैं, प्रभु नित्य हैं, उनका संयोग भी नित्य है। संसारी भोगों में सुख की कल्पना करना भी दुःखदायी है। स्‍त्रियों को सोचना चाहिए कि गहना, जो शरीर पर पहना जाता है, वह दुःखदायी है, भार-रूप है। शरीर का गोरापन, सुन्दरता आदि भी हानिकारक है; और पुत्रादि भी दुःख के कारण हैं। देह भी दुःख का कारण है। प्रभु का स्मरण अनन्त है, इसलिए सबसे प्रेम हटाकर प्रभु में प्रेम करना चाहिए।
  2. यह समझो कि प्रभु कहाँ हैं ? – सर्वत्र हैं और यदि सर्वत्र हैं तो सबसे प्रेम करो; और जो अपना अपकार करे, उसका उपकार करो; गाली देने वालों को क्षमा करो। माताओ, बहिनो ! यदि तुम्हें कोई कलंकित कहे तो समझो कि यह हमारे को उपदेश देता है। उसकी बात सुनकर उससे बुरा मत मानो; और जिस बात की अपने सद्‍गुण में कमी देखो, उसका सुधार करना चाहिए; और यदि ठीक हो, तो कुछ (बात ही) नहीं।
  3. प्रेम कैसे हो ? – उपाय है– सेवा करना, सबका हित करना। दूसरों के लिए सेवा से प्रेम बढ़ता है, क्‍योंकि माताओं में वात्सल्य रहता है।
  4. पति की और बड़ों की प्रेम से, श्रद्धा से सेवा करनी चाहिए। ऐसी सेवा से प्रेम बढ़ेगा। यही प्रेम प्रभु में होगा। यही सबकी सेवा है।

स्‍त्रियों की वाणी

माताओं, बहिनों की वाणी के साथ अन्तःकरण में कामना रहती है; पुत्र की, धन की इच्छा रहती है, बीमारी नष्ट होने की कामना करती हैं, सो कामना जो है, वह दोष है; उसको निकालने से कल्याण होता है। सबके हित में रत रहना। यदि अन्त:करण में सकाम भाव है, तो उसको सिद्धि नहीं होती है। होगी, तो विलम्ब से होगी। 

माताओं को किसी भी देवता से कामना नहीं करनी चाहिए। जो सबसे बड़ा है, उससे करना। अभ्यासवश यदि होवे, तो देखो– लीद खाने की वस्तु नहीं है, त्यागने की है, इसी प्रकार किसी से कामना करना ही नहीं चाहिए; कामना को लीद के समान त्याग देना चाहिए।

प्रभु से उस बात की कामना करना कि फिर कामना करना ही नहीं पड़े। ऐसी चीज माँगो कि रोज-रोज माँगना ही नहीं पड़े। यदि प्रभु स्वतः देते हैं, तो अच्छी बात है; किन्तु यह भाव करना कि ‘प्रभु देंगे’ – यह भी वासना ही है; यह भी नहीं होना चाहिए; और ‘प्रभु दें, या न दें’ – ऐसा भाव होना भी सूक्ष्म कामना है। प्रभु क्‍या करेंगे – ऐसा सोच भी मत करो। हमको क्‍या करना है। उनके कर्तव्य का खयाल क्‍यों करें ?

जैसे भक्त प्रह्लाद को भगवान् ने कहा कि– ‘माँगो।’ तब वह बोला कि– ‘मैं भक्ति करूँ और आप देओ, यह तो बनियाई हुई; सो तो मैं नहीं चाहता। यह तो स्वार्थ है।’ यह सुनकर प्रभु प्रसन्न हो गए। प्रह्लाद कहते हैं– ‘प्रभु ! मुझे माँगने की इच्छा होने से ही आपने कहा कि माँगो। यदि आप कहो कि– माँग लो, तो यही माँगता हूँ कि मेरे अन्तर में माँगने की इच्छा ही नहीं होवे।’ ऐसा भाव उत्तम है। यह भाव शीघ्र प्रभु-प्राप्‍ति कराता है, किन्तु यह (शीघ्र प्राप्ति की इच्छा) भी कामना है। शीघ्र हो या विलम्ब से हो, हमको क्‍या आवश्यकता है ? बस, यही निष्कामभाव है।

