Seeker of Truth
॥ श्रीहरिः ॥

जीव की गति का वर्णन

आषाढ़ कृष्ण 3 सम्वत् 1993 (दिनांक 8-6-1936), सोमवार, दोपहरस्वर्गाश्रम

जीव इस शरीर से निकलकर दूसरे शरीर में प्रवेश हो जाता है। पहले उसका सूक्ष्म शरीर तैयार हो जाता है।

कुत्ते का बच्चा पेट से बाहर आता है तो जीव सहित ही आता है; जीव तो शुरू से ही प्रवेश कर जाता है। कोई-कोई कहते हैं कि जीव गर्भ में 6 महीने के बाद पड़ता है, सो बात ठीक नहीं है। जीव यदि गर्भ में न पड़े, तो गर्भ की वृद्धि ही नहीं हो सकती है। पाँच महीने के बच्चे को भी पेट से निकाला जाता है, तो जीता हुआ ही निकलता है, इससे यह पता चलता है कि जीव प्रथम से ही है। एक शरीर से दूसरे शरीर में जो निकल कर जाता है, वह सूक्ष्म शरीर है।

मनुष्य के तीन शरीर हैं– स्थूल, सूक्ष्म और कारण। हम लोग स्वप्‍न में भी अपना-अपना शरीर मनुष्य का ही देखते हैं। सुषुप्‍ति अवस्था में भी यही शरीर रहता है। पहले कारण शरीर बनता है, फिर सूक्ष्म शरीर बनता है, फिर स्थूल शरीर बनता है। मनुष्य का स्वभाव है, वही स्वरूप है। मनुष्य के स्वभाव के अनुसार ही उसका आगे शरीर बनेगा। स्वभाव कर्मों से बनता है। स्वभाव है, सो कारण-स्वरूप है। हिंसा करने वाला मरने पर हिंसक पशु बनता है और दान देने वाला बड़ा दयालु बनेगा। उसके स्वभाव के अनुसार ही सूक्ष्म शरीर बनता जाता है। हम लोगों का स्वभाव आचरण के अनुसार ही होता जाता है। हम लोग जो कर्म करते हैं, उसके दो विभाग हैं– एक वासना और दूसरा फल।

वासना के समुदाय के अनुसार ही स्वभाव बनता है। चोरी करने पर उसके संस्कार, क्रिया या भाव हृदय में अंकित हो जाते हैं। उस चोरी की क्रिया की दो चीजें बनती हैं– एक तो फल और एक भावना। जैसा कार्य होता है, वैसा फल मिलता है। फल से आयु और वासना बनती है। वासना के समुदाय से स्वभाव, उससे कारण-स्वरूप शरीर और उसके अनुसार योनि मिलती है।

मरते समय में जो बलवान् भावना होती है, उसकी स्मृति होते ही सूक्ष्म शरीर उसी प्रकार का बन जाता है। अंतकाल में उसकी पूर्व स्फुरणा से ही शरीर बनता है।

जिस क्षण में प्राण निकलते हैं, उस समय सूक्ष्म शरीर का फोटो उतरता है। जो भाव उसके दिल में आया, जैसे कुत्ते का भाव आया, तो उसका वह सूक्ष्म शरीर कुत्ते का हो गया। अब वह कुत्ते के समान बना हुआ शरीर से निकलकर वायुमंडल में घूमने लगा। अब उसका जिससे सम्बन्ध होता है, वह उसी कुत्ते के खाने-पीने के पदार्थ द्वारा उसके पेट में चला जाता है और वीर्यरूप होकर कुत्ती के गर्भ में आ जाता है तो वीर्य और रज मिलकर उसकी कुत्ते की स्थूल आकृति बनने लगती है। दस महीने बाद पूर्ण स्थूल शरीर बनकर बाहर आता है।

इस तरह से लोग कर्मानुसार दूसरी योनि में जाते हैं। सत, रज, तम– ये तीन गुण ही उसके हेतु होते हैं। गुण कर्मानुसार होता है और कर्म से स्वभाव बनता है; स्वभाव से ही सत्-असत् योनियाँ बनती हैं।