माताओं-बहिनों के घर में झगड़ा हो जाता है। कुशब्द बोलने से क्रोध होता है, गाली बकने से मारपीट भी हो जाती है, प्रमाद हो जाता है, आत्मघात तक भी हो जाता है। क्रोध में कोई नदी, कुआँ, तालाब में कूदकर आत्म-हत्या कर बैठती हैं– इत्यादि अनुचित व्यवहार नरक का कारण है; हेतु यही है। बहुत-सा तो झगड़ा वस्तु, रुपया, गहना या काम-धंधा आदि पर से हो जाता है, सो झगड़ा करने वाले दोनों परस्पर समझने से रोग मिट सकता है; और यह भी समझो कि यह रोग जन्‍म-मृत्यु का कारण है। इस रोग की जड़ कटती है– सेवा से।

माताओं-बहिनों को घर में कठिन कार्य आने पर सदैव आगे रहना चाहिए। यदि बलिदान का मौका आवे, तो पहला नम्बर अपना होवे। शरीर से जितनी सेवा हो सके, उतना ही कल्याण है। ऐसा होने से एक मिनट भी खाली नहीं जायेगा। जैसे कोई जंगल या खेत ठेके से लिया हो और उसमें खोदते-खोदते रत्‍न निकले। सरकार ने निकालने का हुक्‍म दिया, किन्तु ठेके की मियाद (अवधि) के बाद रत्‍न निकालना नहीं होता है, सो यह शरीर ठेके का खेत है; इसमें मिट्टी, पत्थर, रत्‍न सब भरे हुए हैं। इसमें तो वही पुरुष बुद्धिमान् है, जो इसमें यंत्र द्वारा रत्‍न ही निकालता है। इसका यंत्र है– सत्संग। मृत्यु के बाद कुछ भी नहीं हो सकेगा। 

इसमें रत्‍न हैं– शरीर के द्वारा भजन-ध्यान करना, वैराग्य की शिक्षा ग्रहण करना– यही रत्‍न हैं; और उत्तम कार्य करना ही स्वर्ण है। इसके सिवाय दूसरा काम करना तो मिट्टी-कोयला है।

जो शरीर-रूपी खेत को सजाता है, वह हानि में है और रत्‍न-स्वर्ण निकालता है, वह लाभ में है। गीताजी में कहा है– इदं शरीरं कौन्तेय क्षेत्रमित्यभिधीयते (गीता १३/१)। शरीर को खेत क्‍यों कहा ? – क्‍योंकि किसान ही खेत से उत्पन्न करता है। यह मनुष्य शरीर ही खेत है, इदं (मनुष्य शरीर) है; और दूसरी योनियाँ ऊसर भूमि हैं। इसी मनुष्य शरीर (खेत) से सब उत्पन्न होता है– रत्‍न, सोना इत्यादि। खेत में हल चलाना पड़ता है और बोने वाला आत्मा है। खेत शरीर है, स्थूल देह में सूक्ष्म देह। अनाज (बीज) लिए हैं– उत्तम कार्य करना, भला कार्य करना, शुभाशुभ कर्म करना। यह बीज संसार-रूप से सूक्ष्म शरीर में, मन में अटकता है और काल पाकर फल देता है। खेत के हल, बैल इन्द्रियाँ हैं। सो ऐसे उत्तम खेत को पाकर भी जो हम भूखे रहें, आलस्यवश भूखे मरें, हमारा जन्‍म-मरण होवे, तो इससे अधिक मूर्खता और क्‍या हो सकती है ? जैसे किसी राजा ने दयावश खेत बोने को दे दिया हो और उसको बोवे नहीं; तथा आलस्यवश यदि बबूल बो देवे और तकलीफ पावे, तो उसी की मूर्खता है। यह बबूल का काँटा पाप कर्म हैं। भला इसमें किस प्रकार निर्वाह हो सकता है ? शरीर से सदैव उत्तम कार्य ही लेवें; इसे आरामी नहीं बनाना। अपने पास जो भी वस्तु हो– रुपया, गहना, कपड़ा, शरीर– इनको देकर दूसरों की सेवा करनी चाहिए। तन, मन, धन, जन से सेवा करनी चाहिए; दूसरों को आराम पहुँचाना चाहिए। अच्छी वस्तु दूसरों की सेवा में लगाना और दूसरों की आपत्ति घर में रख लेवें। पूर्व में भी माता-बहिनें इसी प्रकार रहती थीं।

बेवा माताओं-बहिनों के लिए– ईश्वर में प्रेम, ईश्‍वर का स्मरण और सब समय वैराग्य और ध्यान में बितावें; और सुहागिन माता-बहिनें पतिव्रत-सेवा में, धर्म में रत रहें। इस प्रकार की बेवा माता-बहिनें पूजित होती हैं, उनका सत्कार होता है, मान होता है, किन्तु आकांक्षा मत रखो कि हम पुजवावें– ऐसी कामना छोड़ देनी चाहिए। सेवा के लिए प्रभु कहते हैं– तस्मात्सर्वेषु कालेषु मामनुस्मर (गीता ८/७) – प्रभु का चिन्तन ही उत्तम है। आज्ञापालन, पतिव्रत-धर्म पालन उत्तम है, किन्तु कामना नहीं करनी चाहिए। घर का विरोध मूल-सहित नाश करता है। इस विरोध को तो मृत्यु समझकर त्याग करना चाहिए, यानी विरोध-विरोध ही मृत्यु है। 

हम तीर्थ में आए हैं, यहाँ तीन प्रयोजन सिद्ध होते हैं। संसार में चार पदार्थ हैं– धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष; किन्तु तीर्थ में तीन वस्तुएँ– तीर्थ = तीन + अर्थ – तीन अर्थ– धर्म, काम, मोक्ष। यहाँ अर्थ (धन) नहीं मिलता है। धर्म और मोक्ष तो सात्त्विकी हैं और कामना राजसी है। धर्म और मोक्ष निष्कामभाव से करना चाहिए, किन्तु केवल इसी में मुक्ति नहीं है। उसका पालन करना और पालन करके उपासना करना और रहस्य को समझने से फल मिलता है। तीर्थ में पाप नहीं करने चाहिएँ; यहाँ तो भजन, ध्यान, सत्‍संग से लाभ होता है। तीर्थ में पाप का फल पाप है और गंगा में स्‍नान करना लाभ है। महापुरुष की सेवा करना धर्म है और नहीं करना पाप है। देखो, यह गंगाजी का उत्तम तट है और तपोभूमि है; यहाँ संयम से रहना तप है। घर में तो नाना प्रकार के भोजन करना होता है, किन्तु यहाँ तो थोड़ा और सात्त्विकी भोजन करना चाहिए। मिर्च, खटाई, अमचूर आदि राजसी आहार हैं, उत्तेजक हैं। खटाई से ब्रह्मचर्य का नाश होता है, मिर्च से क्रोध होता है। साधारण दाल और फुलका– ये दो ही वस्तु उत्तम हैं। बस, दो ही वस्तु खाना चाहिए– एक खाने की, एक लगाने की। साथ में यदि दूध लिया जाय तो हानि नहीं है, सबके लिए उत्तम है, किन्तु त्याग ही उत्तम है। पहनने के भी दो ही वस्‍त्र होवें तो अच्छा– धोती (अधोवस्‍त्र) और कामली (कम्बल, उत्तरीय वस्‍त्र)। गृहस्थ यदि एक -दो अधिक भी रखें, तो हानि नहीं है। बोलने का संयम करे; जहाँ तक हो सके, परमार्थ की बात करे, फालतू बात को प्लेग के समान समझे।