सात्त्विक पुरुष ऊपर को जाता है। एक केवल सात्त्विक, एक सात्त्विक-राजसी मिली हुई– दोनों ऊपर को जाते हैं।

सात्त्विक-राजसी बुद्धि वाला स्वर्ग में जाता है और कर्म पूरे होने पर फिर वापस आता है। इसका जाना इस प्रकार से है– अमृत देवताओं का खाद्य पदार्थ है, तो यह सात्त्विक मिली हुई राजसी बुद्धि वाला चन्द्रमा में होकर अमृत बन देवलोक में जाता है और भोग भोगता है। भोग के समाप्‍त होने पर वह जीव पृथ्वी की तरफ धकेल दिया जाता है।

पृथ्वी से पहले ऊपर की ओर अन्तरिक्ष लोक है, उसमें करोड़ों जीव वायु के भीतर रहते हैं। नक्षत्र और पृथ्वी के बीच आकाश में रहने वाले जीव रहते हैं। वहाँ से चन्द्रमा की रश्मियों द्वारा बिजली के लोक में आकर फिर वर्षाया जाता है और भोज्य पदार्थ के वृक्ष व पौधे में आ जाता है; फिर उसे मनुष्य खा जाते हैं, उससे मनुष्य पैदा होता है।

अधिकांश में देवलोक से आया हुआ जीव मनुष्य ही बनता है। यदि कुछ खराब कर्म से आया हो, तो दूसरी योनि वालों से खाया जाकर वहाँ जन्‍म लेता है।

सकामी लोग आते-जाते रहते हैं– कभी तो स्वर्ग में और कभी मनुष्य लोक में। निष्कामभाव से काम करने वाला सूर्य की रश्मियों से आकाश में जाकर परम-धाम को जाता है; वह वापस नहीं आता है। सकामी की मध्य गति होती है और निष्कामी की ऊर्ध्व गति होती है।

तीसरी है— अधोगति; इसकी दो जगह हैं। मनुष्यका शरीर पाकर उचित कार्य नहीं किया तो १. योनि विशेष नरक २. स्थान विशेष नरक मिलता है। 

जहाँ ये नरक हैं, वहाँ बड़ा अंधकार है। वहाँ अग्‍नि का जो उजाला है, वही प्रकाश है।

ये नरक पृथ्वी के अन्दर हैं। अन्दर यानी नीचे। पृथ्वी के अन्दर भी प्रजा बसती है– यह युक्ति और शास्‍त्र- दोनों तरह से सिद्ध होता है। अर्जुन को उठाकर वह राक्षसी गंगाजी के द्वारा(अर्थात् गंगाजी में से होकर) पाताल में ले गयी। पृथ्वी के गोले में पार तक(अर्थात् आर-पार) छेद नहीं निकाल सकते, क्‍योंकि उसमें पोल है।

पृथ्वी के अन्दर अग्‍नि का प्रकाश है। 5-7 मील (वर्तमान माप से 8-11 कि.मी.) की मोटाई के बाद अग्‍नि निकल आती है। उसके बाद जीवों के लिये नरक बने हैं। उन्हें नरक में बड़ी तकलीफ उठानी पड़ती है। आसुरी योनि वालों को यह नरक दिया जाता है।

जो मुक्त हो जाता है, ब्रह्म में मिल जाता है, वह परम धाम में जाता है। पृथ्वी के ऊपर अन्तरिक्ष और उसके ऊपर स्वर्ग है। स्वर्ग के 5 भेद हैं– स्व(इन्द्रलोक), मह (देवता), जन (ब्रह्मा), तप(ब्रह्म) और सत्य(वैकुण्ठ धाम– इसे साकेत लोक और गोलोक भी कहते हैं)। उसके ऊपर कोई स्थान नहीं है। इस सात विभाग में सारा ब्रह्माण्ड आ जाता है।