नेत्र से कुदृष्टि नहीं करे। यदि हो, तो प्रभु को याद करे। ऐसा करने से देखने का दोष दूर होगा। मानसिक दोष होवे तो उपवास करना चाहिए; क्रोध नहीं करना चाहिए; ज्ञान तथा भक्ति करनी चाहिए; पूर्वाभ्यास से यदि क्रोध हो जाय, तो प्रभु से प्रार्थना करे– ‘हे प्रभु ! दीनबन्धु ! क्षमा करो और आपका भजन देते रहो।’ इस प्रकार करने से काम-क्रोध नहीं रहेंगे। प्रभु के स्मरण से क्रोध का नाश हो जाता है। कर्तव्य-पालन करना चाहिए। यहाँ तीर्थ में आकर सदा सत्य बोलो। यदि झूठ बोलने में आ जाए, तो पश्चात्ताप करो; अधिक झूठ बोलने में उपवास करो। सर्वोत्तम साधन यह है कि प्रभु को भूलें नहीं; भारी गड्ढे़ में गिरकर भी नहीं भूलें। पाप से खूब डरें और भजन में मन लगावें।

श्रद्धा का स्वरूप– शास्‍त्र, महात्मा, गुरु, वेद, ईश्वर, परलोक– इनमें विश्वास, पूज्यभाव है, आदर है, भक्ति है, उसका नाम श्रद्धा है। प्रत्यक्ष से बढ़कर श्रद्धा होना परम श्रद्धा है। तुम कहीं किसी स्थान पर नदी के किनारे नाव देखकर आए कि वहाँ है; हमने नहीं देखी, तो भी विश्वास करना– इसका नाम विश्वास है, श्रद्धा है।

श्रद्धावाँल्‍लभते ज्ञानं तत्परः संयतेन्द्रियः
(गीता ४/३९)

श्रद्धा के कई भेद हैं। जैसे यह घड़ी है और सफेद है। श्रद्धा होगी तो यह चाँदी की दिखने लग जायेगी। यदि कहेंगे कि पीली है, तो सोने की दिखने लग जायेगी। 

सत्त्वानुरूपा सर्वस्य श्रद्धा भवति भारत।
श्रद्धामयोऽयं पुरुषो यो यच्छ्रद्धः स एव सः॥
(गीता १७/३)

हे भारत ! सभी मनुष्यों की श्रद्धा उनके अन्तःकरण के अनुरूप होती है तथा यह पुरुष श्रद्धामय है, इसलिए जो पुरुष जैसी श्रद्धा वाला है, वह स्वयं भी वही है अर्थात् जैसी जिसकी श्रद्धा है, वैसा ही उसका स्वरूप है।

जिसकी जैसी श्रद्धा है, वैसा ही उसका रूप है। श्रद्धावान् ही ज्ञानी है और ज्ञानी को ही परमानन्द की प्राप्‍ति होती है– 

यज्ञशिष्टामृतभुजो यान्ति ब्रह्म सनातनम्।
नायं लोकोऽस्त्ययज्ञस्य कुतोऽन्यः कुरुसत्तम॥
(गीता ४/३१)

हे कुरुश्रेष्ठ अर्जुन ! यज्ञों के परिणामरूप ज्ञानामृत को भोगनेवाले योगीजन सनातन परब्रह्म परमात्मा को प्राप्‍त होते हैं और यज्ञ-रहित पुरुष को यह मनुष्यलोक भी सुखदायक नहीं है, फिर परलोक कैसे सुखदायक होगा ?

हमको केवल श्रद्धा हो जाय तो कल्याण होने में कुछ भी देर नहीं है। वक्ता, देश, शब्द– सब एक ही हैं, किन्तु जिनकी जैसी श्रद्धा होती है, वैसा समझकर लाभ उठाते हैं। कोई तो वक्ता को पूज्य मानता है, कोई कहता है– ‘पाखण्डी है।’ तीसरा कहता है– ‘यह तो भैया ! इसकी जीविका है, सो धन चाहता है।’ चौथा बोलता है– ‘जीविका के लिए कोई कथा नहीं कहा करते। यह तो मान चाहता है कि सब हमको मानें।’ पाँचवाँ कहता है– ‘भैया ! ये तो सज्जन पुरुष हैं; ये तो अभ्यास के लिए ऐसा करते हैं। इस निमित्त से इनका कल्याण हो जायेगा।’ छठा बोलता है– ‘अरे भाइयो ! ये तो कल्याणरूप ही हैं। इनका कल्याण तो हो गया है और ये तो अब कालक्षेप करते हैं।’ सातवाँ कहता है– ‘अरे भाई ! ये तो लोगों का उद्धार करते हैं।’ इसी प्रकार अपनी-अपनी श्रद्धा के अनुसार कहते-सुनते हैं। प्रत्येक की भावना पृथक्-पृथक् रहती है।

रामचन्द्रजी ने धनुष तोड़ा, तब प्रत्येक को पृथक्-पृथक् भाव से दिखे। किसी को महा-शत्रु, किसी को पूज्य, किसी को मित्र आदि अनेक प्रकार प्रतीत हुए। इसी प्रकार संसार भी सबको एक-सा नहीं दिखता है, क्‍योंकि भगवान् ने कहा है कि महात्मा लोग संसार को– वासुदेवः सर्वमिति (गीता ७/१९) देखते हैं; वैरागी को दुःखरूप और भोगी को संसार भोगमय दिखता है; उसी प्रकार संसार तो है ही, पर संसार की एक स्‍त्री में ही भिन्न-भिन्न दृष्टि रहती है। यदि हम संसार को आनन्दमय देखने लगें, तो हमको अणु-अणु में नारायण ही दिखेंगे। जैसे– गोपियों को, प्रह्लाद को सर्वत्र हरि ही दिखते थे, उसी प्रकार हमको भी देखना चाहिए। गीताजी के  अनुसार–

यदा भूतपृथग्भावमेकस्थमनुपश्यति।
तत एव च विस्तारं ब्रह्म सम्‍पद्यते तदा॥
(गीता १३/३०)

अर्थात्– यह पुरुष जिस काल में भूतों के न्यारे-न्यारे भाव को एक परमात्मा के संकल्प के आधार स्थित देखता है तथा उस परमात्मा के संकल्प से ही सम्पूर्ण भूतों का विस्तार देखता है, उस काल में सच्चिदानन्दघन ब्रह्म को प्राप्‍त होता है।

इस श्लोक में कहा है कि– जब (जिस काल में) तुम यह देखोगे कि सब कुछ एक ही है, तब तुमको ब्रह्म की प्राप्‍ति होगी; जिस प्रकार बलदेवजी को गाय में, बछड़े में, लाठी में, कृष्ण-ही-कृष्ण दिखते थे, उसी प्रकार हमको भी विश्वास हो जायेगा, तो हमको आज संसार जिस रूप में दिख रहा है, उससे विपरीत प्रभुमय दिखने लगेगा। हम रेल में चलते-चलते देखते हैं कि सूर्य पश्चिम से निकल रहा है, परन्तु यथा-स्थान (हमारे मूल स्थान) पर जाने से पूर्ण ज्ञान (यथार्थ ज्ञान) हो जाता है। यह इन्द्रियों का विकार है, क्षण-क्षण में इनका स्वभाव बदलता रहता है, इसलिए इनका कहना नहीं मानना चाहिए। इन विकारों को विचार द्वारा हटा दो और उसी स्थान पर परमात्मा को देखो। नेत्र-दोष से ही आकाश में जाला प्रतीत होता है, वास्तव में आकाश में जाला नहीं है। हमको यह संसार धोखे-से दिख रहा है, इसलिए विश्वास करो कि– ‘यहाँ परमात्मा विराजमान हैं’ तो वे साक्षात् दर्शन देंगे– यही परम श्रद्धा है।