जो ज्ञान के द्वारा निर्गुण ब्रह्म को पाता है, वह ब्रह्म में विलीन हो जाता है; वह वापस नहीं आता है। सत्यलोक से भी वापस नहीं आते। ब्रह्मलोक से जीव वापस आते हैं, सत्यलोक से वापस नहीं आते। मुक्ति के दो मार्ग हैं– कर्म और श्रद्धा। गति तीन हैं– ऊर्ध्व, मध्य और अधोगति। अधोगति से नरक में बहुत यातना दी जाती है।

कर्म के अनुसार स्वभाव और स्वभाव के अनुसार शरीर होता है। मरते समय में स्वभाव के अनुसार सूक्ष्म शरीर बन जाता है– कुत्ते का हो, गधे का हो, कैसा भी हो। जैसे फोटो उतारते समय (खींचते समय) हिल जायँ, पर आँख मींच लें, तो फोटो खराब हो जाता है, उसी प्रकार मरते समय में जैसा ध्यान हो, स्वभाव हो(कारण शरीर हो), उसी प्रकार का फोटो उतरेगा; इसीलिये अन्त समय में होशियार रहना चाहिये। उस समय होशियार रहने के लिये ही साधन व अभ्यास कराया जाता है। यदि बिना साधन के व अभ्यास के मरते समय भगवत्स्मरण हो जाय– यह तो प्रभु की दया ही है। उसका फिर जन्‍म नहीं होता है। वह सत्यलोक को जाता है, परम गति को प्राप्‍त होता है।

अन्त समय में किसी-न-किसी चीज का स्मरण होता ही है। यदि जड़ वस्तु का चिन्तन हो, तो वह जड़ चीज में रहने वाला जीव ही बनता है। ये सारी बातें शास्‍त्रों के अनुसार ही कही गयी हैं।

सब नरक अलग-अलग तरह के बने हुए हैं। कुम्भीपाक नरक का आकार घड़े के समान है। जैसे घड़े में कुछ खपाया जाता है, उसी प्रकार जीव को उसमें खपाया जाता है, वह मरता नहीं है। (असि-पत्र वन नामक नरक में) तलवार के समान पत्ते रहते हैं, उसमें वर्षों तक घसीटते हैं; वह मरता भी नहीं है, तकलीफ ही उठाता है। उसको दूसरा शरीर देकर तकलीफ देते हैं। महा-रौरव नरक में तकलीफ-ही-तकलीफ दी जाती है। रौरव नरक में रोता है और तकलीफ उठाता है।

योनियों में उतनी तकलीफ नहीं उठानी पड़ती है। कीट योनि से सौ गुणा सुख पशु योनि में है। पशु योनियों से सौ गुणा सुख पक्षी योनियों में है और पक्षी योनियों से सौ गुणा सुख मनुष्य योनि में है।

काम-क्रोध-लोभ नरक के दरवाजे हैं। इनके द्वारा दोनों तरह के नरक मिलते हैं– स्थान-विशेष नरक और योनि-विशेष नरक।

नक्षत्र से लेकर पृथ्वी तक अन्तरिक्ष लोक है। भूर्भुवः स्वः(भूः, भुवः, स्वः)। स्वः के 5 हिस्से हैं।

सब नष्ट होने पर शक्ति और शक्तिमान्– दो वस्तु रहती हैं; और सारे जीव, तेज, आकाश– सभी परमात्मा में विलीन हो जाते हैं। तन्मात्राएँ (शब्द, रस, रूप, स्पर्श, गन्ध) कारण में विलीन हो जाते हैं। जीवों का समुदाय ब्रह्म के शरीर में रहता है। जैसे समुद्र में गंगाजल के घड़े भरे रखे हों– ऐसे रखे रहते हैं। सारे जीव ब्रह्म में प्रकृति को लेकर रहते हैं; फिर पीछे फैल जाते हैं।

पहले अहंकार की उत्पत्ति, उसके बाद तन्‍मात्रा। 5 तन्‍मात्रा हैं(शब्द, स्पर्श आदि), 10 इन्द्रियाँ (श्रोत, चक्षु आदि) – इस तरहसे ये 15 उत्पन्न होते हैं।

16 विकारों की प्रकृति मूल प्रकृति की विकृति है। 

भोग में विशेष-अविशेष, लिंग-अलिंग।

अलिंग– अव्याकृत माया।

विशेष 16 हैं अविकांस 6, 5 तन्‍मात्रा। 

16वाँ अहंकार से मन– अव्यक्त।

मूल प्रकृति और प्रकृति विकृति से 8 प्रकार की हैं और 16 विकार हैं। ऐसे 24 हुए। मन, बुद्धि, अहंकार– ये तीन; और 5 तन्‍मात्रा– कुल 8 हुए। कार्य 16 और कारण 8– ऐसे 24 सभी सिद्धान्त से सिद्ध होते हैं।

पहले आकाश तत्त्व होता है। आकाश तत्त्व से पहले अव्याकृत माया; उसके बाद आकाश तत्त्व, फिर वायु तत्त्व, तेज तत्त्व, जल तत्त्व, फिर पृथ्वी तत्त्व होता है। 

प्रलय का ठीक समय समाप्‍त हो जाने पर सब जीवों की वृद्धि होकर चेतन आकार अनेक रूप हो जाते हैं। वहाँ परमेश्वर पिता है और प्रकृति माता है। माता से शरीर और पिता से चेतन मिलता है, जिस तरह रज और वीर्य से जीव बनता है।

तप लोक तक का प्रलय हो जाता है। ब्रह्मा का लोक भी सूक्ष्म शरीर से हो जाता है।

सारे जीवों के पाप-पुण्य होते हैं। ये ही बीज के रूप में लय हो जाते हैं और संस्कार के रूप में हो जाते हैं। सारे जीव परतन्‍त्र हैं; स्वतन्‍त्र फल नहीं भोग सकते। यदि कोई कहे कि– जीव कर्मानुसार आप-ही-आप दुःख-सुख भोग लेते हैं– यह बात नहीं है। जैसे यदि कोई मरा, तो वह कुत्ते की योनि में नहीं जाना चाहेगा, इसलिये ईश्वर के कार्यकर्ता (देवता) ही यह कार्य करते हैं। स्वतन्‍त्र रूप से जीव सुख-दुःख नहीं उठा सकते, जैसे संसार में कोई चोरी करता है, वह स्वयं जेल में नहीं जाता है, उसके लिये राज्य-कर्मचारी नियत हैं, वे उसे उसके कर्म (अपराध) के अनुसार सजा दे देते हैं। जैसे मोटर में भावना करके बैठ जाओ कि वहाँ जाना है, तो मोटर नहीं ले जा सकती है, ले जाने वाला तो चेतन है, उसी तरह उस ओर यह परमात्मा है। 

सांख्य और जैन का सिद्धान्त– दोनों में बड़ा फर्क है। जीव नाना हैं, पुरुष चेतन है– यही सिद्धान्त मिलता है; बाकी सबमें मत-भेद है।

बीज के रूप में तो संकल्प मात्र ही है। जैसे एक पापी आदमी है, उसका कारण स्वरूप पापी नहीं बनता है; वह मरते समय ही एकदम बन जाता है, जैसे साँचे में ढालने के पहले। सामग्री सब तैयार रहती है और साँचा भी तैयार रहता है; उसी समय आवश्यकता से दूसरी वस्तु की जरूरत होने पर दूसरा साँचा रख दिया जाय, तो दूसरी वस्तु उसी चीज की तैयार हो सकती है। भगवान् कहते हैं कि सतोगुण में स्थित हुआ पुरुष मुझ को प्राप्‍त होता है।

किन्तु मरते समय, कारण वश उसकी बुद्धि रजोगुण में आ जाय, तो वह स्वर्ग में जायेगा और रजोगुण वाला मरते समय सतोगुण में आ जाय, तो वह मुझ को प्राप्त होगा।